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उपजणि कौ अंग

 इंद्रलोक अचिरज भया,ब्रह्मा पड़या विचार ।
 कबीरा चाल्या रांम पैं,कौतिगहार अपार ॥ ३ ॥
 ऊंचा चढ़ि असमांन कूं,मेर उलंघे ऊड़ि।
 पसू पंषेरू जीव 'त,सब रहे मेर मैं बूड़ि ॥ ४ ॥
 सद पांणी पाताल का,काढ़ि कबीरा पीव ।
 बासी पावस पड़ि मुए,विषै बिलंबे जीव ॥ ५ ॥
 कबीर सुपिनैं हरि मिल्या,सूतां लिया जगाइ ।
 आंपि न मींचौं डरपता,मति सुपिनां है जाइ ॥ ६॥
 गोब्यं द के गुंण बहुत हैं,लिखे जु हिरदै मांहिं ।
 डरता पांणीं नां पीऊं,मति वै धोये जांहिं ।। ७ ॥
 कबीर अब तौ ऐसा भंया,निरमोलिक निज नाउं ।
 पहली काच कथीर था,फिरता ठांवैं ठाउं ॥ ८॥
 भौ समंद बिष जल भसा,मन नहीं बाँधै धीर ।
 सबल सनेहीं हरि मिले,तब उतरे पारि कबीर ॥६॥
 भला सुहेला ऊतरया,पूरा मेरा भाग।
 रांम नांव नौका गह्या,तब पांणीं पंक न लाग ॥१०॥
 कबीर कंसौ की दया,संसा घाल्या खोइ।
 जे दिन गये भगति बिन,ते दिन सालैं मोहि ॥ ११ ॥
 कबीर जाचण जाइथा,आगै मिल्या अ चं ।
 ले.चाल्या घर आपणैं;भारी पाया संच ॥ १२ ।। ७५२ ॥

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(३)ख०-ब्रह्मा भया विचार।
(४)ख०-ऊँचा चाल ।
(६)इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
   कबीर हरि का डर्पतां,उन्हां धान न खाउं ।
   हिरदा भीतरि हरि बसै,ताथै खरा उराउं ॥७॥
(११)ख०-संसा मेल्हा