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कबीर-ग्रंथावली

 कबीर यहु जग अंधला,जैसी अंधी गाइ ।
 बछा था सो मरि गया,अभी चांम चटाइ ।। ५॥ ७३७।।

(४८) पारिष को अंग
 जब गुण कूं गाहक मिलै,तब गुण लाख बिकाइ ।
 जब गुण कौं गाहक नहीं,तब कौड़ी बदलै जाइ ॥१॥
 कबीर लहरि समंद की,मोती बिखरे प्राइ ।
 बगुला मंझ न जांणई,हंस चुणे चुणि खाइ ॥ २॥
 हरि हीराजन जौहरी,ले ले मांडिय हाटि ।
 जबर मिलैगा पारिषू,तब हीरां की साटि ॥ ३ ॥ ७४०॥

 

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(५०) उपजणि को अंग
 नांव न जांणों गांव का,मांरगि लागा जांउं ।
 काल्हि जु काटां.भाजिसी,पहिली क्यूं न खड़ांउं ॥ १ ॥ .
 सीष भई संसार थे,चले जु सांईं पास ।
 अबिनासी मोहि ले चल्या,पुरई मेरी आस ॥ २ ॥

(४६-२) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
     कबीर मनमाना तोलिए,सबदां मोल न तोल।
     गौहर परषण जांणहीं,आपा खोवै बोल ॥७॥
(४१-३) इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
  . कवीर सजनहीं साजन मिले,नह नह करैं जुहार ।
    बोल्यां पीछे जांणिये,जो जाकौ ब्यौहार ॥ ४॥
    मेरी बोली पूरबी,ताइ न चीन्है कोइ।
    मेरी बोली सो लखै,जो पूरब का होई ॥५॥