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कबीर-ग्रंथावली

(४२) चित कपटी कौ अंग
कबीर तहाँ न जाइए,जहाँ कपट का हेत ।
जालूं कली कनीर की,तन रातौ मन सेत ॥ १ ॥
संसारी साषत भला,कंवारी कै भाइ।
दुराचारी बैनौं बुरा,हरिजन तहाँ न जाइ ॥२॥
निरमल हरि का नांव सों,कै निरमल सुध भाइ ।
कै लै दूणी कालिमां,भावै सौ मण साबण लाइ ॥ ३॥ ६३५ ॥

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(४३) गुरसिष हेरा कौ अंग
ऐसा कोई नां मिलै,हम कौं दे उपदेस ।
भौसागर मैं डूबतां,कर गहि काढ़ै केस ॥ १ ॥
ऐसा कोई नां मिलै,हम कौं लेइ पिछानि ।
अपना करि किरपा करै,ले उतारै मैदानि ॥ २॥ .
ऐसा कोई नां मिलै,रांम भगति का गीत ।
तन मन सौंपै मृग ज्यूं,सुनैं बधिक का गीत ॥ ३ ॥
ऐसा कोई नां मिलै,अपना घर देइ जराइ ।
पंचूं लरिका पटिक करि,रहै रांम ल्यौ लाइ ॥ ४ ॥
ऐसा कोई नां मिलै,जासौं रहिये लागि ।
सब जग जलतां देखिये,अपणीं अपणीं आगि ॥ ५ ॥
ऐसा कोई नां मिलै,जासूं कहूं निसंक ।
जासूं हिरदै की कहूं,सो फिरि मांडै कंक ॥ ६ ॥


(४२.१)ख०-प्रति में इस अंग का पहला दोहा यह है-
     नवणि नयौ तौ का भयौ,चित्त न सूधौ ज्यौंह ।
   • पारधियां दूणां नवै,म्रिघाटक ताह ॥१॥
 (५) इसके भागे ख० प्रति में यह दोहा है-
    ऐसा कोई नां मिलै,बूझै सैन सुजांन ।
    ढोल बजंता ना सुणैं,सुरवि बिहूंणा कांन ॥ ६ ॥