एक खड़े ही लहैं,और खड़ा बिललाइ ।
सांईं मेरा सुलषनां,सूतां देइ जगाइ ।। ४ ।।
सात समंद की मसि करौं,लेखनि सब बनराइ ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुंण लिख्या न जाइ ॥ ५ ॥
अबरन कौं का बरनिये,मोपैं लख्या न जाइ ।
अपना बाना बाहिया,कहि कहि थाके माइ ॥ ६ ॥
झल बांवैं झल दांहिनैं,झल हि मांहि ब्यौहार ।
आगैं पीछें झलमई,राखै सिरजनहार ।। ७ ।।
साईं मेरा बांणियां,सहजि करै ब्यपार ।
बिन डांडी बिन पालड़ै,तोलै सब संसार ॥ ८॥
कबीर वारया नांव परि,कीया राई लूंण ।
जिसहि चलावै पंथ तूं,तिसहि भुलावै कौण ॥ ६ ॥
कबीर करणों क्या करै, जे राम न करै सहाइ।
जिहिं जिहिं डाली पग धरै, साई नवि नवि जाइ ॥ १०॥
जदि का माइ जनमियां,कहूँ न पाया सुख ।
डाली डाली मैं फिरौं,पातौं पातौं दुख ।। ११ ।।
साई संसब होत है,बंदे थें कुछ नाहिं ।
राई थैं परवत करै,परवत राई मांहिं ॥ १२ ॥ ६०६ ॥
(३८) कुसबद को अंग
प्रणो सुहेली सेल की,पड़तां लेइ उसास ।
चोट सहारै सबद की,तास गुरू मैं दास ॥ १ ॥
(८) ख०-व्यौहार।
(१२)बारहवें दोहे के स्थान पर ख० प्रति में यह दोहा है-
रैणां दूरां बिछोहियां,रहु रे संयम झूरि ।
देवल देवलि धाहिड़ी,देसी अंगे सूर ॥१३॥
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१४६
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
कबीर-ग्रंथावली