पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१४६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
कबीर-ग्रंथावली

 एक खड़े ही लहैं,और खड़ा बिललाइ ।
 सांईं मेरा सुलषनां,सूतां देइ जगाइ ।। ४ ।।
 सात समंद की मसि करौं,लेखनि सब बनराइ ।
 धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुंण लिख्या न जाइ ॥ ५ ॥
 अबरन कौं का बरनिये,मोपैं लख्या न जाइ ।
 अपना बाना बाहिया,कहि कहि थाके माइ ॥ ६ ॥
 झल बांवैं झल दांहिनैं,झल हि मांहि ब्यौहार ।
 आगैं पीछें झलमई,राखै सिरजनहार ।। ७ ।।
 साईं मेरा बांणियां,सहजि करै ब्यपार ।
 बिन डांडी बिन पालड़ै,तोलै सब संसार ॥ ८॥
 कबीर वारया नांव परि,कीया राई लूंण ।
 जिसहि चलावै पंथ तूं,तिसहि भुलावै कौण ॥ ६ ॥
 कबीर करणों क्या करै, जे राम न करै सहाइ।
 जिहिं जिहिं डाली पग धरै, साई नवि नवि जाइ ॥ १०॥
 जदि का माइ जनमियां,कहूँ न पाया सुख ।
 डाली डाली मैं फिरौं,पातौं पातौं दुख ।। ११ ।।
 साई संसब होत है,बंदे थें कुछ नाहिं ।
 राई थैं परवत करै,परवत राई मांहिं ॥ १२ ॥ ६०६ ॥

(३८) कुसबद को अंग
 प्रणो सुहेली सेल की,पड़तां लेइ उसास ।
 चोट सहारै सबद की,तास गुरू मैं दास ॥ १ ॥
(८) ख०-व्यौहार।
(१२)बारहवें दोहे के स्थान पर ख० प्रति में यह दोहा है-
    रैणां दूरां बिछोहियां,रहु रे संयम झूरि ।
    देवल देवलि धाहिड़ी,देसी अंगे सूर ॥१३॥