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कबीर-ग्रंथावली

रचनहार कूं चीन्हि लै,खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदिर में पैसि करि,तांणि पछेवड़ा सोइ ॥ ३ ॥
राम नाम करि बोंहडा,बांही बीज अघांइ ।
अंति कालि सूका पड़ै,तौ निरफल कदे न जाइ ॥ ४ ॥
च्यंतामणि मन मैं बसै,सोई चित मैं आंणिं ।
बिन च्यंता च्यंता करै,इहै प्रभू की बांणि ॥ ५ ॥
कबीर का तूं चिंतवै,का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण-च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ ६ ॥
करम करीमां लिखि रह्या,अब कछू लिख्या न जाइ ।
मासा घटै न तिल बधै,जौ कोटिक करै उपाइ ॥ ७ ॥
जाकौ जेता निरमया,ताकी तेता होइ ।
रंती घटै न तिल बधै,जो सिर कूटै कोइ ॥ ८ ॥
च्यंता न करि अच्यंत रहु,साई है संम्रथ ।
पसु पंपेरू जीव जंत,तिनकी गांडि किसा प्रंथ ॥ ६॥
संत न बांधै गांठड़ी,पेट समाता लेइ ।
सांईं सूं सनमुष रहै,जहां मांगै तहां देइ ।। १० ॥
रांम नांम सूदिल मिली,जन हम पड़ी बिराइ ।
मोहि भरोसा इष्ट का,बंदा नरकि न जाइ ॥ ११ ॥
कबीर तूं काहे डरै.सिर परि हरि का हाथ ।
हस्ती चढि नहीं डालिये,कूकर भुसैं जु लाष ॥ १२ ॥

(८)इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
   करीम कबीर जु विह लिख्या,नरसिर भाग अभाग।
   जेहूं च्यंता चिंतवै,तऊ स आगैं आग ॥ १० ॥
(१२)ख०-सिर परि सिरजणहार । हस्ती चंढ़ि क्या डोलिए। भुसैं हजार।
(१२) इसके आगे ग्व० प्रति में यह दोहा है-