सोई आषिर सोई बैयन,जन जू जू वाचवंत ।
कोई एक मेलै लवणि,अमीं रसाइंण हुँत ।। ७ ।।
हरि मोत्यां की माल है,पोई काचै तागि ।
जतन करी झंटा घंणां,टूटैगी कहूँ लागि ।। ८ ॥
मन नहीं छाडै विषै,बिपै न छाडे मन कौं ।
इनकौं इहै सुभाव,पूरि लागी जुग जन कौं ।।
खंडित मूल बिनास,कहौ किंम विगतह कीजै ।
ज्यूं जल मैं प्रतिव्यंब,त्यूं सकल रांमहिं जांणीजै।
सो मन सो तन सो बिपै,सो त्रिभवन-पति कहूँ कस ।
कहै कबीर ब्यंदहु नरा,ज्यूं जल पूरया सकल रस ॥ ६॥ ५४६
(३४) उपदेस को अंग
हरि जी यहै विचारिया,साषो कहै कबीर ।
भौसागर मैं जीव हैं,जे कोइ पकड़ै तीर ।। १ ।।
कली काल ततकाल है,बुरा करौ जिनि कोइ ।
प्रनबाबैं लोहा दांहिणैं,बोवै सु लुणतां होइ ॥ २ ॥
कबीर संसा जीव मैं,कोइ न कहै समझाइ ।
बिधि विधि बांणी बोलता,सो कत गया बिलाइ ॥ ३ ॥
(७)इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
कबीर भूला दंग मैं,लोग कहैं यहु भूल ।
के रमइयौ बाट बताइसी,के भूलत भूलै भूल ॥ ८ ॥
(२)ख०-बुरा न करियो कोइ ।
इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
जीवन को समझै नहीं,मुवा न कहै सँदेस ।
जाको तन मन सौं परचा नहीं,ताकी कौण धरम उपदेश ॥३॥
(३)ख०-नाना वांणी बोलता।
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कबीर-ग्रंथावली