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बिचार कौ अंग

कबीर साषत को नहीं,सबै बैशनों जांणि ।
जा मुखि रांम न उचरै,ताही तन की हांणि ॥ २ ॥
कबीर औगुंण नां गहै,गुंण हो को ले बीनि ।
घट घट महु के मधुप ज्यूं,पर-आत्म ले चीन्हि ॥ ३ ॥
बसुधा बन बहु भांति है,फूल्यो फल्यौ अगाध । '
मिष्ट सुबास कबीर गहि,विषम कहै किहि साध ॥ ४ ॥ ५४०।।

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(३३) बिचार कौ अंग
रांम नांम सब को कहै,कहिबे बहुत बिचार ।
सोई रांम सती कहै,साई कौतिग-हार ॥ १ ॥
आगि कह्यां दाम नहीं,जे नही चंपै पाइ ।
जब लग भेद न जांणिये,रांम कह्या तौ कांइ ॥ २॥
कबीर सोचि बिचारिया,दूजा कोई नांहिं ।
आपा पर जब चीन्हियां,तब उलटि समाना मांहिं ॥ ३ ॥
कबीर पांणी केरा पूतला,राख्या पवन सँवारि ।
नांनां बांणी बोलिया,जोति धरी करतारि ॥ ४ ॥
नौ मण सूत अलूझिया,कबीर घर घर बारि ।
तिनि सलुझाया बापुड़े,जिनि जाणीं भगति मुरारि ।। ५॥
आधी साषी सिरि कटै,जोर बिचारी जाइ।
मनि परतीति न ऊपजै,तो राति दिवस मिलि गाइ ॥६॥

(३२-४)इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
      कबीर सब घटि आत्मां,सिरजी सिरजनहार ।
      रांम कहै सो रांम में,रमिता ब्रह्म बिचारि ॥५॥
      तत तिलक तिहुँ लोक मैं,रांम नाम निजि सार ।
      जन कबीर मसतिकि देया,सोभा अधिक अपार ॥ ६ ॥
  (६ ख०-भरि गाइ ।