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कबीर-ग्रंथावली

कबीर मन फूल्या फिरै,करता हूँ मैं ध्रंम ।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या,चेत न देखै भ्रंम ॥ २१ ॥
मोर तोर की जेवड़ी,बलि बंध्या संसार ।
कां सिकडूं,बासुत कलित,दाभण बार बार ।। २२ ॥ ३६८॥

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(१८) करणीं बिना कथणीं कौ अंग

कथणीं कथी तौं क्या भया,जे करणीं नां ठहराइ ।
कालबूत के कोट ज्यूं,देषतहीं ढहिं जाइ ॥ १ ॥
जैसी मुख तैं नीकसै,तैसी चालै चाल ।
पारब्रह्म नेड़ा रहै,पल मैं करै निहाल ।। २ ।।
जैसी मुष तैं नीकसै,तैसी चालै नाहिं ।
मानिष नहीं ते स्वान गति,बांध्या जमपुर जांहि ॥ ३ ॥
पद गांएँ मन हरषिया,साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जांणियां,गल मैं पड़िया फंध ।। ४ ।।
करता दीसै कीरतन,ऊंचा करि करि तूंड ।
जांणे बूझे कुछ नहीं,यौंही आंधां रूंड ॥ ५ ॥ ३७३ ॥

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(१८) कथणीं बिना करणों कौ अंग

मैं जांन्यूं पढ़िबौ भलौ,पढ़िबा थैं भलौ जोग ।
रांम नांम सुं प्रीति करि,भल भल नींदौं लोग ॥ १ ॥
कबीर पढ़िवा दूरि करि,पुसतक देह बहाइ ।
बांवन अषिर सोधि करि,ररै ममैं चित लाइ ॥ २ ॥
कबीर पढ़िवा दूरि करि,आथि पढ़या संसार ।
पीड़ न उपजी प्रीति सुं,तो क्यूंकरि करै पुकार ॥ ३ ॥