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चांणक को अंग

पाड़ोसी सू रूसणां,तिल तिल सुख की हांणि ।
पंडित भए सरावगी,पांणी पीवें छांणि ॥ १२ ॥
पंडित सेती कहि रह्या,भीतरि भेद्या नाहिं।
औरूं कौं परमोधतां,गया मुहरकां मांहि ॥ १३ ॥
चतुराई सूचै पढ़ी,सोई पंजर मांहि ।
फिरि प्रमोधै आंन कौं,आपण समझै नाहिं ॥ १४ ॥
रासि पराई राषतां,खाया घर का खेत ।
औरों कौं प्रमोधतां,मुख मैं पड़िया रेत ॥ १५ ॥
तारां मंडल बैसि करि,चंद बड़ाई खाइ ।
उदै भया जब सूर का,स्यूं तारां छिपि जाइ ॥ १६ ॥
देषण के सबको भले,जिसे सीत के कोट ।
रवि कै उदै न दीसहीं,बंधै न जल की पोट ।। १७ ॥
तीरथ करि करि जग मुवा,डू'धै पांणी न्हाइ ।
रांमहि रांम जपंतड़ां,काल घसीट्यां जाइ ॥ १८ ॥
कासी कांठैं घर करैं,पीवैं निर्मल नीर ।
मुकति नहीं हरि नांव बिन,यौं कहै दास कबीर ॥ १९ ॥
कबीर इस संसार कौं,समझाऊँ कै बार ।
पूंछ ज पकड़ै भेद की,उतरसा चाहै पार ।। २० ॥


(१३) ख०-कबीर व्यास कथा कहै,भीतरि भेदै नाहिं।
(१५) इसके आगे ख० में यह दोहा है--
कबीर कहै पीर कुं,तूं समझावै सब कोइ।
संसा पड़गा आपकौ,तो और कहैं का होइ ॥ २१ ॥
(१७) इसके आगे ख० में यह दोहा है--
सुणत सुणावत दिन गए,उलझि न सुलमया मान ।
कहै कबीर चेत्यौ नहीं,अजहु पहलौ दिन ॥ २४ ॥
(२०) इसके भागे ख० में यह दोहा है--
पद गायां मन हरषियां,साषी कहयां आनंद ।।
सो तत नवि न जाणियां,गल मैं पड़ि गया फंध ॥२८॥