कलि का स्वांमीं लोभिया,पीतलि धरी षटाइ। .
राज दुवारां या फिरै,ज्यूं हरिहाई गाइ ॥ ६ ॥
कलि का स्वांमीं लोभिया,मनसा धरी बधाइ ।
देंहि पईसा ब्याज कौं,लेखाँ करतां जाइ ॥ ७ ॥
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकू आदर होइ॥८॥
चारिउ बेद पढाइ करि ,हरि सूं न लाया हेत ।
बालि कबीरा ले गया,पंडित ढूंढैं खेत । ६ ॥
बांह्मण गुरू जगत का,साधू का गुरु नाहिं।
उरझि पुरझि करि मरि रह्या,चारिउ बेदां माहिं ।। १० ।।
साषित सण का जेवड़ा,भींगां सू कठठाइ ।
दोइ अषिर गुरु बाहिरा,बांध्या जमपुरि जाइ ॥११ ।।
(८) ख०-कबीर कलिजुग पाइया ।
(१) ख.--चारिवेद पंडित पढ्या,हरि से किया न हेत ।
(१०) ख०-बांम्हण गुरु जगत का भर्म कर्म का पाइ ।
उलझि पुलझि करि मरि गया,चारयों बेंदा मांहि ॥
(१०) इसके आगे ख० में ये दोहे हैं-
कलि का बाम्हण मसकरा,ताहि न दीजै दान ।
स्यौं कुटंउ नरकहि चलै,साथ चल्या जजमान ॥ ११ ॥
बाम्हण बूड़ा बापुड़ा,जेनेऊ कै जोरि ।
लख चौरासी मां गेलई,पारब्रह्म सौं तोड़ि ॥ १२ ॥
(११) इसके आगे ख० में ये दोहे हैं-
कबीर साषत की सभा,तूं जिनि बैसे जाइ ।
. एक दिबाड़ै क्यूं बड़े,रीझ गदेहड़ा गाइ ।। १४ ॥
साषत ते सूकर भला,सूचा राखे गाँब ।
बूड़ा खापत बापुड़ा,बैसि सभरणी नांव ॥ १५॥
सापत बाम्हण जिनि मिले,बैसनौ मिलौ चंडाल ।
अंक माल दै भेंटिए,मानूं मिले गोपाल ॥१६॥