चांणक कौ अंग | ३५ |
सब पासण मासा तणां,न्रिवर्तिकै को नाहिं ।
न्रिवरति के निबहै नहीं,परवर्ति परपंच माहिं ॥ २७ ॥
कबीर इस संसार का,झूठा माया मोह ।
जिहि घरि जिता बंधावयां,तिहिं घरि तिता अंदोह ॥ २८ ॥
माया हमसौं यों कह्या,तू मति दे रे पुठि ।
और हमारा हम बलू,गया कबीरा रूठि ॥ २६॥
बुगली नीर बिटालिया,सायर चढ़या कलंक ।
और पंखेरू पी गए,हंस न बोवै चौंच ॥ ३० ॥
कबीर माया जिनि मिलै,सौ बरियां दे बांह ।
नारद से मुनियर गिले,किसौ भरौसौ त्यांह ॥ ३१ ॥
माया की झल जग जल्या,कनक कांमिणीं लागि ।
कहु.धौ किहि बिधि राखिये,रुई पलेटी आगि ॥ ३२ ॥ ३४६।।
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(१७) चांणक को अंग
जीव बिलंब्या जीव सौं,अलष न लषिया जाइ ।
गोबिंद मिलै न झल बुझै,रही बुझाइ बुझाइ ॥ १ ॥
इही उदर के कारणौं,जग जाँच्यौ निस जाम ।
स्वांमी-पणौ जु सिरि चढ्यो,ससा न एको काम ॥२॥
स्वांमी हुणां सोहरा, शदोद्धा हूणां दास ।
गांडर प्राणों ऊन कू,बांधी चरै कपास ॥ ३ ।।
स्वांमी हूवा सीत का,पैका कार पचास ।
राम नाम कांठै रह्या,करै सिषाँ की पास ॥४॥
कबीर तष्टा टोकणीं,लीए फिरै सुभाइ ।
राम नाम चीन्हैं नहीं,पीतलि ही कै चाइ ॥५॥
(२६) ख.-गया कबीरा छूटि ।
(३२) ख०--रूई लपेटी भागि ।