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कबीर-ग्रंथावली

कबीर जग की को कहै,भी जलि बूडैं दास ।
पारब्रह्म पति छाड़ि करि,करैं मानि की आस ॥ १६ ।।
माया तजी तौ का भया,मानि तजी नहीं जाइ ।
मानि बड़े मुनियर गिले,मानि सबनि कौं खाइ ॥ १७ ।।
रांमहिं थोड़ा जांणि करि,दुनियां आगैं दीन ।
जीवां कौं राजा कहै,माया के आधीन ।। १८ ॥
रज बीरज की कली,तापरि स्राज्या रूप ।
रांम नांम बिन बूडिहै,कनक कांमणीं कूप ॥१६॥
माया तरवर त्रिबिध का,साखा दुख संताप ।
सीतलता सुपिनै नहीं,फल फीकौ तनि ताप ॥ २० ॥
कबीर माया डाकणीं,सब किसही कौं खाइ ।
दांत उपाडौं पापणीं,जे संतौं नेडी जाइ ॥ २१ ॥
नलनी सायर घर किया,दौं लागी बहतेणि।
जलही माहैं जलि मुई,पुरब जनम लिषेणि ॥ २२ ॥
कबीर गुण की बादली,ती तरवानीं छांहि ।
बाहरि रहे ते उबरे,भीगे मंदिर मांहिं ॥ २३ ॥
कबीर माया मोह की,भई अँधारी लोइ ।
जे सूते ते मुसि लिए,रहे बसत कूं रोइ ॥ २४ ॥
संकल ही तैं सब लहै,माया इहि संसार ।
ते क्यूं छूटैं बापुडे,बाँधे सिरजनहार ॥ २५ ॥ ।
बाड़ि चढ़ती बेलि ज्यूं,उलझी आसा फंध ।
तूटै पणि छूटै नहीं,भई ज बाचा बंध ॥ २६ ॥


(२४)इसके आगे ख० में ये दोहे है-
    माया काल की र्खाणि है,धरि त्रिगुणी वपरीति ।
    जहां जाइ वहां सुख नहीं,यह माया की रीति ॥ २५ ।।
    माया मन की मोहनी,सुर नर रहे लुभाई ।
    इनि माया जग खाइया, माया को कोई न खाइ ॥ २६