(१५) सूपिम जनम कौ अंग
कबीर सूषिम सुरति का,जीव न जाणे जाल ।
कहै कबीरा दूरि करि,प्रातम अदिष्टि काल ।। १ ।।
प्राण पंड कौं तजि चलै,मूवा कहैं सब कोइ ।
जीव छतां जांमैं मरै, सुषिम लखै न कोई ।। २ ॥ ३०४ ।
(१६) माया कौ अंग
जग हटवाड़ा स्वाद ठग,माया बेसां लाइ ।
रामचरन नीकां गही,जिनि जाइ जनम ठगाइ ॥ १ ॥
कबीर माया पापणीं,फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तो फंधै पड़या,गया कबीरा काटि ॥ २ ॥
कबीर माया पापणी,लालै लाया लोग।
पुरी किनहूँ न भोगई,इनका इहै बिजोग ।। ३ ।।
कबीर माया पापणीं,हरि सूं करै हराम ।
मुखि कड़ियाली कुमति की,कहण न देई राम ॥ ४ ॥
(१५-२) इसके आगे ये दोहे ख० में हैं-
कबीर अंतहकरन मन,करन मनोरथ मांहि ।
उपजित उतपति जांणिए,बिनसै जब बिसरांहि ॥ ३ ॥
कबीर संसा दूरि करि, जांमण मरन भरम ।
पंच तत्त तत्तहि मिलै,सुंनि समाना मन ॥ ४ ॥
(१६-१) ख०में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर जिभ्या स्वाद तें क्यूं पल में ले काम ।
अंगि अविद्या उपजै,जाइ हिरदा मैं राम ॥२॥