पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१११

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चितवणी कौ अंग

नान्हां काती चित दे, महँगे मोलि बिकाइ ।
गाहक राजा राम है, और न नेड़ा प्राइ ।। ५८ ॥
डागल उपरि दौड़णां, सुख नींदड़ी न सोइ ।
पुनै पाये द्यौहड़े, ओछी ठौर न खाइ ॥ ५६ ।।
मैं मैं बड़ी बलाइ है, सकै ती निकसी भाजि ।
कब लग राखों हे सखी, रूई पलेटी अागि ।। ६० ॥
मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल बिनाम ।
मेरी पग का पैंषड़ा, मेरी गल की पास ।। ६१ ॥
कबीर नाव जरजरी, कूड़े खेवणहार ।
हलके हलके तिरि गये, बूड़े तिनि सिर भार ।। ६२ ।। २६२॥

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(५६) ख-पुन पाया देहड़ी, वाळ गैर न खांइ ॥
(५६) ख० में इसके श्रागे यह दोहा है-
- ज्यं कोली पेतां बुणै', बुणतां श्रावै बोड़ि ।
ऐसा लेखा मीच का, कछु दौड़ि सके तो दीड़ि ॥ ७६ ।।
(६१) ख० में इसके आगे ये दोहे हैं-
मेर तेर की जिवड़ी, बसि बंच्या संसार ।
कहीं सकुंणवा सुत कलित, दाझणि बारंबार ॥ ७६ ॥
मेर तेर की रासड़ीं, बलि बंध्या संसार !
दास कबीरा जिमि बंधे, जाकै राम अधार ।। ८२ ॥
कबीर नींव जरजरी, भरी बिराणे भारि ।
खेवट सौं परच नहीं, क्यों करि उतरै पारि ।। ८३ ॥ '
(६२) ख० में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर पगड़ा दूरि है, जिनकै बिचिहै राति ।
का जार्थों का होगा, ऊगवै तै परभाति ॥ ५ ॥