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कबीर-ग्रंथावली

ऐसा अदभुत जिनि कथै,अदभुत राखि लुकाइ ।
बेद कुरानौं गमि नहीं,कह्यां न को पतियाइ ॥ ३ ।।
करता की गति अगम है,तूं चलि अपणै उनमान ।
धीरें धीरें पाव दे,पहुँचेंगें परवान ॥ ४ ॥
पहुँचेंगे तब कहैंगे,अमड़ेगे उस ठांइ ।
अजहूं बेरा समंद में,बोलि बिगूचैं कांइ ॥ ५ ॥ १७७ ॥

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(८) हैरान कौ अंग


पंडित सेती कहि रहे,कह्यां न मानै कोइ ।
ओ अगाध एका कहैं,भारी अचिरज होइ ॥ १ ॥
बसै अपंडो पंड मैं,ता गति लपै न कोइ ।
कहै कबीरा संत है।,बड़ा अचंभा मोहि ।। २ ॥ १७६ ।।

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(१०) ले कौ अंग


जिहि बन सीह न संचरै,पंघि उड़ नहीं जाइ ।
रैनि दिवस का गमि नहीं,तहां कबीर रह्या ल्यो लाइ ॥ १ ॥
सुरति ढीकुली ले जल्यो, मन नित ढोलन हार ।
कॅवल कुवाँ मैं प्रेम रस, पीवै बारबार ।। २ ।।
गंग जमुन उर अंतरै, सहज सुंनि ल्यौ घाट ।
तहां कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जोवै बाट ॥ ३ ॥ १८२ ॥

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(११) निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग



कबीर प्रीतड़ी तो तुझ सौं,बहु गुणियाले कंत ॥
जे हँसि बोलों और सौं,तों नील रँगाऊँ दंत ॥१॥


(१०.२) ख-मन चित