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बालम केलि [ ३५ ] टोकत हो मग रोकत हो सु कहा इन यातनि कान्ह अर्धेही 'आलम ऐसीयै रीति चली माई या ब्रज में कछु उलटिये हो गागरि डोरि भजे इंडुरी गहि काँकरि डारत औसरु लैहो ही उमहीं जु को सुक्ह्यो हम का कहिहैं तुम ही पछित ही [ ३८६ ] ओर सवै व्रज की जुवती तिन तो अपने हितु कै हरि लेखे 'बालम' सैन सहेटनि भेटनि है तिनहू रति मैन विसेने मैं सखी रूप की छांह सी छव कबहूँ अँखियाँ भरि कान्ह न देखे भो तन चाहि उन्हें चित सहिये कैसे माइये. लोक परखे ( ३७ ) कहा कहिये केहि सो कहिये हित सो कहिये कंछना कहि श्राधे देखत ही सब घोप घेघोवत देखत ही हरि देण्योई भावै को सुनि कै रहिये ग्रह ज्यों जमुना तंट टेरनि आनि सुनाव सो मुरली सुनि के कवि 'आलम 'दंद उदेग२ उचाट उठावै ( ३ ) , संटकारी ल. रतनारे से नैननि अहानअङ्गअन जगी दिग ठाढी तोसों हँसती हुती अथ ही उठि भीतर मौन भगी मड़हा गढ़ है किधी नंदलला जैसे मानत ही कोउ और ठगी नेकु न्यारे हु मोहि सु देखन देहु कहौ किनको नहिं कौन लगी १-लोक परखो लोकापवाद का दुःख। २-देग = उद्वेग ।