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१४४ पालम केलि D [ ३७१ किकिनि का कान' मिले यर दादुर झींगुर की झनकारहि भूपन फो मनि एक भी जुगनु यर की मनि जोति अपारहि 'आलम' कामिनि को तन फुन्दन जार मिल्यो जग बीलु उजारहि, काम के प्रासनि स्याम निसायर पैरो सहाइ मये अभिसारदि ३७२ ] चन्द्र सुधाकर धार ये जग मजित कालिमा जारि गई जोति की श्रोट सहेट भई अभिसारक के आमिलाय नई है सीस चख्यो रजनीस जबै तन को थिरु यायन' छाँही है । जोन्ह छपा दुरि प्रापन को तम सौज मनो फर लाइ लाई है [ ३७३ ] सोध सहेर भई रस के यस घासर को लुधि घेस विसारी है तुम सो नमई वितई श्रय द्यौस चल्यो सुचढ़ी कुल गारी कोलनि ते छुटि भौर चले तिन्ह को अभिसारिका छाँह निहारी दौरि,चले दुरिघे को हिये जिय जानति है यह जानि अँध्यारी १-क्यान = (सं० क्यण ) भूषणों को मंकार २-पायन - अति खोरी। ३-तमई तमी, गनि । v- ...ANVAar vvvvv. . .