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आलम कलिT 'सन' भनि न्यारे होत धर के उज्यार दिया, ..., मुधि आये साँस लेत. विप सो, पियत हौं । अन्तर मैं जरी नख सिख परजरी नहीं, । तातें अधजरी हो मैं मरी नजियत हौं ॥२५८४ जरि उठ्यो पौन गौन थोक्यो मौन पंखी भये, मानस की कौन फहै विथा जु अकथ की । 'सेखा प्यारे राम के वियोग तात प्रात ही ते, . रह्यो मौन मुख मुधि गई ज्ञान गाय की । टेकई न प्रान पल केकई पुकारे ठाढ़ी, राजा राजा करत - भुलानी पानी पथ की । दरसत; दुसह उदासी देस तज़ि गये, ' . देखी जिंन दसई दसा जु दसरथ को ॥२५॥ ऊंचे चदि देखि तुम नीचेई चलत श्रय, चले किन जाहु जु चले हो पार चाउ सो। .. साके पग परस पखान ही को पांख भयो,' पानी हो को डोंगासु उड़त लागे बाउ सो। 'यालम फहत रघुनाथ साथ ऊभे हाथ, . फेवट कहत टेरि हेरि, भय भाउ सौ । नीरे न लै प्रारहीं लू फेगे फरि जाउ अब, , मेरो सब कुटुम जियत याही नाउ सॉ ॥२६०॥ दाई सामरण। २-ॐने दाप- हाथ उठाकर ।-