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पुस्तक देखते ही मुझे तो इतना आनन्द हुआ कि मानो पन्ना की हीरे की खानि ही मिल गई हो। मैंने मेहता जी से प्रकाशन के लिये अनुरोध किया। मेहता जी ने कहना मान लिया और फल स्वरूप यह पुस्तक आपके सामने है।

इस पुस्तक में केवल आलम ही के रचे छंद नहीं हैं, वरन् 'सेख' कृत छंद भी हैं। 'आलम' और सेख का सम्बन्ध सब ही लोग जानते हैं। छंदों में ऊंची साहित्य मर्मज्ञता, सच्ची कृष्ण भक्ति, और अनूठी प्रतिभा का परिचय प्रतिछंद मिलता है। मुझे तो 'आलम' की प्रतिभा से 'सेख' की प्रतिभा कुछ ऊँची जँचती है। लोग कहते हैं कि 'आलम' जी 'सेख' के लिये मुसल्मान हो गये, पर मुझे ऐसा जँचता है कि 'आलम' की सुसंगति पाकर 'सेख' कृष्णभक्ति में रँग कर कृतार्थ हो गई।

 

कविताकाल

 

'आलम' और 'सेख' का कविताकाल साधारणतः सं॰ १७४० से सं॰ १७७० तक माना जाता है। यह हस्तलिखित प्रति जिसके अनुसार यह पुस्तक छपी है सं॰ १७५३ की लिखी हुई है। इससे यह स्पष्ट है कि इसमें वे ही छंद संग्रहीत हैं जो उस समय तक बन चुके थे। यही कारण है कि इसमें 'आलम' और सेख के कुछ अधिक प्रख्यात कवित्त (जो इस संग्रह के बाद रचे गये होंगे) नहीं मिलते। उदाहरणवत आलम के ये मशहूर छंद इसमें नहीं हैं। हमारे ग्राम के निवासी और हमारे परम हितैषी मित्र बा॰ पुत्तूलाल जी सोनार इन छन्दों को पढ़ते पढ़ते आँसू बहाने लगते थे:—