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आँँधी

डोंगी खेने लगा। किनारे पर पहुँच कर देखता हूँ,कि दुलारे खड़ा है।मैंने पूछा-क्या रे।तू कब से यहा है?

उसने कहा आपको आने में देर हुई इसलिए मैं आया हूँ। रसोई ठंढी हो रही हैं।

मैं डागी से उतर पड़ा और बँगले की ओर चला।मेरे मन मे न जाने क्या सदेह हो रहा था कि दुलारे जान बूझकर परखने आया था।लैला से बातचीत करते हुए उसने मुझे अवश्य देखा है।तो क्या वह मुझ पर कुछ सदेह करता है ?मेरा मन दुलारे को सदेह करने का वअवसर देकर जैसे कुछ प्रसन्न ही हुआ।बंगले पर पहुँच कर मैं भोजन करने बैठ गया।स्वभाव के अनुसार शरीर तो अपना नियमित सब काम करता ही रहा कि तु सो जाने पर भी मैं यही सपना देखता रहा। ×××{{gap}

आज बहुत विलम्ब से सोकर उठा।आलस से कहीं घूमने फिरने की इच्छा न थी। मैंने अपनी कोठरी में ही आसन जमाया।मेरी आँखो मे वह रात्रि का दृश्य अभी भी घूम रहा था। मैंने लाख चेष्टा की कितु लैला और वह सिंहाली मिक्ष दोनों ही ने मेरे हृदय को अखाड़ा बना लिया था। मैंने विरक हो कर विचार परम्परा को तोड़ने क लिए बासुरीबजाना प्रारम्भ किया।आसावरी के गम्भीर विलम्बित आलापा मे फिर भी लैला की प्रेम-पूर्ण आकृति जैसे बनने लगती।मैंने बासुरी बजाना बंद किया और ठीक विश्रामकाल में ही मैंने देखा कि प्रज्ञासारथि सामने खड़े हैं।मैंने उहें बैठाते हुए पूछा-आज आप इधर कैसे भूल पड़े।

यह प्रश्न मेरी विचार विशृखलता के कारण हुआ था क्योंकि वे तो प्राय मेरे यहाँ आया ही करते थे।उने हँस कर कहा-मेरा आना भूल कर नहीं किंतु कारण से हुआ है।कहिए आपने उस विषय मे कुछ स्थिर किया?