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आँँधी

तब तो अच्छी बात है आप इस कृत्रिम विरक्ति से ऊब चले हैंतो कुछ काम करने लगिए।मैं भी घर जाना चाहता हूँ।न हो तो पाठशाला ही चलाइए।कहते हुए प्रशासारथि ने मेरी ओर गंभीरता से देखा।

मेरे मन में हलचल हुई।मैं एक बकवादी मनुष्य|किसी विषय पर गम्भीरता का अभिनय करके थोड़ी देर तक सफल वाद विवाद चलादेना और फिर विश्वास करना इतना ही तो मेरा ही अभ्यास था।काम करना किसी दायित्व को सिर पर लेना असम्भव।मैं चुप रहा।वह मेरा मुँह देख रहे थे।मैं चतुरता से निकल जाना चाहता था।यदि मैं थोड़ी देर और भी उसी तरह सन्नाटा रखता तो मुझे हां या नहीं कहना ही पड़ता।मैंने विवाद वाला चुटकुला छेड़ ही तो दिया।

आप तो विरक्त भिक्षु हैं।अब घर जाने की आवश्यकता कैसे आ पड़ी।

भिक्षु!-आश्चर्य से प्रज्ञासारथि ने कहा- मैं तो ब्रह्मचर्य में हूँ। विद्याभ्यास और धर्म का अनुशीलन कर रहा हूँ।यदि मैं चाहूँ तो प्रनया ले सकता हूँ,नहीं तो गृही बनने में कोई धार्मिक आपत्ति नहीं।सिंहल में तो यही प्रथा प्रचलित है। मेरे विचार से यही प्राचीनआर्य प्रथा भी थी!मैं गार्हस्थ्य जीवन से परिचित होना चाहता हूँ।

तो आप ब्याह करेंगे?

क्यों नहीं वही करने तो जा रहा हूँ।

देखता हूँ स्त्रियों पर आपको पूर्ण विश्वास है ।

अविश्वास करने का कारण ही क्या है?इतिहास में आख्यायिकाओं में कुछ स्त्रियों और पुरुषों का दुष्ट चरित्र पढ़कर मुझे अपने और अपनी भावी सहधर्मिमणी पर अविश्वास कर लेने का कोई अधिकार नहीं?प्रत्येक व्यक्ति को अपनी परीक्षा देनी चाहिए।

विवाहित जीवन!सुखदायक होगा-मैंने पूछा।