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आँँधी
११
 

-मैंने समझ लिया कि युवक का नाम गुल है। मैंने कहा-हाँ वह तुम्हारी चारयारी खरीदने आयेगा।गुल ने लैला की ओर प्रसन दृष्टि से देखा।

पर तु मैं जैसे भयभीत हो गया।अपने अपर सन्देह होने लगा।लैला सुन्दरी थी पर उसके भीतर भयानक राक्षस की आकृति थी या देवमूर्ति!यह बिना जाने मैंने क्या कह दिया। इसका परिणाम भीषणभी हो सकता है।मैं सोचने लगा। रामश्वर को मित्र तो मानता नहीं कितु मुझे उस से शत्रुता करने का क्या अधिकार है।

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चदा क दक्षिणी तट पर ठीक मेरे बगले के सामने एक पाठशाला थी।उसम एक सिंहाली सज्जन रहते थे।न जाने कहा-कहा से उनको चदा मिलता था।वे पास पड़ोस के लड़कों को बुलाकर पढाने के लिए बिठाते थे।दो मास्टरों का वेतन देते थे।उनका विश्वास था कि चदा का तट किसी दिन तथागत के पवित्र चरण चिह्नों से अंकित हुआ था। वे आज भी उन्हे खोजते थे।बड़े शान्त प्रकृति के जीव थे।उनका श्यामल शरीर कुंचित केश तीक्ष्ण हरि सिंहली विशेषता से पूर्ण विनय मधुर वाणी और कुछ कुछ मोटे अबरों में चौबीसों घंटे बसनेवाली हँसीआकर्षण से भरी थी।मैं भी कभी-कभी जब जीम में खुजलाहट होती वहा पहुच जाता।आज की वह घना मरे गम्भीर विचार का विषयबन कर मुझे यस्त कर रही थी। मैं अपनी डोंगी पर बैठ गया।दिन अभी घंटे ठेढ घंटे बाकी था।उस पार खेकर डोंगी ले जाते बहुत देर नहीं हुई।मैं पाठशाला और ताल क बीच के उद्यान को देख रहा था।खजूर और नारियल के ऊचे ऊचे वृक्षों की जिसमे निराली छटा थी।एक नया पीपल अपने चिकने पत्तों की हरियाली मे झूम रहा था। उसके नीचे शिला पर प्रशासारथि बैठे थे।नाव को अटका कर मैं उनके समीप पहुँचा।अस्त होनेवाले सूयबिम्ब की रँगीली किरण उनके प्रशांत मुख