हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल/गद्य खंड/प्रकरण ३ गद्य-साहित्य का प्रसार

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प्रकरण ३
गद्य-साहित्य का प्रसार
द्वितीय स्थान
१९५०––१९५५
सामान्य परिचय

इस उत्थान का आरंभ हम संवत् १९५० से मान सकते हैं। इसमें हम कुछ ऐसी चिंताओं और आकांक्षाओं का आभास पाते हैं, जिनका समय भारतेंदु के सामने नहीं आया था। भारतेंदु-मंडल मनोरंजक साहित्य-निर्माण द्वारा हिंदी-गद्य-साहित्य की स्वतंत्र सत्ता का भाव ही प्रतिष्ठित करने में अधिकतर लगा रहा। अब यह भाव पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था। और शिक्षित समाज को अपने इस नए गद्य-साहित्य का बहुत कुछ परिचय भी हो गया था। प्रथम उत्थान के भीतर बहुत बड़ी शिकायत यह रहा करती थी कि अँगरेजी की ऊँची शिक्षा पाए हुए बड़े बड़े डिग्रीधारी लोग हिंदी-साहित्य के नूतन निर्माण में योग नहीं देते और अपनी मातृभाषा से उदासीन रहते हैं। द्वितीय उत्थान में यह शिकायत बहुत कुछ कम हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त लोग धीरे धीरे आने लगे––पर अधिकतर यह कहते हुए कि "मुझे तो हिंदी आती नहीं"। इधर से जवाब मिलता था "तो क्या हुआ? आ न जायगी। कुछ काम तो शुरू कीजिए।" अतः बहुत से लोगों ने हिंदी आने के पहले ही काम शुरू कर दिया। उनकी भाषा में जो दोष रहते थे, वे उनकी खातिर से दर गुजर कर दिए जाते थे। जब वे कुछ काम कर चुकते थे––दो चार चीजें लिख चुकते थे––तब तो पूरे लेखक हो जाते थे। फिर उन्हें हिंदी आने न आने की परवा क्यों होने लगी?

इस काल-खंड के बीच हिंदी लेखकों की तारीफ में प्रायः यही कहा-सुना जाता रहा कि ये संस्कृत बहुत अच्छी जानते हैं, वे अरबी-फारसी के पूरे विद्वान् हैं, ये अँगरेजी के अच्छे पंडित् हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी कि ये हिंदी बहुत अच्छी जानते हैं। यह मालूम ही नहीं होता था कि [ ४९१ ] हिंदी भी कोई जानने की चीज है। परिणाम यह हुआ कि बहुत से हिंदी के प्रौढ़ और अच्छे लेखक भी अपने लेखों में फारसीदानी, अँगरेजीदानी, संस्कृतदानी, आदि का कुछ प्रमाण देना जरूरी समझने लगे थे।

भाषा बिगड़ने का एक और सामान दूसरी ओर खड़ा हो गया था। हिंदी के पाठको का अब वैसा अकाल नहीं था––विशेषतः उपन्यास पढ़नेवालों का। बँगला उपन्यासों के अनुवाद धड़ाधड़ निकलने लगे थे। बहुत से लोग हिंदी लिखना सीखने के लिये केवल संस्कृत शब्दों की जानकारी ही आवश्यक समझते थे जो बँगला की पुस्तकों से प्राप्त हो जाती थी। यह जानकारी थोड़ी बहुत होते ही वे बँगला से अनुवाद भी कर लेते थे और हिंदी के लेख भी लिखने लगते थे। अतः एक ओर तो अँगरेजीदानों की ओर से "स्वार्थ लेना", "जीवन होड़", "कवि का संदेश", "दृष्टिकोण" आदि आने लगे; दूसरी ओर बंगभाषाश्रित लोगो की ओर से 'सिहरना', 'काँदना', 'बसंत रोग' आदि। इतना अवश्य था कि पिछले कैंड़े के लोगों की लिखावट उतनी अजनबी नहीं लगती थी जितनी पहले कैंड़ेवालों की। बंगभाषा फिर भी अपने देश की और हिंदी से मिलती जुलती भाषा थी। उसके अभ्यास से प्रसंग या स्थल के अनुरूप बहुत ही सुंदर और उपयुक्त संस्कृत शब्द मिलते थे। अतः बंगभाषा की ओर जो झुकाव रहा उसके प्रभाव से बहुत ही परिमार्जित और सुंदर संस्कृत पदविन्यास की परंपरा हिंदी में आई, यह स्वीकार करना पड़ता है।

पर "अँगरेजी में विचार करनेवाले" जब आपटे का अँगरेजी-संस्कृत कोश लेकर अपने विचारो का शाब्दिक अनुवाद करने बैठते थे तब तो हिंदी बेचारी कोसों दूर जा खड़ी होती थी। वे हिंदी और संस्कृत के शब्द भर लिखते थे, हिंदी भाषा नहीं लिखते थे। उनके बहुत से वाक्यों का तात्पर्य अंग्रेजी भाषा की भावभंगी से परिचित लोग ही समझ सकते थे, केवल हिंदी या संस्कृत जानने वाले नहीं।

यह पहले कहा जा चुका है कि भारतेंदुजी और उनके सहयोगी लेखको की दृष्टि व्याकरण के नियमों पर अच्छी तरह जमी नहीं थी। वे "इच्छा किया", "आशा किया" ऐसे प्रयोग भी कर जाते थे और वाक्यविन्यास की सफाई पर भी उतना ध्यान नहीं रखते थे। पर उनकी भाषा हिंदी ही होती थी, [ ४९२ ]मुहावरे के खिलाफ प्रायः नहीं जाती थी। पर द्वितीय उत्थान के भीतर बहुत दिनों तक व्याकरण की शिथिलता और भाषा की रूपहानि दोनों साथ-साथ दिखाई पड़ती रही। व्याकरण के व्यतिक्रम और भाषा की अस्थिरता पर तो थोड़े ही दिनों में कोपदृष्टि पड़ी, पर भाषा की रूपहानि की ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया। पर जो कुछ हुआ वही बहुत हुआ और उसके लिये हमारा हिंदी-साहित्य पंडित् महावीर प्रसाद द्विवेदी का सदा ऋणी रहेगा। व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदीजी ही थे। 'सरस्वती' के संपादक के रूप में उन्होंने आई हुई पुस्तकों के भीतर व्याकरण और भाषा की अशुद्धियाँ दिखा दिखाकर लेखकों को बहुत कुछ सावधान कर दिया। यद्यपि कुछ हठी और अनाड़ी लेखक अपनी भूलों और गलतियों का समर्थन तरह तरह की बातें बनाकर करते रहे, पर अधिकतर लेखकों ने लाभ उठाया और लिखते समय व्याकरण आदि का पूरा ध्यान रखने लगे। गद्य की भाषा पर द्विवेदीजी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण जब तक भाषा के लिये शुद्धता आवश्यक समझी जायगी तब तक बना रहेगा।

व्याकरण की ओर इस प्रकार ध्यान जाने पर कुछ दिनों व्यकिरण-संबधिनी बातों की चर्चा भी पत्रों में अच्छी चली। विभक्तियाँ शब्दो से मिलाकर लिखी जानी चाहिएँ या अलग, इसी प्रश्न को लेकर कुछ काल तक खंडन-मंडल के लेख जोर-शोर से निकले। इस अदालत के नायक हुए थे––पंडित गोविंद नारायण जी मिश्र, जिन्होंने "विभक्ति-विचार" नाम की एक छोटी सी पुस्तक द्वारा हिंद की विभक्तियों को शुद्ध विभक्तियाँ बताकर लोगों को उन्हें मिलाकर लिखने की सलाह दी थी।

इस द्वितीय उत्थान में जैसे अधिक प्रकार के विषय लेखकों की विस्तृत दृष्टि के भीतर आए वैसे ही शैली की अनेकरूपता का अधिक विकास भी हुआ। ऐसे लेखकों की संख्या कुछ बढ़ी जिनकी शैली में कुछ उनकी निज की विशिष्टता रहती थीं, जिनकी लिखावट को परखकर लोग कह सकते थे कि यह उन्हीं की है। साथ ही वाक्य-विन्यास में अधिक सफाई और व्यवस्था आई। विराम-चिह्नो का आवश्यक प्रयोग होने लगा। अँगरेजी आदि अन्य समुन्नत भाषाओं की उच्च विचारधारा से परिचय और अपनी भाषा पर भी यथेष्ट [ ४९३ ]अधिकार रखनेवाले कुछ लेखकों की कृपा से हिंदी की अर्थोद्घाटीनी शक्ति की अच्छी वृद्वि और अभिव्यंजन-प्रणाली का भी अच्छा प्रसार हुआ। सधन और गुफित विचारसूत्रो को व्यक्त करनेवाली तथा सूक्ष्म और गूढ़ भावों को झलकानेवाली भाषा हिंदी-साहित्य को कुछ कुछ प्राप्त होने लगी। उसी के अनुरूप हमारे साहित्य का डौल भी बहुत कुछ ऊँचा हुआ। बँगला के उत्कृष्ट सामाजिक, पारिवारिक और ऐतिहासिक उपन्यासों के लगातार आते रहने से रुचि परिष्कृत होती रही, जिससे कुछ दिनों की तिलस्म, ऐयारी और जासूसी के उपरांत उच्च कोटि के सच्चे साहित्यिक उपन्यासों की मौलिक रचना का दिन भी ईश्वर ने दिखाया।

नाटक के क्षेत्र में वैसी उन्नति नहीं दिखाई पड़ी। बाबू राधाकृष्णदास के "महाराणा प्रताप" (या राजस्थान केसरी) की कुछ दिन धूम रही और उसका अभिनय भी बहुत बार हुआ। राय देवीप्रसादजी पूर्ण ने "चंद्रकलाभानुकुमार" नामक एक बहुत बड़े डीलडौल का नाटक लिखा पर वह साहित्य के विविध अंगों से पूर्ण होने पर भी वस्तु-वैचित्य के अभाव तथा भाषणों की कृत्रिमता आदि के कारण उतना प्रसिद्ध न हो सका। बँगला के नाटकों के कुछ अनुवाद बाबू रामकृष्ण वर्मा के बाद भी होते रहे पर उतनी अधिकता में नहीं जितनी अधिकता से उपन्यासों के। इससे नाटक की गति बहुत मंद रही। हिंदी-प्रेमियों के उत्साह से स्थापित प्रयाग और काशी की नाटक-मंडलीयों (जैसे, भारतेंदु नाटक-मंडली) के लिये रंगशाला के अनुकूल दो एक छोटे मोटे नाटक अवश्य लिखे गए पर वे साहित्यिक प्रसिद्धि न पा सके। प्रयाग में पंडित माधव शुक्लजी और काशी में पंडित दुगवेकरजी अपनी रचनाओं और अनूठे अभिनयों द्वारा बहुत दिनों तक दृश्य काव्य की रुचि जगाए रहे। इसके उपरांत बँगला में श्री द्विजेंद्रलाल राय के नाटको की धूम हुई और उनके अनुवाद हिंदी में धड़ाधड़ हुए। इसी प्रकार रवींद्र बाबू के कुछ नाटक भी हिंदी रूप में लाए गए। द्वितीय उत्थान के अंत में दृश्य-काव्य की अवस्था यही रही।

निबधों की शोर यद्यपि बहुत कम ध्यान दिया गया और उसकी परंपरा ऐसी न चली कि हम ५–७ उच्च कोटि के निबंध-लेखकों को उसी प्रकार झट [ ४९४ ]से छाँटकर बता सकें जिस प्रकार अँगरेजी साहित्य में बता दिए जाते हैं, फिर भी बीच बीच में अच्छे और उच्च कोटि के निबंध मासिक-पत्रिकाओं में दिखाई पड़ते रहे। इस द्वितीय उत्थान से साहित्य के एक एक अंग को लेकर जैसी विशिष्टता लेखकों में आ जानी चाहिए थी वैसी विशिष्टता न आ पाई। किसी विषय में अपनी सबसे अधिक शक्ति देख उसे अपनाकर बैठने की प्रवृत्ति बहुत कम दिखाई दी। बहुत से लेखकों का यह हाल रहा कि कभी अखबार-नवीसी करते, कभी उपन्यास लिखते, कभी नाटक में दखल देते, कभी कविता की आलोचना करने लगते और कभी इतिहास और पुरातत्व की बातें लेकर सामने आते। ऐसी अवस्था में भाषा की पूर्ण शक्ति प्रदर्शित करनेवाले गूढ़, गंभीर निबंध-लेखक कहाँ से तैयार होते? फिर भी भिन्न भिन्न शैलियाँ प्रदर्शित करनेवाले कई अच्छे लेखक इस बीच में बताए जा सकते है, जिन्होंने लिखा तो कम है पर जो कुछ लिखा है वह महत्व का है।

सुमालोचना का प्रारंभ यद्यपि भारतेंदु के जीवनकाल में ही कुछ न कुछ हो गया था पर उसका कुछ अधिक वैभव इस द्वितीय उत्थान में ही दिखाई पड़ा। श्रीयुत पंडित् महावीरप्रसादजी द्विवेदी ने पहले पहल विस्तृत आलोचना रास्ता निकाला। फिर मिश्रबंधुओं और पंडित् पद्मसिंह शर्मा ने अपने ढंग पर कुछ पुराने कवियों के बंध में विचार प्रकट किए। पर यह सब आलोचना अधिकतर बहिरंग बातों तक ही रही। भाषा के गुण, दोष, रस, अलंकार आदि की समीचीनता, इन्हीं सब परंपरागत विषयों तक पहुँची। स्थायी साहित्य में परिगणित होनेवाली समालोचना जिसमें किसी कवि की अंतर्वृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छंद होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखाई जाती है, बहुत ही कम दिखाई पड़ी।

साहित्यिक मूल्य रखनेवाले चार जीवनचरित महत्व के निकले––पंडित माधवद्रसाद मिश्र की "विशुद्ध चरितावली" (स्वामी विशुद्धानंद का जीवनचरित) तथा बाबू शिवनंदन सहाय लिखित "बाबू हरिश्चंद्र का जीवनचरित", "गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवनचरित" श्रीर चैतन्य महाप्रभु का जीवनचरित।


[ ४९५ ]द्वितीय उत्थान के भीतर गद्य-साहित्य का निर्माण इतने परिमाण में और इतने रूपों में हो गया कि हम उसका निरूपण कुछ विभाग करके कर सकते हैं। सुभीते के लिये हम चार विभाग करते हैं––नाटक, उपन्यास-कहानियाँ, निबंध और समालोचना।


नाटक

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भारतेंदु के पीछे नाटकों की ओर प्रवृत्ति बहुत कम हो गई। नाम लेने योग्य अच्छे मौलिक नाटक बहुत दिनों तक दिखाई न पड़े। अनुवादों की परंपरा अलबत चलती रही।

बंगभाषा के अनुवाद––बा॰ रामकृष्ण वर्मा द्वारा वीरनारी, कृष्णकुमारी और पद्मावती नाटकों के अनुवाद का उल्लेख पहले हो चुका है। सं॰ १९५० के पीछे गहमर (जि॰ गाजीपुर) के बाबू गोपालराम ने 'वनवीर', 'वभ्रुवाहन', 'देशदशा','विद्याविनोद' और रवींद्र बाबू के 'चित्रांगदा' का अनुवाद किया।

द्वितीय उत्थान के अंतिम भाग में पं॰ रूपनारायण पांडे ने गिरीश बाबू के 'पतिव्रता', क्षीरोदप्रसाद विद्या-विनोद के 'खानजहाँ', रवींद्र बाबू के 'अचलायतन' तथा द्विजेंद्रलाल राय के 'उस पार', 'शाहजहाँ', 'दुर्गादास’, 'ताराबाई' आदि कई नाटकों के अनुवाद प्रस्तुत किए। अनुवाद की भाषा अच्छी खासी हिंदी है और मूल के भावों को ठीक ठीक व्यक्त करती है। इन नाटकों के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि इनमें बंगवासियों की आवेशशील प्रकृति का आरोप अनेक पात्रों में पाया जाता है जिससे बहुत से इतिहास-प्रसिद्ध व्यक्तियों के क्षोभपूर्ण लंबे भाषण उनके अनुरूप नहीं जान पड़ते। प्राचीन ऐतिहासिक वृत्त लेकर लिखे हुए नाटकों में उस काल की संस्कृति और परिस्थिति का सम्यक् अध्ययन नहीं प्रकट होता।

अँगरेजी के अनुवाद––जयपुर के पुरोहित गोपीनाथ एम॰ ए॰ ने १९५० के कुछ आगे पीछे शेक्सपियर के इन तीन नाटकों के अनुवाद किए–– [ ४९६ ]रोमियो जुलियट ('प्रेमलीला' के नाम से), ऐज यू लाइक इट और वेनिस का बैपारी। उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी के छोटे भाई पं॰ श्यामाप्रसाद चौधरी ने सं॰ १९५० में 'मैकबेथ' का बहुत अच्छा अनुवाद गानेंद्र नाटक नाम में प्रकाशित किया। इसके उपरांत सं॰ १९७९ में 'हेम्लेट' का एक अनुवाद 'जयंत' के नाम से निकला जो वास्तव में मराठी अनुवाद का हिंदी अनुवाद था।

संस्कृत के अनुवाद––संस्कृत के नाटकों के अनुवाद के लिए राय बहादुर लाला सीताराम बी॰ ए॰ सदा आदर के साथ व्यक्त किए गए थे। भारतेंदु के मृत्यु के दो वर्ष पहले ही उन्होंने संस्कृत काव्यों के अनुवाद से लुग्गा लगाया और सं॰ १९४० में मेघदूत का अनुवाद घनक्षरी छवी से प्रकाशित किया। इसके उपरांत वे बराबर किसी ना किसी काव्य, नाटक, का अनुवाद करते रहे। सं॰ १९४४ में उनका 'नागानंद' का अनुदान निकला। फिर तो धीरे-धीरे उन्होंने नृच्छकटिक, महावीर-चरित, उत्तर समरचित, मालती माधव मालविकाग्निमित्र का भी अनुवाद कर डाला। यदपि पद्यभाग के अनुवाद में लाला साहब को वैसी सफलता नहीं हुई पर उनकी हिंदी बहुत सीधी साधी सरल और आडंबर शून्य है। संस्कृत का भाव उनमें इस ढंग से लाया गया है कि कही संस्कृतपन या जटिलता नहीं आने पाई है।

भारतेंदु के समय में वे काशी के क्वींस-कालेज-स्कूल के सेकेंड मास्टर थे। पीछे डिप्टी कलेक्टर हुऐ और अंत में शान्तिपूर्वक प्रयाग में आ रहे जहाँ २ जनवरी १९३७ को उनका साकेवास हुआ।

संस्कृत के अनेक पुराण ग्रंथों के अनुवादक, रामचरितमानस, बिहारी सतसई के टीकाकार, सनातन धर्म के प्रसिद्ध व्याख्याता मुरादाबाद के पं॰ ज्वालाप्रसाद मिश्र ने 'वेणी-संहार' और 'अभिज्ञान शाकुन्तल' के हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किए। संस्कृत की 'रत्नावली नाटिका' हरिश्चंद्र को बहुत पसंद थे। और उसके कुछ अंश का अनुवाद भी उन्होंने किया था, पर पूरा न कर सके थे। भारत-मित्र के प्रसिद्ध संपादक, हिंदी में बहुत ही सिद्धहस्त लेखक बा॰ बालमुकुंद गुप्त ने उक्त नाटिका का पूरा अनुवाद अत्यंत सफलतापूर्वक किया। [ ४९७ ]संवत् १९७० में पंडित सत्यनारायण कविरत्न ने भवभूति के 'उत्तर राम-चरित' का और पीछे 'मालतीमाधव' का अनुवाद किया। कविरत्न के ये दोनों अनुवाद बहुत ही सरस हुए जिनमें मूल भावों की रक्षा का भी पूरा ध्यान रखा गया है। पद्य अधिकतर ब्रजभाषा के सवैयो में है जो पढ़ने में बहुत मधुर हैं। इन पद्यों में खटकनेवाली केवल दो बाते, कहीं कहीं मिलती है। पहली बात तो यह है कि ब्रजभाषा-साहित्य में स्वीकृत शब्दों के अतिरिक्त वे कुछ स्थलों पर ऐसे शब्द लाए है जो एक भूभाग तक ही (चाहे वह ब्रजमंडल के अतर्गत ही क्यों न हो) परिमित हैं। शिष्ट साहित्य में ब्रजमंडल के भीतर बोले जानेवाले सब शब्द नहीं ग्रहण किए गए हैं। ब्रजभाषा देश की सामान्य काव्यभाषा रही है। अतः काव्यो में उसके वे ही शब्द लिए गए हैं जो बहुत दूर तक बोले जाते हैं, और थोड़े बहुत सब स्थानों में समझ लिए जाते है। उदाहरण के लिये 'सिदौसी' शब्द लीजिए जो खास मथुरा-वृंदावन में बोला जाता है, पर साहित्य में नहीं मिलता। दूसरी बात यह कि, कहीं कहीं श्लोको का पूरा भाव लाने के प्रयत्न में भाषा दुरूह और अव्यवस्थित हो गई है।

मौलिक-नाटक––काशी निवासी पंडित् किशोरीलाल गोस्वामी ने प्रथम उत्थान के अंत में दो नाटक लिखे थे––'चौपट-चपेट' और 'मयक मंजरी'। इनमें से प्रथम तो एक प्रहसन था जिसमे चरित्रहीन और छलकपट से भरी स्त्रियों तथा लुच्चो-लफगों आदि के बीभत्स और अश्लील चित्र अंकित किए गए थे। दूसरा पाँच अंकों का नाटक था जो शृंगार रस की दृष्टि से सं॰ १९४८ में लिखा गया था। यह भी साहित्य में कोई विशेष स्थान न प्राप्त कर सका और लोक-विस्मृत हो गया। हिंदी के विख्यात कवि पं॰ अयोध्यासिंह उपाध्याय की प्रवृत्ति इस द्वित्तीय उत्थान के आरंभ में नाटक लिखने की ओर भी हुई थी और उन्होंने 'रुक्मिणी-परिणाय' और 'प्रद्युम्न-विजय व्यायोग' नाम के दो नाटक लिखे थे। ये दोनो नाटक उपाध्याय जी ने हाथ आजमाने के लिये लिखे थे। आगे उन्होंने इस ओर कोई प्रयत्न नहीं किया।

पंडित् ज्वालाप्रसाद मिश्र ने संस्कृत नाटकों के अनुवाद के अतिरिक्त 'सीता-वनवास' नाम का एक नाटक भी लिखा था जिसमे भवभूति के 'उत्तर रामचरित' की कुछ झलक थी। उनके भाई पंडित् बलदेवप्रसाद मिश्र ने [ ४९९ ] यह आगे प्रकट किया जायगा। पहले अनुवादों की बात खतम कर देनी चाहिए।

अनुवाद––सं॰ १९५१ तक बा॰ रामकृष्ण वर्मा उर्दू और अँगरेजी से भी कुछ अनुवाद कर चुके थे––'ठगवृत्तांतमाला' (सं॰ १९४६), 'पुलिस वृत्तांतमाला' (१९४७), 'अकबर' (१९४८), 'अमला वृत्तांतमाला' (१९५१)। 'चितौर चातकी' का बंगभाषा से अनुवाद उन्होंने सं॰ १९५२ में किया। यह पुस्तक चित्तौर के राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध समझी गई और इसके विरोध में यहाँ तक आंदोलन हुआ कि सब कापियाँ गंगा में फेंक दी गईं। फिर बाबू कार्त्तिकप्रसाद खत्री ने 'इला' (१९५२) और 'प्रमीला' (१९५३) का अनुवाद किया। 'जया' और 'मधुमालती' के अनुवाद दो एक बरस पीछे निकले।

भारतेंदु-प्रवर्त्तित प्रथम उत्थान के अनुवादकों में भारतेंदुकाल की हिंदी की विशेषता बनी रही। उपर्युक्त तीनों लेखकों की भाषा बहुत ही साधु और संयत रही। यद्यपि उसमें चटपटापन न था पर हिंदीपन पूरा पूरा था। फारसी-अरबी के शब्द बहुत ही कम दिखाई देते हैं, साथ ही संस्कृत के शब्द भी ऐसे ही आए है जो हिंदी के परंपरागत रूप में किसी प्रकार का असामंजस्य नहीं उत्पन्न करते। सारांश यह कि उन्होने 'शूरता', 'चपलता', 'लघुता', 'मूर्खता', 'सहायता', 'दीर्घता', 'मृदुता' ऐसी संस्कृत का सहारा लिया है; 'शौर्य्य', 'चापल्य', 'लाघव', 'मौर्य्य', 'साहाय्य', 'दैर्घ्य' और 'मार्दव' ऐसी संस्कृत का नहीं।

द्वितीय उत्थान के आरभ में हमें बाबू गोपालराम (गहमर) बंगभाषा के गार्हस्थ्य उपन्यासों के अनुवाद में तत्पर मिलते हैं। उनके कुछ उपन्यास तो इस उत्थान (सं॰ १९५७) के पूर्व लिखे गए––जैसे 'चतुर चंचला' (१९५०), 'भानमती' (१९५१), 'नये बाबू' (१९५१)––और बहुत से इसके आरंभ में, जैसे 'बड़ा भाई' (१९५७), 'देवरानी जेठानी' (१९५८) 'दो बहिन' (१९५९), 'तीन पतोहू' (१९६१) और 'सास पतोहू'। भाषा उनकी चटपटी और वक्रतापूर्ण है। ये गुण लाने के लिये कहीं कहीं उन्होंने [ ५०० ] पूरबी शब्दों और मुहावरों का भी बेधड़क प्रयोग किया है। उनके लिखने का ढंग बहुत ही मनोरंजक है। इसी काल के आरंभ में गाजीपुर के मुंशी उदितनारायण लाल के भी कुछ अनुवाद निकले जिनमें मुख्य 'दीपनिर्वाण' नामक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें पृथ्वीराज के समय का चित्र है।

इस उत्थान के भीतर, बंकिमचंद्र, रमेशचंद्र दत्त, हाराणचंद्र रक्षित, चंडीचरण सेन, शरत् बाबू, चारुचंद्र इत्यादि बंगभाषा के प्रायः सब प्रसिद्ध प्रसिद्ध उपन्यासकारों की बहुत सी पुस्तकों के अनुवाद तो हो ही गए, रवींद्र बाबू के भी 'आँख की किरकिरि' आदि कई उपन्यास हिंदी रूप में दिखाई पड़े। जिनके प्रभाव से इस उत्थान के अंत में आविर्भूत होनेवाले हिंदी के मौलिक उपन्यासकारों का आदर्श बहुत कुछ ऊँचा हुआ। इस अनुवाद-विधान में योग देनेवालों में पडित ईश्वरीप्रसाद शर्मा और पंडित रूपनारायण पांडेय विशेष उल्लेख योग हैं। बंगभाषा के अतिरिक्त उर्दू, मराठी और गुजराती के भी कुछ उपन्यासों के अनुवाद हिंदी में हुए पर बँगला की अपेक्षा बहुत कम। काशी के बा॰ गंगाप्रसाद गुप्त ने 'पूना में हलचल' आदि कई उपन्यास उर्दू से अनुवाद करके निकाले। मराठी से अनूदित उपन्यासों में बा॰ रामचंद्र वर्मा का 'छत्रसाल’ बहुत ही उत्कृष्ट है।

अँगरेजी के दो ही चार उपन्यासों के अनुवाद देखने में आए-जैसे, रेनल्ड्स कृत 'लैला' और 'लंडन-रहस्य'। अँगरेजी के प्रसिद्ध उपन्यास 'टाम काका की कुटिया' का भी अनुवाद हुआ।

अनुवादों की चर्चा समाप्त कर अब हम मौलिक उपन्यासों को लेते हैं।

पहले मौलिक उपन्यास लेखक, जिनके उपन्यासों को सर्वसाधारण में धूम हुई, काश के बाबू देवकीनंदन खत्री थे। द्वितीय उत्थान-काल के पहले ही ये नरेंद्रमोहिनी, कुसुमकुमारी, वीरेंद्रवीर आदि कई उपन्यास लिख चुके थे। उक्त काल के आरंभ में तो 'चद्रकांता संतति' नामक इनके-ऐयारी के उपन्यासों की चर्चा चारों ओर इतनी फैली कि जो लोग हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते थे वे भी इन नामों से परिचित हो गए। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि इन उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटना-वैचित्र्य रहा, रससंचार, [ ५०१ ] भावविभूति या चरित्रचित्रण नहीं। ये वास्तव में घटना-प्रधान कथानक या किस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य-कोटि में नहीं आते। पर हिंदी-साहित्य के इतिहास में बाबू देवकीनंदन का स्मरण इस बात के लिये सदा बना रहेगा कि जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं। चंद्रकांता पढ़ने के लिये ही न जाने कितने उर्दू-जीवी लोगो ने हिंदी सीखी। चंद्रकांता पढ़ चुकने पर वे "चंद्रकांता की किस्म की कोई किताब" ढूँढ़ने में परेशान रहते थे। शुरू शुरू में 'चद्रकांता' और 'चंद्रकाता संतति' पढ़कर न जाने कितने नवयुवक हिंदी के लेखक हो गए। चंद्रकांता पढ़कर वे हिंदी की और प्रकार की साहित्यिक पुस्तकें भी पढ़ चले और अभ्यास हो जाने पर कुछ लिखने भी लगे।

बाबू देवकीनंदन के प्रभाव से "तिलस्म" और "ऐयारी" के उपन्यासों की हिंदी में बहुत दिनों तक भरमार रही और शायद अभी तक यह शौक बिल्कुल, ठंढा नहीं हुआ है। बाबू देवकीनंदन के तिलस्मी रास्ते पर चलने वालों में बाबू हरिकृष्ण जौहर विशेष उल्लेख योग्य हैं।

बाबू देवकीनंदन के संबंध में इतना और कह देना जरूरी है कि उन्होंने ऐसी भाषा का व्यवहार किया है जिसे थोड़ी हिंदी और थोड़ी उर्दू पढ़े लोग भी समझ लें। कुछ लोगों का यह समझना कि उन्होंने राजा शिवप्रसाद वाली उस पिछली 'आम-फहम' भाषा का बिलकुल अनुसरण किया जो एकदम उर्दू की ओर झुक गई थी, ठीक नहीं। कहना चाहें तो यों कह सकते हैं कि उन्होंने साहित्यिक हिंदी न लिखकर "हिंदुस्तानी" लिखी, जो केवल इसी प्रकार की हलकी रचनाओं में काम दे सकती है।

उपन्यासों का ढेर लगा देनेवाले दूसरे मौलिक उपन्यासकार पंडित किशोरीलाल गोस्वामी (जन्म सं॰ १९२२––मृत्यु १९८९) हैं, जिनकी रचनाएँ साहित्य-कोटि में आती हैं। इनके उपन्यासों में समाज के कुछ सजीव चित्र, वासनाओं के रूप-रंग, चित्ताकर्षक वर्णन और थोड़ा बहुत 'चरित्र-चित्रण' भी अवश्य पाया जाता है। गोस्वामीजी संस्कृत के अच्छे साहित्य-मर्मज्ञ तथा हिंदी [ ५०२ ] के पुराने कवि और लेखक थे। संवत् १९५५ में उन्होंने "उपन्यास" मासिक पत्र निकाला और इस द्वितीय उत्थान-काल के भीतर ६५, छोटे बड़े उपन्यास लिखकर प्रकाशित किए। अतः साहित्य की दृष्टि से उन्हें हिंदी का पहला उपन्यासकार कहना चाहिए। इस द्वितीय उत्थान-काल के भीतर उपन्यासकार इन्हीं को कह सकते हैं। और लोगो ने भी मौलिक उपन्यास लिखे पर वे वास्तव में उपन्यासकार न थे। और चीजें लिखते-लिखते उपन्यास की ओर जा पड़ते थे। पर गोस्वामीजी वहीं घर करके बैठ गए। एक क्षेत्र इन्होंने अपने लिये चुन लिया और उसी में रम गए। यह दूसरी बात है कि उनके बहुत से उपन्यास का प्रभाव नवयुवक पर बुरा पड़ सकता है, उनमें अन्य वासनाएँ व्यक्त करने वाले दृश्यों की अपेक्षा निम्न कोटि की वासनाएँ प्रकाशित करनेवाले दृश्य अधिक भी हैं और चटकीले भी। इस बात की शिकायत 'चपला' के संबंध में अधिक हुई थी।

एक और बात जरा खटकती है। वह है उनका भाषा के साथ मजाक। कुछ दिन पीछे इन्हें उर्दू लिखने का शौक हुआ। उर्दू भी ऐसी वैसी नहीं, उर्दू-ए-मुअल्ला। इस शौक के कुछ आगे पीछे उन्होंने 'राजा शिवप्रसाद का जीवनचरित' लिखा जो 'सरस्वती' के आरंभ के ३ अंकों में (भाग १ संख्या २, ३, ४) निकला। उर्दू जवान और शेर-सखुन की बेढंगी नकल से, जो असल से कभी कभी साफ अलग हो जाती है, उनके बहुत से उपन्यासों का साहित्यिक गौरव घट गया है। गलत या गलत मानी में लाए हुए शब्द भाषा को शिष्टता के दरजे से गिरा देते हैं। खैरियत यह हुई कि अपने सब उपन्यासों को आपने यह मँगनी का लिबास नहीं पहनाया। 'मल्लिका देवी या बंग-सरोजिनी' में संस्कृत प्रायः समास-बहुला भाषा काम में लाई गई है। इन दोनों प्रकार की लिखावटों को देखकर कोई विदेशी चकपकाकर पूछ सकता है कि "क्या दोनो हिंदी हैं?" "हम यह भी कर सकते हैं, वह भी कर सकते हैं" इस हौसले ने जैसे बहुत से लेखकों को किसी एक विषय पर पूर्ण अधिकार के साथ जमने न दिया, वैसे ही कुछ लोगों की भाषा को बहुत कुछ डाँवाडोल रखा, कोई एक टेढ़ा-सीधा रास्ता पकड़ने न दिया। [ ५०३ ]गोस्वामीजी के ऐतिहासिक उपन्यासो से भिन्न भिन्न समयों की सामाजिक और राजनीतिक अवस्था का अध्ययन और संस्कृति के स्वरूप का अनुसंधान नहीं सूचित होता। कहीं कहीं तो कालदोष तुरंत ध्यान में आ जाते है––जैसे वहाँ जहाँ अकबर के सामने हुक्के या पेचवान रखे जाने की बात कही गई हैं। पंडित किशोरीलाल गोस्वामी के कुछ उपन्यासों के नाम ये है––तारा, चपला, तरुण-तपस्विनी, रजिया बेगम, लीलावती, राजकुमारी, लवंगलता, हृदयहारिणी, हीराबाई, लखनऊ की कब्र, इत्यादि इत्यादि।

प्रसिद्ध कवि और गद्य लेखक पंडित् अयोध्यासिंहजी उपाध्याय ने भी दो उपन्यास ठेठ हिंदी में लिखे––'ठेठ हिंदी का ठाट' (सं॰ १९५६) और 'अधखिला फूल' (१९६४)। पर ये दोनों पुस्तकें भाषा के नमूने की दृष्टि से लिखी गई, औपन्यासिक कौशल की दृष्टि से नहीं। उनकी सबसे पहले लिखी पुस्तक "वेनिस का बाँका" में जैसे भाषा संस्कृतपन की सीमा पर पहुँची हुई थी वैसी ही इन दोनों पुस्तकों में ठेठपन की हद दिखाई देती है। इन तीनो पुस्तकों को सामने रखने पर पहला ख्याल यही पैदा होता है कि उपाध्यायजी क्लिष्ट, संस्कृतप्राय भाषा भी लिख सकते है और सरल से सरल ठेठ हिंदी भी। अधिकतर इसी भाषा-वैचित्र्य पर ख्याल जमकर रह जाता है। उपाध्यायजी के साथ पंडित् लज्जाराम मेहता का भी स्मरण आता है जो अखबार-नवीसी के बीच बीच में पुरानी हिंदू-मर्यादा, हिंदूधर्म और हिंदू पारिवारिक व्यवस्था की सुंदरता और समीचीनता दिखाने के लिये छोटे बड़े उपन्यास भी लिखा करते थे। उनके उपन्यासों में मुख्य ये हैं––'धूर्त रसिकलाल' (सं॰ १९५६), हिंदू गृहस्थ, आदर्श दंपति (१९६१), बिगड़े का सुधार (१९६४) और आदर्श हिंदू (१९७२) ये दोनों महाशय वास्तव में उपन्यासकार नहीं। उपाध्यायजी कवि हैं और मेहताजी पुराने अखबार-नवीस।

काव्य-कोटि में आनेवाले भावप्रधान उपन्यास, जिनमें भावों या मनोविकारों की प्रगल्भ और वेगवती व्यजना का लक्ष्य प्रधान हो––चरित्र-चित्रण या घटना वैचित्र्य का लक्ष्य नहीं––हिंदी में न देख, और बंगभाषा में काफी देख, बाबू ब्रजनंदनसहाय बी॰ ए॰ ने दो उपन्यास इस ढंग के प्रस्तुत किए––"सौंदर्योपासक" और "राधाकांत" (सं॰ १९६९)। [ ५०४ ]

छोटी कहानियाँ

जिस प्रकार गीत गाना और सुनना मनुष्य के स्वभाव के अंतर्गत है। उसी प्रकार कथा-कहानी कहना और सुनना भी। कहानियों का चलन सभ्य-असभ्य सब जातियों में चला आ रहा है। सब जगह उनका समावेश शिष्ट साहित्य के भीतर भी हुआ है। घटना-प्रधान और मार्मिक, उनके ये दो स्थूल भेद भी बहुत पुराने हैं और इनका मिश्रण भी। बृहत्कथा, बैतालपचीसी, सिंहासन बत्तीसी इत्यादि घटनाचक्र में रमानेवाली कथाओं की पुरानी पोथियाँ हैं। कादंबरी, माधवानल कामकंदला, सीत-बसंत इत्यादि वृत्त-वैचित्र्य-पूर्ण होते हुए भी कथा के मार्मिक स्थलों में रमानेवाले भाव-प्रधान आख्यान हैं। इन दोनों कोटि की कहानियों में एक बड़ा भारी भेद तो यह दिखाई देगा कि प्रथम में इतिवृत्त का प्रवाह मात्र अपेक्षित होता है; पर दूसरी कोटि की कहानियों में भिन्न-भिन्न स्थितियों का चित्रण या प्रत्यक्षीकरण भी पाया जाता है।

आधुनिक ढंग के उपन्यासों और कहानियों के स्वरूप का विकास इस भेद के आधार पर क्रमशः हुआ है। इस स्वरूप के विकास के लिये कुछ बातें नाटकों की ली गईं, जैसे––कथोपकथन, घटनाओं का विन्यास-वैचित्र्य, बाह्य और अभ्यंतर परिस्थिति का चित्रण तथा उसके अनुरूप भाव-व्यंजना। इतिवृत्त का प्रवाह तो उसका मूल रूप था ही; वह तो बना ही रहेगा। उसमें अंतर इतना ही पड़ा कि पुराने ढंग की कथा-कहानियों में कथा-प्रवाह अखंड गति से एक ओर चला चलता था जिसमें घटनाएँ पूर्वापर जुड़ती सीधी चली जाती थीं। पर योरप में जो नए ढंग के कथानक नावेल के नाम से चले और बंगभाषा में आकर 'उपन्यास' कहलाए (मराठी में वे 'कादंबरी' कहलाने लगे) वे कथा के भीतर की कोई भी परिस्थिति आरंभ में रखकर चल सकते हैं और उनमें घटनाओं की शृंखला लगातार सीधी न जाकर इधर उधर और शृंखलाओं से गुंफित होती चलती है और अंत में जाकर सबका समाहार हो जाता है। घटनाओं के विन्यास की यही वक्रता या वैचित्र्य उपन्यासों और आधुनिक कहानियों की वह प्रत्यक्ष विशेषता है जो उन्हें पुराने ढंग की कथा-कहानियों से अलग करती है। [ ५०५ ]उपर्युक्त दृष्टि से यदि हम देखें तो इंशा की रानी केतकी की बड़ी कहानी न आधुनिक उपन्यास के अंतर्गत आएगी न राजा शिवप्रसाद का 'राजा भोज का सपना' या 'वीरसिंह का वृत्तांत' आधुनिक, छोटी कहानी के अंतर्गत।

अँगरेजी की मासिक पत्रिकाओं में जैसी छोटी छोटी आख्यायिकाएँ या कहानियाँ निकला करती हैं वैसी कहानियों की रचना 'गल्प' के नाम से बंगभाषा में चल पड़ी थी। ये कहानियाँ जीवन के बड़े मार्मिक और भाव-व्यंजक खंड-चित्रों के रूप में होती थीं। द्वितीय उत्थान की सारी प्रवृत्तियों के आभास लेकर प्रकट होनेवाली 'सरस्वती' पत्रिका में इस प्रकार की छोटी कहानियों के दर्शन होने लगे। 'सरस्वती' के प्रथम वर्ष (सं॰ १९५७) में ही पं॰ किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती' नाम की कहानी छपी जो मौलिक जान पड़ती है। इसके उपरांत तो उसमें कहानियाँ बराबर निकलती रहीं पर वे अधिकतर बंगभाषा से अनूदित या छाया लेकर लिखी होती थीं। बंगभाषा से अनुवाद करनेवालो में इंडियन प्रेस के मैनेजर बा॰ गिरिजाकुमार घोष, जो हिंदी कहानियों में अपना नाम 'लाला पार्वतीनंदन' देते थे, विशेष उल्लेख योग्य हैं। उसके उपरांत 'बंगमहिला का स्थान है जो मिर्जापुर निवासी प्रतिष्ठित बंगाली सज्जन बा॰ रामप्रसन्न घोष की पुत्री और बा॰ पूर्णचंद्र की धर्मपत्नी थीं। उन्होंने बहुत सी कहानियों का बँगला से अनुवाद तो किया ही, हिंदी में कुछ मौलिक कहानियाँ भी लिखीं जिनमें से एक थी "दुलाईवाली" जो सं॰ १९६४ की 'सरस्वती' (भाग ८, संख्या ५) में प्रकाशित हुई।

कहानियों का आरंभ कहाँ से मानना चाहिए, यह देखने के लिये 'सरस्वती', में प्रकाशित कुछ मौलिक कहानियों के नाम वर्षक्रम से नीचे दिए जाते हैं––

इंदुमती (किशोरीलाल गोस्वामी) सं॰ १९५७
गुलबहार (किशोरीलाल गोस्वामी) सं॰ १९५९
प्लेग की चुड़ैल (मास्टर भगवानदास, मिरजापुर) १९५९
ग्यारह वर्ष का समय (रामचंद्र शुक्ल) १९६०
पंडित और पंडितानी (गिरिजादत्त वाजपेयी) १९६०
दुलाईवाली (बंग-महिला) १९६४
[ ५०६ ]इनमें से यदि मार्मिकता की दृष्टि से भाव-प्रधान कहानियों को चुने तो तीन मिलती है––'इंदुमती', 'ग्यारह वर्ष का समय' और 'दुलाईवाली'। यदि 'इंदुमती' किसी बँगला कहानी की छाया नहीं हैं, तो हिंदी की यह पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत 'ग्यारह वर्ष का समय', फिर 'दुलाईवाली' का नबंर आता हैं।

ऐसी कहानियों की ओर लोग बहुत आकर्षित हुए और वे इस काल के भीतर की प्रायः सब मासिक पत्रिकाओं में बीच-बीच में निकलती रहीं। सं॰ १९६८ में कल्पना और भावुकता के कोश बा॰ जयशंकर 'प्रसाद' की 'ग्राम' नाम की कहानी उनके मासिक पत्र, 'इंदु' में निकली। उसके उपरांत तो उन्होंने 'आकाशदीप', 'बिसाती', 'प्रतिध्वनि', 'स्वर्ग के खंडहर', 'चित्रमंदिर' इत्यादि अनेक कहानियाँ लिखीं जो तृतीय उत्थान के भीतर आती है। हास्यरस की कहानियाँ लिखनेवाले जी॰ पी॰ श्रीवास्तव की पहली कहानी भी 'इंदु' से सं॰ १९६८ में ही निकली थी। इसी समय के आस-पास आज-कल के प्रसिद्ध कहानी-लेखक पं॰ विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक' ने भी कहानी लिखना आरंभ किया। उनकी पहली कहानी 'रक्षा-बंधन' सन् १९१३ की 'सरस्वती' में छपी। सूर्यपुरा के राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह जी हिंदी के एक अत्यंत भावुक और भाषा की शक्तियों पर अद्भुत अधिकार रखने वाले पुराने लेखक हैं। उनकी एक अत्यंत भावुकतापूर्ण कहानी "कानों में कँगना" सं॰ १९७० में 'इंदु' में निकली थी। उसके पीछे अपने 'बिजली' आदि कुछ और सुंदर कहानियाँ भी लिखीं। पं॰ ज्वालादत्त शर्मा ने सं॰ १९७१ से कहानी लिखना आरंभ किया और उनकी पहली कहानी सन् १९१४ की 'सरस्वती' में निकली। चतुरसेन शास्त्री भी उसी बर्ष कहानी लिखने की ओर झुके।

संस्कृत के प्रकाड प्रतिभाशाली विद्वान्, हिंदी के अनन्य आराधक श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अद्वितीय कहानी "उसने कहा था" सं॰ १९७२ अर्थात् सन् १९१५ की 'सरस्वती' में छपी थी। इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती हैं पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा हूँ––केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता [ ५०७ ] के साथ पुकार या कराह नहीं रहा। कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नही पहुँचता। इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।

हिंदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार प्रेमचंद जी की छोटी कहानियाँ भी सं॰ १९७३ से ही निकलने लगीं। इस प्रकार द्वितीय उत्थान-काल के अंतिम भाग से ही आधुनिक कहानियों का आरंभ हम पाते हैं जिनका पूर्ण विकास तृतीय उत्थान में हुआ।


निबंध

यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है। इसीलिये गद्यशैली के विवेचक उदाहरणों के लिये अधिकतर निबन्ध ही चुना करते हैं। निबंध या गद्यविधान कई प्रकार के हो सकते हैं- विचारात्मक, भावात्मक, वर्णनात्मक। प्रवीण लेखक प्रसंग के अनुसार इन विधानों का बड़ा सुंदर मेल भी करते हैं। लक्ष्यभेद से कई प्रकार की शैलियों का व्यवहार देखा जाता है। जैसे, विचारात्मक निबंधों में व्यास और समास की रीति, भावात्मक निबंधों में धारा, तरंग और विक्षेप की रीति। इसी विक्षेप के भीतर वह 'प्रलाप शैली' आएगी जिसका बँगला की देखा-देखी कुछ दिनों से हिंदी में भी चलन बढ़ रहा है। शैलियों के अनुसार गुण-दोष भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं।

आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात् व्यक्तिगत विशेषता हो। बात तो ठीक है, यदि ठीक तरह से समझी जाय। व्यक्तिगत विशेषता का यह मतलब नहीं कि उसके प्रदर्शन के लिये विचारों की शृंखला रखी ही न जाय या जान-बूझकर जगह जगह से तोड़ दी जाय, भावों की विचित्रता दिखाने के लिये ऐसी अर्थ-योजना की जाय जो उनकी अनुभूति के प्रकृत या लोकसामान्य स्वरूप से कोई संबंध ही न रखे अथवा भाषा से सरकस वालों की-सी कसरतें या हठयोगियों के से आसन कराए जायँ जिनका लक्ष्य तमाशा दिखाने के सिवा और कुछ न हो। [ ५०८ ]संसार की हर एक बात और सब बातों से संबद्ध है। अपने अपने मानसिक संघटन के अनुसार किसी का मन किसी सबंध-सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। ये सबंध-सूत्र एक दूसरे से नथे हुए, पत्तों के भीतर की नसों के समान, चारों ओर एक जाल के रूप में फैले हैं। तत्त्व-चिंतक या दार्शनिक केवल अपने व्यापक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिये उपयोगी कुछ संबंध सूत्रों को पकड़कर किसी ओर सीधा चलता है और बीच के ब्योरों में कहीं नहीं फँसता। पर निबंध-लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति में इधर-उधर फूटी हुई सूत्र-शाखाओं पर विचरता चलता है। यही उसकी अर्थ-सम्बन्धी व्यक्तिगत विशेषता है। अर्थ-संबंध-सूत्रों की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ ही भिन्न भिन्न लेखको का दृष्टिपथ निर्दिष्ट करती है। एक ही बात को लेकर किसी का मन किसी संबंध सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। इसी का नाम है एक ही बात को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखना। व्यक्तिगत विशेषता का मूल आधार यही है।

तत्त्वचिंतक या वैज्ञानिक से निबंध-लेखक की भिन्नता इस बात में भी है कि निबंध-लेखक जिधर चलता है उधर अपनी सम्पूर्ण मानसिक सत्ता के साथ अर्थात् बुद्धि और भावात्मक हृदय दोनों लिए हुए। जो करुण प्रकृति के हैं उनका मन किसी बात को लेकर, अर्थ-संबंध-सूत्र पकड़े हुए, करुण स्थलों की ओर झुकता और गंभीर वेदना का अनुभव करता चलता है। जो विनोदशील हैं उनकी दृष्टि उसी बात को लेकर उसके ऐसे पक्षों की ओर दौड़ती हैं, जिन्हें सामने पाकर कोई हँसे बिना नहीं रह सकता। इसी प्रकार कुछ बातों के संबंध में लोगों की बँधी हुई धारणाओं के विपरीत चलने में जिस लेखक को आनंद मिलेगा वह उन बातों के ऐसे पक्षों पर वैचित्र्य के साथ विचरेगा जो उन धारणाओं को व्यर्थ वा अपूर्ण सिद्ध करते दिखाई देंगे। उदाहरण के लिये आलसियों और लोभियों को लीजिए, जिन्हें दुनिया बुरा कहती चली आ रही है। कोई लेखक अपने निबंध में उनके अनेक गुणों को विनोदपूर्वक सामने रखता हुआ उनकी प्रशंसा का वैचित्र्यपूर्ण आनंद ले और दे सकता है। इसी प्रकार वस्तु के नाना सूक्ष्म ब्योरों पर दृष्टि गड़ानेवाला लेखक किसी छोटी से छोटी, तुच्छ से तुच्छ, बात को गंभीर विषय का सा रूप देकर, पांडित्यपूर्ण [ ५०९ ]भाषा की पूरी नकल करता हुआ सामने रख सकता है। पर सब अवस्थाओं में कोई बात अवश्य चाहिए।

इस अर्थगत विशेषता के आधार पर ही भाषा और अभिव्यंजन प्रणाली की विशेषता––शैली की विशेषता––खड़ी हो सकती है। जहाँ नाना अर्थ संबंधों का वैचित्र्य नहीं, जहाँ गतिशील अर्थ की परंपरा नहीं, वहाँ एक ही स्थान पर खड़ी-खडी तरह-तरह की मुद्रा और उछल कूद दिखाती हुई भाषा केवल तमाशा करता हुई जान पड़ेगी।

भारतेंदु के समय से ही निबंधों की परपरा हमारी भाषा में चल पड़ी थी जो उनके सहयोगी लेखकों में कुछ दिनो तक जारी रहीं। पर, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, स्थायी विषयों पर निबंध लिखने की परंपरा बहुत जल्दी बंद हो गई। उसके साथ ही वर्णनात्मक निबंध-पद्धति पर सामयिक घटनाओं, देश और समाज जीवनचर्या, ऋतुचर्या आदि का चित्रण भी बहुत कम हो गया। इस द्वितीय उत्थान के भीतर उत्तरोत्तर उच्च कोटि के स्थायी गद्य साहित्य का निर्माण जैसा होना चाहिए था, न हुआ। अधिकांश लेखक ऐसे ही कामों में लगे जिनमे बुद्धि को श्रम कम पड़े। फल यह हुआ कि विश्वविद्यालयों में हिंदी की उँची शिक्षा का विधान हो जाने पर उच्च कोटि के गद्य की पुस्तकों की कमी का अनुभव चारो ओर हुआ।

भारतेंदु के सहयोगी लेखक स्थायी विषयो के साथ-साथ समाज की जीवनचर्या, ऋतुचर्या, पर्व-त्योहार आदि पर भी साहित्यिक निबंध लिखते आ रहे थे। उनके लेखों में देश की परंपरागत भावनाओं और उमगों का प्रतिबिंब रहा करता था। होली, विजयादशमी, दीपावली, रामलीला इत्यादि पर उनके लिखे प्रबंधों में जनता के जीवन की रंग पूरा पूरा रहता था। इसके लिये वे वर्णनात्मक और भावात्मक दोनों विधानो का बड़ा सुंदर मेल करते थे। यह सामाजिक सजीवता भी द्वितीय उत्थान के लेखकों में वैसी न रही।

इस उत्थानकाल के आरंभ में ही निबंध का रास्ता दिखानेवाले दो अनुवादग्रंथ प्रकाशित हुए––"बेकन-विचार-रत्नावली" (अँगरेजी के बहुत पुराने क्या पहले निबंध-लेखक लार्ड बेकन के कुछ निबधों का अनुवाद) और "निबंध मालादर्श" (चिपलूणकर के मराठी निबंध का अनुवाद)। पहली पुस्तक [ ५१० ] पंडित् महावीरप्रसादजी द्विवेदी की थी और दूसरी पंडित गंगाप्रसाद अग्निहोत्री की। उस समय यह आशा हुई थी कि इन अनुवादों के पीछे ये दोनों महाशय शायद उसी प्रकार के मौलिक निबंध लिखने में हाथ लगाएँ। पर ऐसा न हुआ। मासिक पत्रिकाएँ इस द्वितीय उत्थान-काल के भी बहुत सी निकलीं पर उनमें अधिकतर लेख "बातों के संग्रह" के रूप में ही रहते थे; लेखकों के अंतःप्रयास से निकली विचारधारा के रूप में नहीं। इस काल के भीतर जिनकी कुछ कृतियाँ निबंध-कोटि में आ सकती हैं, उनका संक्षेप में उल्लेख किया जाता है।


पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म दौलतपुर (जि॰ रायबरेली) में वैशाख शुक्ल ४ सं॰ १९२७ को और देहावसान पौष कृष्ण ३० सं॰ १९९५ को हुआ।

द्विवेदीजी ने सन् १९०३ में "सरस्वती" के संपादन का भार लिया। तब से अपना सारा समय उन्होंने लिखने में ही लगाया। लिखने की सफलता वे इस बात में मानते थे, कि कठिन से कठिन विषय भी ऐसे सरल रूप में रख दिया जाए कि साधारण समझने वाले पाठक भी उसे बहुत कुछ समझ जायँ। कई उपयोगी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने फुटकल लेख भी बहुत लिखे। पर इन लेखों में अधिकतर लेख 'बातों के संग्रह' के रूप में ही है। भाषा के नूतन शक्ति-चमत्कार के साथ नए नए विचारों की उद्भावनावाले निबंध बहुत ही कम मिलते हैं। स्थायी निबंधों की श्रेणी में दो ही चार लेख, जैसे 'कवि और कविता', 'प्रतिभा' आदि आ सकते हैं। पर ये लेखनकला या सूक्ष्म विचार की दृष्टि से लिखे नहीं जान पड़ते। 'कवि और कविता' कैसा गंभीर विषय है, कहने की आवश्यकता नहीं। पर इसमें इसी विषय की बहुत मोटी मोटी बातें बहुत मोटे तौर पर कही गई हैं, जैसे––

"इससे स्पष्ट है कि किसी किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती हैं, ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी। वह निरर्थक नहीं हो सकती। उससे समाज को अवश्य कुछ न कुछ लाभ पहुँचता है। [ ५११ ]"कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि इसे सुनकर कुछ असर न हो। कविता से दुनिया में आज तक बड़े बड़े काम हुए हैं। x x x कविता में कुछ न कुछ झूठ का अंश जरूर रहता है। असभ्य अथवा अर्द्धसभ्य लोगो को यह अंश कम खटकता है, शिक्षित और सभ्य लोगो को बहुत। x x x संसार में जो बात जैसी देख पड़े कवि को उसे वैसी ही वर्णन करना चाहिए।"

कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेदीजी के लेख या निबंध विचारात्मक श्रेणी में आएँगे। पर विचारों की वह गूढ-गुफित परंपरा उनमें नहीं मिलती जिससे पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नई विचारपद्धति पर दौड़ पड़े। शुद्ध विचारात्मक निबंधो का चरम उत्कर्ष वहीं कहा जा सकता है जहाँ एक एक पैराग्राफ में विचार दबा दबाकर कसे गए हो और एक एक वाक्य किसी संबंध विचार-खंड को लिए हो। द्विवेदीजी के लेखो को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता हैं कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिये लिख रहा है। एक एक सीधी बात कुछ हेर फेर––कहीं कहीं केवल शब्द के ही––के साथ पाँच छः तरह से पाँच छः वाक्यों में कही हुई मिलती है। उनकी यही प्रवृत्ति उनकी गद्य-शैली निर्धारित करती हैं। उनके लेखो में छोटे-छोटे वाक्यो का प्रयोग अधिक मिलता है। नपे-तुले वाक्य को कई बार शब्दो के 'कुछ' हेर-फेर के साथ कहने का ढंग वही है जो वाद या संवाद में बहुत शान होकर समझाने बुझाने के काम में लाया जाता है। उनकी यह व्यास-शैली विपक्षी को कायल करने के प्रयत्न में बड़े काम की है।

इस बात के उनके दो लेख "क्या हिदी नाम की कोई भाषा ही नहीं" (सरस्वती सन् १९१३) और "आर्यसमाज का कोंप" (सरस्वती १९१४) अच्छे उदाहरण है। उनके कुछ अंश नीचे दिए जाते हैं––

(१) आप कहते हैं कि प्राचीन भाषा मर चुकी, और उसे मरे तीन सौ वर्ष हुए। इस पर प्रार्थना है कि न वह कभी मरी और न उसके मरने के कोई लक्षण ही दिखाई देते हैं। यदि आप कमी अगिरा, मथुरा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी और इटावे तशरीफ ले जाँय तो कृपा करके वहाँ के एक आध अपर प्राइमरी या मिडिल स्कूल का मुआइना न [ ५१२ ]सही तो मुलाहजा अवश्य ही करें। ऐसा करने से आपको मालूम हो जाएगा कि जिसे आप मुर्दा समझ रहे हैं, वह अब तक इन जिलों में बोली जाती है। अगर आपको इस 'भाखा' नामक भाषा को मरे तीन सौ बर्ष हुए तो कृपा करके यह बताइए कि श्रीमान् के ही के सधर्मी काजिम अली आदि कवियों ने किस भाषा में कविता की है। १७०० ईसवी से लेकर ऐसे अनेक मुसलमान कवि हो चुके है, जिन्होंने भाषा में बड़े-बड़े ग्रंथ बनाए है। हिंदू-कवियों की ब्याप ख़बर न रखने तो कोई विशेष ख्याति की बात न थी।

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आनरेवल असगर अली खां की पांचवी उक्ति यह है, उर्दू या हिंदुस्तान ही यहां की सार्वदेशिक भाषा है। आपके इन कथन की सच्चाई की जांच समाज में ही हो सकती है। ऊपर हाला साहब के दीवान और दूसरे साहित्य-सम्मेलन में सभापति के भाषण से जो अवतरण दिए गए हैं उन्हें खाँ साहब बारी-बारी से एक बंगाली, एक मदरासी, एक गुजराती और एफ महाराष्ट्र को, जो इन प्रांत के निवासी न हों, दिखायें और उनसे यह कहे कि इनका मतलब हमें समझा दीजिए। बस तत्काल ही आपको मालूम हो जाएगा कि दो में से कौन भाषा अन्य प्रांतवाली अधिक समझते हैं।

श्रीयुत असगर अली खाँ के इस कथन से कि "Urdu or Hindustari is the lingua france of the country" एक भेद की बात खुल गई। वह यह कि आप लोगों की राय में यह हिंदुस्तानी और कुछ नहीं, उर्दू ही का एक नाम है। अतएव समझना चाहिए कि जब हिंदुस्तानी भाषा के प्रयोग पर जोर दिया जाता है तब "हिंदुस्तानी" नाम की आड़ में उर्दू ही का पक्ष लिया जाता है, और बेचारी हिंदी के बहिष्कार की चेष्टा की जाती है।

(२) जिस समाज के विद्यार्थी बच्चों तक को अपने दोषों पर धूल डालकर दूसरों को धमकाने और बिना पूछे ही उन्हे "नेक सलाह" देने का अधिकार है उसके बड़ों और विद्वानों के पराक्रम की सीमा कौन निर्दिष्ट कर सकेगा?

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हमारे पास इससे भी बढ़कर कुतूहलजनक पत्र आए हैं। बनावटी या सच्चा नाम देकर बी॰ सिंह नाम के एक महाशय ने आगरे से एक पोस्टकार्ड हमें उर्दू में भेजा है। उसमें अनेक दुर्वचनों और अभिशापों के अनंतर इस बात पर दुःख प्रकट किया गया है। [ ५१३ ]कि राज्य अँगरेजी है, अन्यथा हमारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाता। भाई सिंह दुःख मत करो। आर्यसमाज की धर्मोन्नति होती हो तो––

"कर कुठार, आगे यह सीसा"

पं॰ माधवप्रसाद मिश्र का जन्म पंजाब के हिसार जिले में भिवानी के पास कूँगड़ नामक ग्राम में भाद्र शुक्ल १३ संवत् १९२८ को और परलोकवास उसी ग्राम में प्लेग से चैत्र कृष्ण ४ संवत् १९६४ को हुआ। ये बड़े तेजस्वी सनातनधर्म के कट्टर समर्थक, भारतीय संस्कृति की रक्षा के सतत अभिलाषी विद्वान् थे। इनकी लेखनी में बड़ी शक्ति थी। जो कुछ ये लिखते थे बड़े जोश के साथ लिखते थे, इससे इनकी शैली बहुत प्रगल्भ होती थी। गौड़ होने के कारण मारवाड़ियों से इनका विशेष लगाव था और उनके समाज का सुधार ये हृदय से चाहते थे, इसी से "वैश्योपकारक" पत्र का संपादन-भार कुछ दिन इन्होंने अपने ऊपर लिखा था। जिस वर्ष "सरस्वती" निकली (सं॰ १९५७) उसी वर्ष प्रसिद्ध उपन्यासकार बा॰ देवकीनंदन खत्री की सहायता से काशी से इन्होंने "सुदर्शन" नामक पत्र निकलवाया जो सवा दो वर्ष चलकर बंद हो गया। इसके संपादनकाल में इन्होंने साहित्य-संबंधी बहुत से लेख, समीक्षाएँ और निबंध लिखे। जोश में आने से ये बड़े शक्तिशाली लेख लिखते थे। 'समालोचक' संपादक पं॰ चंद्रधर शर्मा गुलेरीजी ने इसी से एक बार लिखा था कि––

"मिश्रजी बिना किसी अभिनिवेश के लिख नहीं सकते। यदि हमें उनसे लेख पाने है तो सदा एक न एक टटा उनसे छेड़ ही रक्खा करें।"

इसमें संदेह नहीं कि जहाँ किसी ने कोई ऐसी बात लिखी जो इन्हे सनातनधर्म के संस्कारों के विरुद्ध अथवा प्राचीन ग्रंथकारो और कवियों के गौरव को कम करनेवाली लगी कि इनकी लेखनी चल पड़ती थी। पाश्चात्य संस्कृताभ्यासी विद्वान् जो कुछ कच्चा पक्का मत यहाँ के वेद, पुराण, साहित्य आदि के संबंध में प्रकट किया करते थे इन्हे खल जाते थे और उनका विरोध ये डटकर करते थे। उस विरोध में तर्क, आवेश और भावुकता सब का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। 'वेबर का भ्रम' इसी झोक में लिखा गया था। पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी [ ५१४ ]ने अपनी 'नैषध-चरित-चर्चा' में नैषध के कई एक बड़ी दूर की सूझवाले अत्युक्तिपूर्ण पद्यों को अस्वाभाविक और सुरुचि-विरुद्ध कह दिया। फिर क्या था, ये एकबारगी फिर पड़े और उनकी बातों का अपने ढंग पर उत्तर देते हुए लगे हाथों पं॰ श्रीधर पाठक के 'गुनवंत हेमंत' नाम की एक कविता की जिसकी द्विवेदी जी ने बड़ी प्रशंसा की थी, नीरसता और इतिवृत्तात्मकता भी दिखाई। यह विवाद कुछ दिन चला था।

मिश्रजी का स्वदेश-प्रेम भी बहुत गंभीर था। ये संस्कृत के और पंडितो के समान देशदशा के अनुभव से दूर रहनेवाले व्यक्ति न थे। राजनीतिक आंदोलनों के साथ इनका हृदय बराबर रहता था। जब देशपूज्य मालवीयजी ने छात्रों को राजनीतिक आदोलनों से दूर रहने की सलाह दी थी तब इन्होंने एक अत्यंत क्षोभ पूर्ण "खुली चिट्ठी" उनके नाम छापी थी। देशदशा की इस तीव्र अनुभूति के कारण इन्हे श्रीधर पाठक की कविताओं में एक बात बहुत खटकी। पाठकजी ने जहाँ ऋतुशोभा या देशछटा का वर्णन किया है। वहाँ केवल सुख, आनंद और प्रफुल्लता के पक्ष पर ही उनकी दृष्टि पड़ी है, देश के अनेक दीन-दुखियों के पेट की ज्वाला और कंकालवत् शरीर पर नहीं।

मिश्रजी ने स्वामी विशुद्धानदजी के बड़े जीवन-चरित्र के अतिरिक्त और भी बीसों व्यक्तियों के छोटे छोटे जीवन-चरित्र लिखे जिनमें कुछ संस्कृत के पुराने ढाँचे के विद्वान् तथा सनातन धर्म के सहायक सेठ साहूकार आदि हैं। 'सुदर्शन' में इनके लेख प्रायः सब विषयों पर निकलते थे, जैसे––पर्वत्यौहार, उत्सव, तीर्थस्थान, यात्रा, राजनीति इत्यादि। पर्वत्योहारो तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में पड़नेवाले उत्सवों पर निबंध लिखने की जो परंपरा भारतेंदु के सहयोगियों ने चलाई थीं वह इस द्वितीय उत्थान में आकर इन्हीं पर समाप्त हो गई। हाँ, संवाद-पत्रों के होली, दीवाली के अंकों में उसका आभास बना रहा। लोकसामान्य स्थायी विषयों पर मिश्रजी के केवल दो लेख मिलते है––'धृति' और 'क्षमा'।

द्वितीय उत्थानकाल में इस प्रभावशाली लेखक के उदय की उज्ज्वल आभा हिंदी साहित्य-गगन में कुछ समय के लिये दिखाई पड़ी, पर खेद है कि अकाल हीं विलीन हो गई। पं॰ माधवप्रसाद मिश्र के मार्मिक और ओजस्वी [ ५१५ ]लेखों को जिन्होंने पढ़ा होगा उनके हृदय में उनकी मधुर स्मृति अवश्य बनी होगी। उनके निबंध अधिकतर भावात्मक होते थे और धारा-शैली पर चलते थे। उनमें बहुत सुंदर मर्मपथ का अनुसरण करती हुई स्निग्ध वाग्धारा लगातार चली चलती थी। इनके गद्य के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं––

(क) "आर्य-वंश के धर्म, कर्म अर भक्ति-भाव का वह प्रबल प्रवाह जिसने एक दिन जगत् के बड़े बड़े सन्मार्ग-विरोधी भूघरों का दर्प दलन कर उन्हें रज में परिणत कर दिया था और इस परम पवित्र वंश का वह विश्वव्यापक प्रकाश जिसने एक समय जगत् में अंधकार का नाम तक न छोड़ा था, अब कहाँ है? इस गूढ़ एवं मर्मस्पर्शी प्रश्न का यहीं उत्तर मिलता है कि सब भगवान् महाकाल के पेट में समा गया। x x x जहाँ महा महा महीधर लुढ़क जाते थे और अगाध अंतलस्पर्शी जल था वहाँ अब पत्थरों में दबी हुई। एक छोटी सी किंतु सुशीतल वारिधार बह रही है। जहाँ के महा प्रकाश से दिग्दिगत उद्भासित हो रहे थे वहाँ अब एक अंधकार से घिरा हुआ स्नेहशून्य प्रदीप टिमटिमा रहा है। जिससे कभी-कभी यह भूभाग प्रकाशित हो जाता है। x x x भारतवर्ष की सुखशांति और भारतवर्ष का प्रकाश अब केवल राम नाम पर अटक रहा है। x x x पर जो प्रदीप स्नेह से परिपूर्ण नहीं है तथा जिसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है, वह कब तक सुरक्षित रहेगा?"

(ख) अब रही आपके जानने की बात, सो जहाँ तक आप जानते हैं वहाँ तक तो सब सफाई है! आप जहाँ तक जानते हैं, महाकवि श्रीहर्ष के काव्य में 'सर्वत्र गाँठै ही गाँठै हैं और पं॰ श्रीधरजी की कविता 'सर्वतो भाव से प्रशंसित' है। आप जहाँ तक जानते हैं, आप संस्कृत, हिंदी, बँगला आदि इस देश की सब भाषाएँ जानते है और हम वेबर साहब की करतूत से भी अनभिज्ञ हैं। आप जहाँ तक जानते हैं, श्रीहर्ष, 'लाल बुझक्कड़ को भी मात करता है' और वेबर साहब याझवल्क्य के समान ठहरता है? आप जहाँ तक जानते हैं, हमारे तत्वदशी पंडितों ने कुछ न लिखा और अँगरेजों ने इतना लिखा कि भारतवासी उनके ऋणी हैं। आप जहाँ तक जानते हैं, नैषध की प्रशंसा तो सब पक्षपाती पंडितों ने की है और निंदा दुराग्रह-रहित पुरुषों ने की है। आप जहाँ तक जानते हैं डाक्टर बूलर, हाल आदि साहबों ने जो कुछ लिखा है युक्तिपूर्वक लिखा है और मिश्र राधाकृष्ण ने युक्तिशून्य। आप जहाँ तक जानते हैं, प्रोफेसर वेबर की पुस्तक का अभी तक अनुवाद नहीं हुआ और बेवर साहब का ज्ञान हमें 'नैषध-चरित-चर्चा' से हुआ है। [ ५१६ ](ग) लोग केवल घर ही के नष्ट होने पर 'मिट्टी हो गया' नहीं कहते हैं और और जगह भी इसका प्रयोग करते हैं। किसी का जब बड़ा भारी-श्रम विफल हो जाय तब कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। किसी का धन खो जाय, मान-मर्यादा भंग हो जाय, प्रभुता और क्षमता चली जाय तो कहेंगे कि 'सब मिट्टी हो गया'। इससे जाना गया कि नष्ट होना ही मिट्टी होता है। किंतु मिट्टी को इतना बदनाम क्यों किया जाता है? अकेली मिट्टी ही इस दुर्नाम को क्यों धारण करती है? क्या सचमुच मिट्टी इतनी निकृष्ट है? और क्या केवल मिट्टी ही निकृष्ट हैं, हम निकृष्ट नहीं हैं? भगवती वसुंधरे! तुम्हारी 'सर्वसहा' नाम यथार्थ है।

अच्छा मां! यह तो कहो तुम्हारा नाम 'वसुंधरा' किसने रखा? यह नाम तो उस समय का हैं। यह नाम व्यास, वाल्मीकि, पाणिनि, कात्यायन आदि सुसंतानों का दिया हुआ है। जाने वे तुम्हारे सुपुत्र कितने आदर से, कितनी श्लाघा से और श्रद्धा से तुम्हें पुकारते थे।

उपन्यासों से कुछ छुट्टी पाकर बाबू गोपालरास (गहमर निवासी) पत्र-पत्रिकाओं में कभी कभी लेख और निबंध भी दिया करते थे। उनके लेखो और निबधों की भाषा बड़ी चंचल, चटपटी, प्रगल्भ और मनोरंजक होती थी। विलक्षण रूप खड़ा करना उनके निबंधों की विशेषता है। किसी अनुभूत बात का चरम दृश्य दिखानेवाले ऐसे विलक्षण और कुतूहलजनक चित्रों के बीच से वे पाठक को ले चलते हैं कि उसे एक तमाशा देखने का सा आनंद आता है। उनके "ऋद्धि और सिद्धि" नामक निबंध का थोड़ा सा अंश उद्ददृत किया जाता है––

"अर्थ या धन अलाउद्दीन का चिराग है। यदि यह हाथ में है तो तुम जो चाहो पा सकते हो। यदि अर्थ के अधिपति हो तो ब्रज मूर्ख होने पर भी विश्वविद्यालय तुम्हे डी॰ एल॰ की उपाधि देकर अपने नई वन्य समझेगा। x x x बरहे पर चलनेवाला नन्हें हाथ में बाँस लिए हुए रास्ते पर दौड़ते समय, 'हाय पैसा, हाय पैसा' करके चिल्लाया करता है। दुनिया के सभी आदमी वैसे ही नट हैं। मैं दिव्य दृष्टि से देखता हूँ कि खुद पृथ्वी भी अपने रास्ते घर 'हाय पैसा, हाय पैसा' करती हुई सूर्य की परिक्रमा कर रही है।

काल माहाल्य और दिनों के फेर से ऐश्वर्यशाली भगवान् ने तो अब स्वर्ग से उतरकर [ ५१७ ]दरिद्र के घर शरण ली है और उनके सिंहासन पर अर्थ जा बैठा है। x x x अर्थ ही इस युग का परब्रह्म है। इस ब्रह्मवस्तु के बिना विश्व-संसार का अस्तित्व नहीं रह सकता। यही चक्राकार चैतन्यरूप कैशवाक्स में प्रवेश करके संसार को चलाया करते हैं। x x x साधकों के हित के लिये अर्थनीति-शास्त्र में इसकी उपासना की विधि लिखी है। x x x x बच्चों की पहली पोथी में लिखा है––"बिना पूछे दूसरे का माल लेना चोरी कहलाता है।" लेकिन कहकर जोर से दूसरे का धन हड़प कर लेने से क्या कहलाता है, यह उसमें नहीं लिखा है। मेरी राय में यही कर्मयोग का मार्ग है।"

कहने की आवश्यकता नहीं कि उद्धृत अंश में बंगभाषा के प्रसिद्ध ग्रंथकार बंकिमचंद्र की शैली का पूरा आभास है।


बाबू बालमुकुंद गुप्त का जन्म पंजाब के रोहतक जिले के गुरयानी गाँव में सं॰ १९२२ में और मृत्यु सं॰ १९६४ में हुई। ये अपने समय के सबसे अनुभवी और कुशल संपादक थे। पहले इन्होंने दो उर्दू पत्रों का संपादन किया था, पर शीघ्र ही कलकत्ते के प्रसिद्ध संवादपत्र 'बंगवासी' के संपादक हो गए। बंगवासी को छोड़ते ही ये 'भारत मित्र' के प्रधान संपादक बनाए गए। ये बहुत ही चलते पुरजे और विनोदशील लेखक थे अतः कभी कभी छेड़छाड़ भी कर बैठते थे। पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी ने जब 'सरस्वती' (भाग ६ संख्या ११) के अपने प्रसिद्ध 'भाषा और व्याकरण' शीर्षक लेख में 'अनस्थिरता' शब्द का प्रयोग कर दिया तब इन्हें छेड़छाड़ का मौका मिल गया और इन्होंने 'आत्माराम' के नाम से द्विवेदीजी के कुछ प्रयोगों की आलोचना करते हुए एक लेखमाला निकाली जिसमें चुहलबाजी का पुट पूरा था। द्विवेदीजी ऐसे गंभीर प्रकृति के व्यक्ति को भी युक्तिपूर्ण उत्तर के अतिरक्त इनकी विनोदपूर्ण विगर्हणा के लिये "सरगौ नरक ठेकाना नाहिं" शीर्षक देकर बहुत फबता हुआ आल्हा 'कल्लू अल्हइत' के नाम से लिखना पड़ा।

पत्र-संपादन काल में इन्होंने कई विषयों पर अच्छे निबंध भी लिखे जिनका एक संग्रह गुप्त-निबंधावली के नाम से छप चुका है। इनके 'रत्नावली नाटिका' के सुंदर, अनुवाद का उल्लेख हो चुका है।

गुप्त जी ने सामयिक और राजनीतिक परिस्थिति को लेकर कई मनोरंजक [ ५१८ ]प्रबंध लिखे हैं जिनमें "शिवशंभु का चिट्ठा" बहुत प्रसिद्ध है। गुप्तजी की भाषा बहुत चलती, सजीव और विनोदपूर्ण होती थी। किसी प्रकार का विषय हो, गुप्तजी की लेखनी उसपर विनोद का रंग चढ़ा देती थी। वे पहले उर्दू के एक अच्छे लेखक थे, इससे उनकी हिंदी बहुत चलती और फड़कती हुई होती थी। वे अपने विचारों को विनोदपूर्ण वर्णनों के भीतर ऐसा लपेटकर रखते थे कि उनका आभास बीच-बीच में ही मिलता था। उनके विनोदपूर्ण वर्णनात्मक विधान के भीतर विचार और भाव लुके-छिपे से रहते थे। यह उनकी लिखावट की एक बड़ी विशेषता थी। "शिवशंभु का चिट्ठा" से थोड़ा सा अंश नमूने के लिये दिया जाता है–

"इतने में देखा कि बादल उमड़ रहे हैं। चीलें नीचे उतर रही हैं। तबीयत भुरभुरा उठी। इधर भग, उधर घटा–बहार में बहार। इतने में वायु का वेग बढ़ा, चीलें अदृश्य हुईं। अँधेरा छाया, बूँदें गिरने लगीं; साथ ही तड़-तड़ धड़-धड़ होने लगी। देखा ओले गिर रहे हैं। ओले थमे; कुछ वर्षा हुई, बूटी तैयार हुई। 'बम भोला' कहकर शर्माजी ने एक लोटा भर चढ़ाई। ठीक उसी समय लाल-डिग्गी पर बड़े लाट मिंटो ने बंगदेश के भूतपूर्व छोटे लाट उढवर्न की मूर्ति खोली। ठीक एक ही समय कलकत्ते में यह दो आवश्यक काम हुए। भेद इतना ही था कि शिवशंभु शर्मा के बरामदे की छत पर बूँदें गिरती थीं और लार्ड मिंटो के सिर या छाते पर।

भंग छानकर महाराजजी ने खटिया पर लँबी तानी और कुछ काल सुषुप्ति के आनंद में निमग्न रहे। x x x x हाथ-पाँव सुख में; पर विचार के घोड़ों को विश्राम न था। वह ओलों की चोट से बाजुओं को बचाता हुआ परिंदों की तरह इधर-उधर उड़ रहा था। गुलाबी नशे में विचारों का तार बँधा कि बड़े लाट फुरती से अपनी कोठी में घुस गए होंगे और दूसरे अमीर भी अपने अपने घरों में चले गए होंगे। पर वह चील कहाँ गई होगी? x x x x हा? शिवशंभु को इन पक्षियों की चिंता है, पर वह यह नहीं जानता कि इन अभ्रस्पर्शी अट्टालिकाओं से परिपूरित महानगर में सहस्रों अभागे रात बिताने को झोपड़ी भी नहीं रखते।"

यद्यपि पं॰ गोविदनारायण मिश्र हिंदी के बहुत पुराने लेखकों में थे पर उस पुराने समय में वे अपने फुफेरे भाई पं॰ सदानंद मिश्र के 'सारसुधा-निधि' [ ५१९ ]पत्र में कुछ सामयिक और साहित्यिक लेख ही लिखा करते थे जो पुस्तकाकार छपकर स्थायी साहित्य में परिगणित न हो सके। अपनी गद्य शैली का निर्दिष्ट रूप इस द्वितीय उत्थान के भीतर ही उन्होंने पूर्णतया प्रकाशित किया। इनकी लेखशैली का पता इनके सम्मेलन के भाषण और "कवि और चित्रकार" नामक लेख से लगता है। गद्य के संबंध में इनकी धारणा प्राचीनों के "गद्य-काव्य" की सी थी। लिखते समय बाण और दंडी इनके ध्यान में रहा करते थे। पर यह प्रसिद्ध बात है कि संस्कृत साहित्य में गद्य का वैसा विकास नहीं हुआ। बाण और दंडी का गद्य काव्य-अलंकार की छटा दिखानेवाला गद्य था; विचारों को उत्तेजना देनेवाला, भाषा की शक्ति का प्रसार करनेवाला गद्य नहीं। विचारपद्धति को उन्नत करनेवाले गद्य का अच्छा और उपयोगी विकास यूरोपीय भाषाओं में ही हुआ। गद्यकाव्य की पुरानी रूढ़ि के अनुसरण से शक्तिशाली गद्य का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।

पंडित गोविंदनारायण मिश्र के गद्य को समास-अनुप्रास में गुँथे शब्दगुच्छों का एक अटाला समझिए। जहाँ वे कुछ विचार उपस्थित करते हैं वहाँ भी पदच्छटा ही ऊपर दिखाई पड़ती है। शब्दावलि दोनों प्रकार की रहती है––संस्कृत की भी और ब्रजभाषा काव्य की भी। एक ओर 'प्रगल्भ प्रतिभास्रोत से समुत्पन्न शब्द-कल्पना-कलित अभिनव भावमाधुरी' है तो दूसरी ओर 'तम तोम सटकाती मुकाती पूरनचंद की सकल-मन-भाई छिटकी जुन्हाई' है। यद्यपि यह गद्य एक क्रीड़ा-कौतुक मात्र है, पर इसकी भी थोड़ी सी झलक देख लेनी चाहिए––

(साधारण गद्य का नमूना)

"परंतु मदमति अरसिकों के अयोग्य, मलिन अथवा कुशाग्रबुद्धि चतुरों के स्वच्छ मलहीन मन को भी यथोचित शिक्षा से उपयुक्त बना लिए बिना उनपर, कवि की परम रसीली उक्ति छवि-छबीली का अलंकृत नखशिख लौं स्वच्छ सर्वांग-सुंदर अनुरूप यथार्थ प्रतिबिंब कभी ना पढेगा। x x x स्वच्छ दर्पण पर ही अनुरूप, यथार्थं सुस्पष्ट प्रतिबिंबि प्रतिफलित होता है। उससे साम्हना होते ही अपनी ही प्रतिबिंबित प्रतिकृति मानों समता की स्पर्द्धा में आ, उसी समय साम्हना करने आमने-सामने आ खड़ी होती है।" [ ५२० ]

(काव्यमय गद्य का नमूना)

"सरद पूनी के समुदित पूरनचंद की छिटकी जुन्हाई सकल-मन-भाई के भी मुँह मसि मल, पूजनीय अलौकिक पदनचंद्रिका की चमक के आगे तेजहीन मलीन और कलंकित कर दरसाती, लजाती, सरस-सुधा-धौली अलौकिक सुप्रभा फैलाती, अशेष मोह जढ़ता-प्रगाढ-तम-तोम सटकाती, सुकांता, निज भक्तजन-मनवांछित वराभव मुक्ति मुक्ति सुचारु चारों मुक्त हाथों से मुक्ति लुटाती। x x x मुक्ताहारीनीर-क्षीर-विचार-चतुरकवि-कोविंद-राज-राजहिय-सिंहासन निवासिनी मंदहासिनी, त्रिलोक-प्रकाशिनी सरस्वती माता के अति दुलारे, प्राणों से प्यारे पुत्रों की अनुपम अनोखी अतुल बलवाली परमप्रभावशाली सुजन-मन-मोहिनी नवरस-भरी सर सरससुखद विचित्र वचन-रचना का नाम ही साहित्य है।"

भारतेंदु के सहयोगी लेखक प्रायः 'उचित', 'उत्पन्न उच्चरित' 'नव' आदि से ही संतोष करते थे पर मिश्रजी ऐसे लेखकों ने बिना किसी जरूरत के उपसर्गों का पुछल्ला जोड़ जनता के इन जाने बूझे शब्दों को भी––'समुचित', 'समुत्पन्न', 'समुच्चरित', 'अभिनव' करके––अजनबी बना दिया। 'मृदुता', 'कुटिलता', 'सुकरता', 'समीपता', 'ऋजुता' आदि के स्थान पर 'मार्दव', 'कौटिल्य', सौकर्य', 'सामीप्य', 'आर्जव' आदि ऐसे ही लोगों की प्रवृत्ति से लाए जाने लगे।

बाबू श्यामसुंदर दास जी नागरी-प्रचारिणी सभा के स्थापनकाल से लेकर बराबर हिंदी भाषा, कवियों की खोज तथा इतिहास आदि के संबंध में लेख लिखते आए है। आप जैसे हिंदी के अच्छे लेखक है वैसे ही बहुत अच्छे वक्ता भी। आपकी भाषा इस विशेषता के लिये बहु दिनों से प्रसिद्ध है कि उससे अरबी-फारसी के विदेशी शब्द नहीं आते। आधुनिक सभ्यता के विधानों के बीच को लिखा पढ़ी के ढंग पर हिंदी को ले चलने में आपकी लेखनी ने बहुत कुछ योग दिया है?

बाबू साहब ने बड़ा भारी काम लेखकों के लिये सामग्री प्रस्तुत करने का किया है। हिंदी पुस्तकों की खोज के विधान द्वारा अपने साहित्य का इतिहास, कवियों के चरित्र और उनपर प्रबंध आदि लिखने की बहुत सा मसाला इकट्ठा करके रख दिया। इसी प्रकार आधुनिक हिंदी के नए-पुराने लेखको के संक्षिप्त [ ५२१ ] जीवन-वृत्त 'हिंदी-कोविंद रत्नमाला' के दो भागों में आपने संगृहीत किए हैं। शिक्षोपयोगी तीन पुस्तकें––भाषा-विज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य तथा साहित्यालोचन––भी आपने लिखी या संकलित की है।

हास्य-विनोद पूर्ण लेख लिखनेवालों में कलकत्ते के पं जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी का नाम भी बराबर लिया जाता है। पर उनके अधिकांश लेख भाषण मात्र हैं, स्थायी विषयों पर लिखे हुए निबंध नहीं।


पं॰ चंद्रधर गुलेरी का जन्म जयपुर में एक विख्यात पंडित् घराने में २५ आषाढ़ संवत् १९४० में हुआ था। इनके पूर्वज काँगड़े के गुलेर नामक स्थान से जयपुर आए थे। पं॰ चंद्रधरजी संस्कृत के प्रकांड विद्वान् और अँगरेजी की उच्च शिक्षा से संपन्न व्यक्ति थे। जीवन के अंतिम वर्षों के पहले ये बराबर अजमेर के मेयो कालेज में अध्यापक रहे। पीछे काशी हिंदू-विश्वविद्यालय के ओरियंटल कालेज के प्रिंसिपल होकर आए। पर हिंदी के दुर्भाग्य से थोड़े ही दिनों में सं॰ १९७७ में इनका परलोकवास हो गया। ये जैसे धुरंधर पंडित थे वैसे ही सरल और विनोदशील प्रकृति के थे।

गुलेरीजी ने 'सरस्वती' के कुछ ही महीने पीछे अपनी थोड़ी अवस्था में ही जयपुर से 'समालोचक' नामक एक मासिक-पत्र अपने संपादकत्व में निकलवाया था। उक्त पत्र द्वारा गुलेरीजी एक बहुत ही अनूठी लेख-शैली लेकर साहित्यक्षेत्र में उतरे थे। ऐसी गंभीर और पांडित्यपूर्ण हास, जैसा इनके लेखों में रहता था, और कही देखने में न आया। अनेक गूढ़ शास्त्रीय विषयों तथा कथा-प्रसंगों की ओर विनोदपूर्ण संकेत करती हुई इनकी वाणी चलती थी। इसी प्रसंग-गर्भत्व (Allusiveness) के कारण इनकी चुटकियों का आनंद अनेक विषयों की जानकारी रखनेवाले पाठकों को ही विशेष मिलता था। इनके व्याकरण ऐसे रूखे विषय के लेख भी मजाक से खाली नहीं होते थे।

यह बेधड़क कहा जा सकता है कि शैली की जो विशिष्टता और अर्थगर्भित वक्रता गुलेरीजी में मिलती है, वह और किसी लेखक में नहीं। इनके स्मित हास की सामग्री ज्ञान के विविध क्षेत्रों से ली गई है। अतः इनके लेखों का पूरा आनंद उन्हीं को मिल सकता है जो बहुज्ञ या कम से कम बहुश्रुत हैं। इनके [ ५२२ ]"कछुआ धरम" और "मारेसि मोहिं कुठाउँ" नामक लेखों से उद्धरण दिए जाते हैं।

(१) मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असत् कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या और कहीं उठकर चला जाय। मनु महाराज ने न सुनने जोग गुरु की कलंक कथा सुनने के पाप से बचने के दो ही उपाय बताए हैं। या तो कान ढककर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो। तीसरा उपाय जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर या मुक्का तान कर सामने खड़े हो जाओ और निंदा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत न करे।

पुराने से पुराने आर्य्यों की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे; आर्य्य सप्त-सिंधुओं को आर्य्यावर्त बनाना चाहते थे। आगे चल दिए। पीछे वे दबाते आए। विष्णु ने अग्नि, यज्ञपात्र और अरणी रखने के लिये तीन गाड़ियाँ बनाईं। उसकी पत्नी ने उनके पहियों की चूल को घी से आँच दिया। ऊखल, मूसल और सोम कूटने के पत्थरों तक को साथ लिए हुए यह 'कारवाँ' में मूँजवत् हिंदूकुश के एक मित्र दर्रे खैबर में होकर सिंधु की एक घाटी में उतरा। पीछे से श्वान, भ्राज, अभारि, भारि, हस्त, सुहस्त, कृशन, शंढ, मर्क मारते चले आते थे। वज्र की मार से पिछली गाड़ी-भी आधी टूट गई, पर तीन लंबे डग मरने वाले विष्णु ने पीछे फिर कर नहीं देखा और न जमकर मैदान लिया। पितृभूमि अपने भ्रातृज्यों के पास छोड़ आए और यहाँ 'भ्रातृव्यस्य वधाय' (सजातानां मध्यमेष्ट्याय) देवताओं को आहुति देने लगे। जहाँ जहाँ रास्ते में टिके थे वहँ वहाँ यूप खड़े हो गए। यहाँ की सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला, भूमि में ये बुलबुले चहकने लगीं।

पर ईरान के अंगूरों और गुलों का, मूँजवत् पहाड़ की सोमलता का, चसका पड़ा हुआ था। लेने जाते तो वे पुरानै गंधर्व मारने दौड़ते। हाँ, उनमें से कोई कोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाते थे। उस समय का सिक्का गौएँ थी। जैसे आजकल लखपती, करोड़पती कहलाते हैं, वैसे तब "शतगु", "सहस्रगु" कहलाते थे। ये दमड़ीमल के पोते करोड़ीचंद अपने "नवग्वाः", "दशग्जाः" पितरों से शरमाते न थे, आदर से उन्हें याद करते थे। आजकल के मेवा बेचनेवाले पेशावरियों की तरह कोई कोई 'सरहदी' यहाँ पर भी सोम बेचने चले आते [ ५२३ ]थे। कोई आर्य्य सीमाप्रांत पर जाकर भी ले आया करते थे! मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी, जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुँजडिनो से हुआ करती है। ये कहते कि गौ की एक कला में सोम बेच दो। वे कहता, वाह! सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ के गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबेजी ने अपने कंधे पर चढ़ी बालवधू के लिये कहा था कि 'याही में बेटा, और याही में बेटी' वैसे ये भी कहते कि इस गौ से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, यह होता है, वह होता है। पर काबुली काहे को मानता? उसके पास सोम को "मनोपली" थी और इनका बिना लिए सरता नही। अंत में गौ को एक पाद, अर्ध होते होते दाम तै हो जाते।, भूरी आंखों वाली एक बरस की बछिया में सोम राजा खरीद लिए जाते। गाड़ी में रखकर शान से लाए जाते।

अच्छा, अब उसी पचनद में 'वाहीक' आकर बसे। अश्वघोष की फडकती उपमा के अनुसार धर्म भागा और दंड कमडंल लेकर ऋषि भी भागे। अब ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षि देश और आर्यावर्त्त की महिमा हो गई; और वह पुराना देश––'न तत्र दिवस वसेत्'। बहुत वर्ष पीछे की बात है। समुद्र पार के देशों में और धर्म पक्के हो चले। वे लुटते मारते तो थे ही, बेधरम भी कर देते थे। बस समुद्र-यात्रा बंद! कहाँ तो राम के बनाए सेतु का दर्शन करके ब्रह्महत्या मिटती थी और कहाँ नाव में जानेवाले द्विज का प्रायश्चित्त करा कर भी संग्रह बंद! वही कछुआ धर्म! ढाल के अंदर बैठे रहो।

किसी बात का टोटा होने पर उसे पूरा करने की इच्छा होती है, दुःख होने पर उसे मिटाना चाहते हैं। यह स्वभाव है। संसार में विविध दुःख दिखाई पड़ने लगे। इन्हें मिटाने के लिये उपाय भी किए जाने लगे। 'दृष्ट' उपाय हुए। उनसे संतोष न हुआ तो सुनै सुनाए (आनुश्रविक) उपाय किए। उनसे भी मन न भरा। साख्यों ने काठ कडी गिन गिनकर उपाय निकाला, बुद्ध ने योग में पड़कर उपाय खोजा। किसी न किसी तरह कोई उपाय मिलता गया। कछुओं ने सोचा, चोर को क्या मारें, चोर की माँ को ही न मारें। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। लगीं प्रार्थनाएँ होने––

"मा देहि राम! जननी जठरे निवासम्"।

और यह उस देश में जहाँ सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों [ ५२४ ]का यह कहते कहते तालू सूखता था कि सौ बरस इसे हम उगता देखें, सौ बरस सुनें, सौ बरस बढ़ चढ़ कर बोलें, सी-बरस अदीन होकर रहें।

हयग्रोव या हिरण्याक्ष दोनों में से किसी एक दैत्य से देव बहुत तंग थे। सुरपुर में अफवाह पहुँची। बस, इंद्र ने किवाड़ बंद कर दिए, आगल डाल दी। मानों अमरावती ने आँखें बंद कर ली। यह कछुआ धरम का भाई शुतुरमुर्ग धरम है।

(२) हमारे यहाँ पूँजी शब्दों की है। जिससे हमें काम पटा, चाहे और बातों में हम ठगे गए, पर हमारी शब्दों की गाँठ नहीं करती गई। x x x x यही नहीं जो आया उससे हमने कुछ ले लिया।

पहले हमें काम असुरों से पढ़ा, असिरियावालों से। उनके यहाँ 'असुर' शब्द बड़ी शान का था। 'असुर' माने प्राणवाला, जबरदरत। हमारे इंद्र को भी यह उपाधि हुई, पीछे चाहे शब्द का अर्थ बुरा हो गया। x x x पारस के पारसियों से काम पड़ा तो वे अपने सूबेदारों की उपाधि 'क्षत्रप' 'क्षेत्रपावन' या 'महाक्षत्रप' हमारे यहाँ रख गए और गुस्ताल्प, विस्तास्प के वजन के कृशाश्र्व, स्यावाच, वृहदश्व आदि ऋषियों और राजाओं के नाम दे गए। यूनानी यवनों से काम पढ़ा तो वे, यवन की स्त्री यवनी तो नही पर यवन की लिपि 'यवनानी शब्द हमारे व्याकरण को भेंट कर गए। साथ ही मैष, वृष, मिथुन आदि भी यहाँ पहुँच गए। पुरानें ग्रंथकार तो शुद्ध यूनानी नाम आर, तार, जितुम आदि ही काम में लाते थें। वराहमिहिर की स्त्री खना चाहे यवनी रही हो, या न रही हो, उसने आदर से कहा है कि म्लेच्छ यवन भी ज्योति:शास्त्र जानने से ऋषियों की तरह पूजे जाते हैं। अब चाहे 'वैल्यूपैवल सिरटम' भी वेद में निकाला जाये, घर पुराने हिदू कृतघ्न और गुरुमार न थे। x x x यवन राजाओं की उपाधि 'सोटर' त्रातार का रूप लेकर हमारे राजाओं के यहाँ आ लगी। x x x शंका के हमले हुए तो 'शकपार्थिव' वैयाकरणों के हाथ लगा और शक संवत् या शाका सर्वसाधारण के। हूण वक्षु (Oxus) नदी के किनारे पर से यहाँ चढ़ आए तो कवियो को नारंगी की उपमा मिली कि ताजे मुटे हुए हूण की ठुड्डी की सो नारंगी।

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बकौल शेक्सपियर के जो मेरा धन छीनता है वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने मर्मस्थल पर वह मार की है कि [ ५२५ ]कुछ कहा नहीं जाता। हमारी ऐसी चोटी पकड़ी है कि सिर नीचा कर दिया। गैरों ने तो गाँठ का कुछ न दिया, पर इन्होंने तो अच्छे अच्छे शब्द छीन लिए। इसी से कहते हैं कि "मारेसि मोहिं कुठाऊँ"। अच्छे-अच्छे पद तो यो सफाई से ले लिए है कि इस पुरानी जमी हुई दूकान का दिवाली निकल गया है।

हम अपने आपको 'आर्य' नहीं कहते, हिंदू कहते है। x x x और तो क्या 'नमस्ते' को वैदिक फिकरा हाथ से गया। चाहे 'जय रामजी' कह लो चाहे 'जय श्रीकृष्ण', नमस्ते मत कह बैठना। ओंकार बड़ा मांगलिक, शब्द है। कहते हैं कि पहले यह ब्रह्मा का कंठ फाड़कर निकला था।

इस द्वितीय उत्थान के भीतर हम दो ऐसे निबंध-लेखको का नाम लेते हैं। जिन्होंने लिखा तो कम है पर जिनके लेखों में भाषा की एक नई गति-विधि तथा आधुनिक जगत् की विचारधारा से उद्दीप्त नूतन भाव-भंगी के दर्शन होते हैं। 'सरस्वती' के पुराने पाठकों में से बहुतों को अध्यापक पूर्णसिंह के लेखो का स्मरण होगा। उनके तीन-चार निबंध ही उक्त पत्रिका में निकले, उनमें विचारों और भावों को एक अनूठे ढंग से मिश्रित करने वाली एक नई शैली मिलती है। उनकी लाक्षणिकता हिंदी गद्य साहित्य में एक नई चीज थी। भाषा की बहुत कुछ उड़ान, उसकी बहुत कुछ शक्ति, 'लाक्षणिकता' में देखी जाती है। भाषा और भाव की एक नई विभूति उन्होंने सामने रखी। योरप के जीवन-क्षेत्र की अशांति से उत्पन्न अध्यात्मिकता की, किसानो और मजदूरो की महत्व-भावना की जो लहरे उठीं उनमें वे बहुत दूर तक बहे। उनके निबंध भावात्मक कोटि मे ही आएँगे यद्यपि उनकी तह में क्षीण विचारधारा स्पष्ट लक्षित होती है। इस समय उनके तीन निबंध हमारे सामने हैं "आचरण की सभ्यता" "मजदूरी और प्रेम" और "सच्ची वीरता"। यहाँ हम उनके निबधों से कुछ अंश उद्धृत करते हैं––

'आचरण की सभ्यता' से

"पश्चिमी ज्ञान से मनुष्य मात्र को लाभ हुआ हैं। ज्ञान का वह सेहरा––बाहरी सभ्यता की अंतवर्त्तनी आध्यात्मिक सभ्यता का वह मुकुट––जो आज मनुष्य जाति ने पहन रखा है, युरोप को कदापि प्राप्त न होता, यदि धन और तेज को एकत्रित करने के [ ५२६ ]लिये युरोप-निवासी इतने कमीने न बनते। यदि सारे पूरबी जगत् में इस महत्ता के लिये अपनी शक्ति से अधिक भी चंदा देकर सहायता की तो बिगड़ क्या गया? एक तरफ जहाँ युरोप के जीवन का एक अंश असभ्य प्रतीत होता है––कमीना और कायरता से भरा मालूम होता है––वहीं दूसरी और युरोप के जीवन का वह भाग जहाँ विद्या और दान का सूर्य चमक रहा है, इतना महान् है कि थोड़े ही समय में पहले अंश को मनुष्य अवश्य भूल जायँगे।

x x x आचरण की सभ्यता की देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्यात्मिक। x x x जब पैगंबर मुहम्मद ने ब्राह्मण को चीरा और उसके मौन आचरण को नंगा किया तब सारे मुसलमानों को आश्चर्य हुआ कि काफ़िर में मौमिन किस प्रकार गुप्त था। जय शिव ने अपने हाथ से ईसा के शब्दों को परे फेक कर उसकी आत्मा के नंगे दर्शन कराए तो हिंदू चकित हो गए कि वह नग्न करने अथवा नग्न होनेवाला उनका कौन सा शिव था।"

'मज़दूरी और प्रेम'से

"जब तक जीवन के अरण्य में पादरी, मौलवी, पंडित और साधु-संन्यासी हल, कुदाल और खुरपा लेकर मज़दूरी न करेंगे तब तक उनका मन और उनकी बुद्धि अनंत काल बीत जाने तक मलिन मानसिक जुआ खेलती रहेगी। उनका चितन बासी, उनकी ध्यान बासी, उनकी पुस्तकें बासी, उनका विश्वास बासी और उनका खुदा भी बासी हो गया है।"

इस कोटि के दूसरे लेखक हैं बाबू गुलाबराय, एम॰ ए॰, एल-एल॰ बी॰। उन्होंने विचारात्मक और भावात्मक दोनों प्रकार के निबंध थोड़े-बहुत लिखे हैं––जैसे, 'कर्तव्य संबंधी रोग, निदान और चिकित्सा', 'समाज और कर्तव्य, पालन', 'फिर निराशा क्यों'? 'फिर निराशा क्यों' एक छोटी सी पुस्तक है जिसमें कई विषयों पर बहुत छोटे छोटे आभासपूर्ण निबंध है। इन्हीं में से एक 'कुरूपता' भी है जिसका थोड़ा सा अंश नीचे दिया जाता है––

"सौंदर्य की उपासना करना उचित है सही, पर क्या उसी के साथ साथ कुरूपता घृणास्पद वा निंद्य है? नहीं, सौंदर्य का अस्तित्व ही कुरूपता के ऊपर निर्भर है। सुंदर [ ५२७ ]पदार्थ अपनी सुंदरता पर चाहे जितना मान करे, किंतु असुंदर पदार्थ की स्थिति में ही वह सुंदर कहलाता है। अंधों में काना ही श्रेष्ठ समझा जाता है।

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सत्ता-सागर में दोनों की स्थिति है। दोनों ही एक तारतम्य में बँधे हुए हैं। दोनों ही एक दूसरे में परिणत होते रहते हैं। फिर कुरूपता घृणा का विषय क्यों? रूपहीन वस्तु से तभी तक घृणा है जब तक हम अपनी आत्मा को संकुचित बनाए हुए बैठे हैं। सुंदर वस्तु को भी हम इसी कारण सुंदर कहते हैं कि उसमें हम अपने आदर्शों की झलक देखते हैं। आत्मा के सुविस्तृत और औदार्य्यपूर्ण हो जाने पर सुंदर और असुंदर दोनों ही समान प्रिय बन जाते हैं। कोई माता अपने पुत्र को कुरूपवान् नहीं कहती। इसका यही कारण है कि वह अपने पुत्र में अपने आपको ही देखती है। जब हम सारे संसार में अपने आपको ही देखेंगे तब हमको कुरूपवान् भी रूपवान् दिखाई देगा।"

अब निबंध का प्रसंग यहीं समाप्त किया जाता है। खेद है कि समास-शैली पर ऐसे विचारात्मक निबंध लिखनेवाले, जिनमें बहुत ही चुस्त भाषा के भीतर जिसमें एक पूरी अर्थ-परंपरा कसी हो, अधिक लेखक हमें न मिले।


समालोचना

समालोचना का उद्देश्य हमारे यहाँ गुण-दोष विवेचन ही समझा जाता रहा है। संस्कृत-साहित्य में समालोचना का पुराना ढंग यह था कि जब कोई आचार्य या साहित्य-मीमांसक कोई नया लक्षण-ग्रंथ लिखता था तब जिन काव्य-रचनाओं को वह उत्कृष्ट समझता था उन्हें रस, अलंकार आदि के उदाहरणों के रूप में उद्धत करता था और जिन्हें दुष्ट समझता था उन्हें दोषों के उदाहरण में देता था। फिर जिसे उसकी राय नापसंद होती थी वह उन्हीं उदाहरणों में से अच्छे ठहराए हुए पद्यों में दोष दिखाता था और बुरे ठहराए हुए पद्यों के दोष का परिहार करता था[१]। इसके अतिरिक्त जो दूसरा उद्देश्य [ ५२८ ] समालोचना का होता है––अर्थात् कवियों की अलग-अलग विशेषताओं का दिग्दर्शन––उसकी पूर्ति किसी कवि की स्तुति में दो-एक श्लोकबद्ध उक्तियाँ कहकर ही लोग मान लिया करते थे, जैसे––

निर्गतासु न वा कस्य कालिदामस्य सूक्तिषु।
प्रीतिः मधुरसांद्रासु मंजरीष्विव जायते॥



उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थगौरवम्।
नेषधे पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥

किसी कवि या पुस्तक के गुणदोष या सुक्ष्म विशेषताएँ दिखाने के लिये एक दूसरी पुस्तक तैयार करने की चाल हमारे यहाँ न थी। योरप में इसकी चाल खूब चली। वहाँ समालोचना काव्य-सिद्धांत-निरूपण से स्वतंत्र एक विषय ही हो गया। केवल गुण-दोष दिखाने वाले लेख या पुस्तकों की धूम तो थोड़े ही दिनों रहती थी, पर किसी कवि की विशेषताओं का दिग्दर्शन करानेवाली, उसकी विचारधारा में डूबकर उसकी अंतर्वृत्तियों की छानबीन करानेवाली पुस्तक, जिसमें गुणदोष-कथन भी आ जाता था, स्थायी साहित्य में स्थान पाती थी। समालोचना के दो प्रधान मार्ग होते हैं––निर्णात्मक (Judicial Method) व्याख्यात्मक (Inductive Criticism)[२]। निर्णयात्मक आलोचना किसी रचना के गुण-दोष निरूपित कर उसका मूल्य निर्धारित करती है। उसमें लेखक या कवि की कहीं प्रशंसा होती हैं, कहीं निंदा। व्याख्यात्मक आलोचना किसी ग्रंथ में आई हुई बातों को एक व्यवस्थित रूप में सामने रखकर उनका अनेक प्रकार से स्पष्टीकरण करती है। यह मूल्य निर्धारित करने नहीं जाती। ऐसी आलोचना अपने शुद्ध रूप में काव्य-वस्तु ही तक परिमित रहती है अर्थात् उस के अंग-प्रत्यंग की विशेषताओं को ढूंढ़ निकालने और भावों की व्यवच्छेदात्मक व्याख्या करने में तत्पर रहती है। पर इस व्याख्यात्मक समालोचना के अंतर्गत बहुत सी बाहरी बातों का भी विचार होता [ ५२९ ]है––जैसे, सामाजिक, राजनीतिक, सांप्रदायिक परिस्थिति आदि का प्रभाव। ऐसी समीक्षा को 'ऐतिहासिक समीक्षा' (Historical Criticism) कहते हैं। इसका उद्देश्य यह निर्दिष्ट करना होता है कि किसी रचना का उसी प्रकार की और रचनाओं से क्या संबंध है और उसका साहित्य की चली आती हुई परंपरा में क्या स्थान है। बाह्य पद्धति के अंतर्गत ही कवि के जीवनक्रम और स्वभाव आदि के अध्ययन द्वारा उसकी अंतर्वृत्तियों का सूक्ष्म अनुसंधान भी है, जिसे "मनोवैज्ञानिक आलोचना" (Psychological Criticism) कहते है। इनके अतिरिक्त दर्शन, विज्ञान आदि की दृष्टि से समालोचना की और भी कई पद्धतियाँ हैं और हो सकती हैं। इस प्रकार समालोचना के स्वरूप का विकास योरप में हुआ।

केवल निर्णयात्मक समालोचना की चाल बहुत कुछ उठ गई है। अपनी भली बुरी रुचि के अनुसार कवियों की श्रेणी बाँधना, उन्हें नंबर देना अब एक बेहूदः बात समझी जाती है[३]

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे हिंदी-साहित्य में समालोचना पहले पहल केवल गुण-दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई। लेखों के रूप में इसका सूत्रपात बाबू हरिश्चंद्र के समय में ही हुआ। लेखों के रूप में पुस्तकों की विस्तृत समालोचना उपाध्याय पंडित बदरीनायण चौधरी ने अपनी "आनंदकादंबिनी" में शुरू की। लाला श्रीनिवासदास के "संयोगिता स्वयंवर" नाटक की बड़ी विशद और कड़ी आलोचना, जिसमें दोषों का उद्घाटन बड़ी बारीकी से किया गया था, उक्त पत्रिका में निकली थी। पर किसी ग्रंथकार के गुण अथवा दोष ही दिखाने के लिये कोई पुस्तक भारतेंदु के समय में न निकली थी। इस प्रकार की पहली पुस्तक पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी की "हिंदी कालिदास की आलोचना" थी जो इस द्वितीय उत्थान के आरंभ में ही निकली। इसमें लाला सीताराम बी॰ ए॰ के अनुवाद किए हुए नाटकों के भाषा तथा भाव संबंधी दोष बड़े विस्तार से दिखाए गए हैं। यह अनुवादों की समालोचना थी, [ ५३० ] अतः भाषा की त्रुटियों और मूल भाव के विपर्य्यय आदि के आगे जा ही नहीं सकती थी। दूसरी बात यह कि इसमें दोषों का ही उल्लेख हो सका, गुण नहीं ढूँढ़े गए।

इसके उपरांत द्विवेदीजी ने कुछ संस्कृत कवियों को लेकर दूसरे ढंग की––अर्थात् विशेषता-परिचायक––समीक्षाएँ भी निकालीं। इस प्रकार की पुस्तकों में "विक्रमांकदेव-चरितचर्चा" और "नैषधचरित-चर्चा" मुख्य है। इनमें कुछ तो पंडित-मंडली में प्रचलित रूढ़ि के अनुसार चुने हुए श्लोकों की खूबियों पर साधुवाद है (जैसे, क्या उत्तम उत्प्रेक्षा है!) और कुछ भिन्न-भिन्न विद्वानों के मतों का संग्रह। इस प्रकार की पुस्तकों से संस्कृत न जानने वाले हिंदी-पाठकों को दो तरह की जानकारी हासिल होती है––संस्कृत के किसी कवि की कविता किस ढंग की है, और वह पंडितों और विद्वानों के बीच कैसी समझी जाती है। द्विवेदीजी की तीसरी पुस्तक "कालिदास की निरंकुशता" में भाषा और व्याकरण के वे व्यतिक्रम इकट्ठे किए गए हैं जिन्हें संस्कृत के विद्वान् लोग कालिदास की कविता में बताया करते हैं। यह पुस्तक हिंदी वालों के या संस्कृतवालों के फायदे के लिये लिखी गई, यह ठीक ठीक नहीं समझ पड़ता। जो हो, इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्लेवालों को कुछ परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए स्वतंत्र समालोचना के रूप में नहीं।

यद्यपि द्विवेदीजी ने हिंदी के बड़े-बड़े कवियों को लेकर गंभीर साहित्य समीक्षा का स्थायी साहित्य नहीं प्रस्तुत किया, पर नई निकली पुस्तकों की भाषा आदि की खरी आलोचना करके हिंदी-साहित्य का बड़ा भारी उपकार किया। यदि द्विवेदीजी न उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित, व्याकरण-विरुद्ध और ऊटपटाँग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती। उनके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया।

कवियों का बड़ा भारी इति-वृत्त-संग्रह (मिश्रबंधु-विनोद) तैयार करने के पहले मिश्रबंधुओं ने "हिंदी नवरत्न" नामक समालोचनात्मक ग्रंथ निकाला था [ ५३१ ] जिसमें सबसे बढ़कर नई बात यह थी कि 'देव' हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं। हिंदी के पुराने कवियों को समालोचना के लिये सामने लाकर मिश्रबंधुओं ने बेशक बड़ा जरूरी काम किया। उनकी बातें समालोचना कही जा सकती हैं या नहीं, यह दूसरी बात है। रीतिकाल के भीतर यह सूचित किया जा चुका कि हिंदी में साहित्य-शास्त्र का वैसा निरूपण नही हुआ जैसा संस्कृत में हुआ। हिंदी के रीति-ग्रंथों के अभ्यास से लक्षणा, व्यंजना, रस आदि के वास्तविक स्वरूप की सम्यक् धारणा नहीं हो सकती। कविता की समालोचना के लिये यह धारणा कितनी आवश्यक है, कहने की जरूरत नहीं। इसके अतिरिक्त उच्च कोटि की आधुनिक शैली की समालोचना के लिये विस्तृत अध्ययन, सूक्ष्म अन्वीक्षण-बुद्धि और मर्मग्राहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है। "कारो कृतहि न मानै" ऐसे-ऐसे वाक्यों को लेकर यह राय जाहिर करना कि "तुलसी कभी राम की निंदा नहीं करते, पर सूर ने दो-चार स्थानों पर कृष्ण के कामों की निंदा भी की है," साहित्य-मर्मज्ञों के निकट क्या समझा जायगा?

"सूरदास प्रभु वै अति खोटे", "कारो कृतहि न मानै" ऐसे ऐसे वाक्यों पर साहित्यिक दृष्टि से जो थोड़ा भी ध्यान देगा, वह जान लेगा कि कृष्ण न तो वास्तव में खोटे कहे गए हैं, न काले कलूटे कृतघ्न। पहला वाक्य सखी की विनोद या परिहास की उक्ति है, सरासर गाली नहीं है। सखी का यह विनोद हर्ष का ही एक स्वरूप है जो उस सखी का राधाकृष्ण के प्रति रति-भाव व्यंजित करता है। इसी प्रकार दूसरा वाक्य विरहाकुल गोपी का वचन है जिससे कुछ विनोद-मिश्रित अमर्ष व्यंजित होता है। यह अमर्ष यहाँ विप्रलंभ शृंगार में रतिभाव का ही व्यंजक है।[४] इसी प्रकार कुछ 'दैन्य' भाव की उक्तियों को लेकर तुलसीदासजी खुशामदी कहे गए हैं। 'देव' को बिहारी से बड़ा सिद्ध करने के लिये बिहारी में बिना दोष के दोष ढूँढ़े गए हैं। 'सक्रोन' को 'संक्रांति' का (संक्रमण तक ध्यान कैसे जा सकता था?) अपभ्रंश समझ आप लोगों ने उसे बहुत बिगाड़ा हुआ शब्द माना है। 'रोज' शब्द 'रुलाई' के अर्थ में कबीर, जायसी आदि पुराने कवियों में न जाने कितना [ ५३२ ]जगह आया है और आगरे आदि के आस-पास अब तक बोला जाता है, पर वह भी 'रोजा' समझा गया हैं। इसी प्रकार की वे-सिर-पैर की बातों से पुस्तक भरी है। कवियों की विशेषताओं के मार्मिक निरूपण की आशा से जो इसे खोलेगा, वह निराश ही होगा।

इसके उपरांत पंडित् पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी पर एक अच्छी आलोचनात्मक पुस्तक निकाली। इसमें उस साहित्य-परंपरा को बहुत ही अच्छा उद्घाटन है जिसके अनुकरण पर बिहारी ने अपनी प्रसिद्ध सतसई की रचना की। 'आर्यासप्तशती' और 'गाथासप्तशती' के बहुत से पद्यों के साथ बिहारी के दोहों का पूरा मेल दिखाकर शर्मा जी ने बड़ी विद्वत्ता के साथ एक चली आती हुई साहित्यिक परंपरा के बीच बिहारी को रखकर दिखाया। किसी चली आती हुई साहित्यिक परंपरा का उद्घाटन साहित्य-समीक्षक का एक भारी कर्तव्य हैं। हिंदी के दूसरे कवियों के मिलते-जुलते पद्यों की बिहारी के दोहों के साथ तुलना करके शर्मा जी ने तारतम्यिक आलोचना का शौक पैदा किया। इस पुस्तक में शर्माजी ने उन आक्षेपों का भी बहुत कुछ परिहार किया जो देव को ऊँचा सिद्ध करने के लिये बिहारी पर किए गए थे। हो सकता है कि शर्माजी ने भी बहुत से स्थलो पर बिहारी का पक्षपात किया हो, पर उन्होंने जो कुछ किया हैं वह अनूठे ढंग से किया है। उनके पक्षपात का भी साहित्यिक मूल्य हैं।

यहाँ पर यह बात सूचित कर देना आवश्यक हैं कि शर्माजी की यह समीक्षा भी रूढ़िगत (Conventional) है। दूसरे शृंगारी कवियों से अलग करनेवाली बिहारी की विशेषताओं के अन्वेषण और अंतःप्रवृत्तियों के उद्घाटन का––जो आधुनिक समालोचना का प्रधान लक्ष्य समझा जाता है––प्रयत्न इससे नही हुआ है। एक खटकनेवाली बात है, बिना जरूरत के जगह जगह चुहलबाजी और शाबाशी का महफिलो तर्ज।

शर्मा जी की पुस्तक से दो बातें हुई। एक तो "देव बड़े कि बिहारी" यह भद्दा झगड़ा सामने आया, दूसरे "तुलानात्मक समालोचना" के पीछे लोग बेतरह पड़े। [ ५३३ ]"देव और बिहारी" के झगड़े को लेकर पहली पुस्तक पं॰ कृष्णबिहारी मिश्र बी॰ ए॰ एल-एल॰ बी॰ की मैदान में आई। इस पुस्तक में बड़ी शिष्टता, सभ्यता और मार्मिकता के साथ दोनो बड़े कवियों की भिन्न भिन्न रचनाओं का मिलान किया गया है। इसमें जो बातें कही गई है, वे बहुत कुछ साहित्यिक विवेचन के साथ कही गई है, 'नवरत्न' की तरह यों ही नहीं कही गई है। यह पुरानी परिपाटी की साहित्य-समीक्षा के भीतर अच्छा स्थान पाने के योग्य है। मिश्रबंधुओं की अपेक्षा पं॰ कृष्णबिहारीजी साहित्यिक आलोचना के कही अधिक अधिकारी कहे जा सकते है। "देव और बिहारी" के उत्तर में लाला भगवानदीनजी ने "बिहारी और देव" नाम की पुस्तक निकाली जिसमे उन्होंने मिश्रबंधुओं के भद्दे आक्षेपों का उचित शब्दों से जवाब देकर पंडित कृष्णबिहारीजी की बातों पर भी पूरा विचार किया। अच्छा हुआ कि 'छोटे बड़े' के इस भद्दे झगड़े की शोर अधिक लोग आकर्षित नहीं हुए।

अब "तुलनात्मक समालोचना" की बात लीजिए। उसको ओर लोगो का कुछ आकर्षण देखते ही बहुतों ने 'तुलना' को ही समालोचना का चरम लक्ष्य समझ लिया और पत्रिकायों में तथा इधर उधर भी लगे भिन्न भिन्न कवियों के पद्यों को लेकर मिलान करने। यहाँ तक कि जिन दो पद्यों में वास्तव में कोई भाव-साम्य नहीं, उनमें भी बादरायण संबंध स्थापित करके लोग इस "तुलनात्मक समालोचना" के मैदान में उतरने का शोक जाहिर करने लगे। इसका असर कुछ समालोचकों पर भी पड़ा। पंडित् कृष्णबिहारी मिश्रजी ने जो "मतिराम ग्रंथावली" निकाली, उसकी भूमिका का आवश्यकता से अधिक अंश उन्होने इस 'तुलानात्मक आलोचना' को ही अर्पित कर दिया; और बातों के लिये बहुत कम जगह रखी।

द्वितीय उत्थान के भीतर 'समालोचना' की यद्यपि बहुत कुछ उन्नति हुई, पर उसका स्वरूप प्रायः रूढ़िगत (Conventional) ही रहा कवियों की विशेषताओं का अन्वेषण और उनकी अंतःप्रकृति की छानबीन करनेवाली उच्च कोटि की समालोचना का प्रारंभ तृतीय उत्थान में जाकर हुआ।


[ ५३४ ]
गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति
तृतीय उत्थान
(संवत् १९७५ से)

इस तृतीय उत्थान में हम वर्त्तमान काल में पहुँचते हैं जो अभी चल रहा है। इसमें आकर हिंदी गद्य-साहित्य के भिन्न भिन्न क्षेत्रों के भीतर अनेक नए रास्ते खुले जिनमें से कई एक पर विलायती गलियों के नाम की तख्तियाँ भी लगीं। हमारे गद्य-साहित्य का यह काल अभी हमारे सामने है। इसके भीतर रहने के कारण इसके संबंध में हम या हमारे सहयोगी जो कुछ कहेंगे वह इस काल का अपने संबंध में अपना निर्णय होगा। सच पूछिए तो वर्त्तमान काल, जो अभी चल रहा है, हमसे इतना दूर पीछे नहीं छूटा है कि इतिहास के भीतर आ सके। इससे यहाँ आकर हम अपने गद्य-साहित्य से विविध अंगों का संक्षिप्त विवरण ही इस दृष्टि से दे सकते हैं कि उनके भीतर की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियाँ लक्षित हो जायँ।

सब से पहले ध्यान लेखकों और ग्रंथकारों की दिन दिन बढ़ती संख्या पर जाता है। इन बीस इक्कीस वर्षों के बीच हिंदी-साहित्य का मैदान काम करने वालो से पूरा पूरा भर गया, जिससे उसके कई अंगों की बहुत अच्छी पूर्त्ति हुई, पर साथ ही बहुत सी फालतू चीजें भी इधर उधर बिखरीं। जैसे भाषा का पूरा अभ्यास और उसपर अच्छा अधिकार रखनेवाले, प्राचीन और नवीन साहित्य के स्वरूप को ठीक ठीक परखनेवाले अनेक लेखकों द्वारा हमारा साहित्य पुष्ट और प्रौढ़ हो चला, वैसे ही केवल पाश्चात्य साहित्य के किसी कोने में आँख खोलनेवाले और योरप की हर एक नई-पुरानी बात को "आधुनिकता" कहकर चिल्लानेवाले लोगों के द्वारा बहुत कुछ अनधिकार चर्चा––बहुत-सी अनाड़ीपन [ ५३५ ] की बातें––भी फैल चलीं। इस दूसरे ढाँचे के लोग योरप की सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक परिस्थितियों के अनुसार समय समय पर उठे हुए नाना वादों और प्रवादों को लेकर और उनकी उक्तियों के टेढ़े-सीधे अनुवाद की उद्धरणी करके ही अपने को हमारे वास्तविक साहित्य-निर्माताओं से दस हाथ आगे बता चले।

इनके कारण हमारा सच्चा साहित्य रुका तो नहीं, पर व्यर्थ की भीड़-भाड़ के बीच ओट में अवश्य पड़ता रहा। क्या नाटक, क्या उपन्यास, क्या निबंध क्या समालोचना, क्या काव्य-स्वरूप-मीमांसा, सब क्षेत्रों के भीतर कुछ विलायती मंत्रों का उच्चारण सुनाई पड़ता आ रहा है। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो अपने जन्म-स्थान में अब नहीं सुनाई पड़ते। हँसी तब आती है जब कुछ ऐसे व्यक्ति भी 'मध्ययुग की प्रवृत्ति', 'क्लासिकल', 'रोमांटिक' इत्यादि शब्दों से विभूषित अपनी आलोचना द्वारा 'नए युग की वाणी' का संचार समझाने खड़े होते हैं, जो इन शब्दों का अर्थ जानना तो दूर रहा, अँगरेजी भी नहीं जानते। उपन्यास के क्षेत्र में देखिए तो एक ओर प्रेमचंद ऐसे प्रतिभाशाली उपन्यासकार हिंदी की कीर्ति का देश-भर में प्रसार कर रहे हैं; दूसरी ओर कोई उनकी भर-पेट निंदा करके टाल्सटॉय का 'पापी के प्रति घृणा नहीं दया' वाला सिद्धांत लेकर दौड़ता है। एक दूसरा आता है जो दयावाले सिद्धांत के विरुद्ध योरप का साम्यवादी सिद्धांत ला भिड़ाता है और कहता है कि गरीबों का रक्त चूसकर उन्हें अपराधी बनाना और फिर बड़ा बनकर दया दिखाना तो उच्च वर्ग के लोगों की मनोवृत्ति है। वह बड़े जोश के साथ सूचित करता है कि इस मनोवृत्ति का समर्थन करनेवाला साहित्य हमें नहीं चाहिए; हमें तो ऐसा साहित्य चाहिए जो पद-दलित अकिंचनों में रोष, विद्रोह और आत्म-गौरव का संचार करे और उच्च वर्ग के लोगों में नैराश्य, लज्जा और ग्लानि का।

एक ओर स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी अपने नाटकों द्वारा यह साफ झलका देते हैं कि प्राचीन ऐतिहासिक वृत्त लेकर चलनेवाले नाटकों की रचना के लिये काल-विशेष के भीतर के तथ्य बटोरनेवाला कैसा विस्तृत अध्ययन और उन तथ्यों द्वारा, अनुमित सामाजिक स्थिति के सजीव ब्योरे सामने खड़ा करनेवाली कैसी सूक्ष्म कल्पना चाहिए; दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे नाटकों के प्रति उपेक्षा [ ५३६ ] का-सा भाव दिखाते हुए बर्नर्ड शा आदि का नाम लेते हैं और कहते हैं कि आधुनिक युग 'समस्या नाटकों' का है। यह ठीक है कि विज्ञान की साधना द्वारा संसार के वर्त्तमान युग का बहुत-सा रूप योरप का खड़ा किया हुआ है। पर इसका क्या यह मतलब है कि युग का सारा रूप-विधान योरप ही करे और हम आराम से जीवन के सब क्षेत्रों में उसी के दिए हुए रूपों को ले लेकर रूपवान् बनते चलें? क्या अपने स्वतंत्र स्वरूप-विकास की हमारी शक्ति सब दिन के लिये मारी गई?

हमारा यह तात्पर्य नहीं कि योरप के साहित्य-क्षेत्र में उठी हुई बातों की चर्चा हमारे यहाँ न हो। यदि हमें वर्त्तमान जगत् के बीच से अपना रास्ता निकालना है तो वहाँ के अनेक 'वादों' और 'प्रवृत्तियों' तथा उन्हें उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों का पूरा परिचय हमें होना चाहिए। उन वादों की चर्चा अच्छी तरह हो, उनपर पूरा विचार हो और उनके भीतर जो थोड़ा-बहुत सत्य छिपा हो उसका ध्यान अपने साहित्य के विकास में रखा जाय। पर उनमें से कभी इसको, कभी उसको, यह कहते हुए सामने रखना कि वर्त्तमान विश्व-साहित्य का स्वरूप यही है जिससे हिंदी-साहित्य अभी बहुत दूर हैं, अनाड़ीपन ही नहीं जंगलीपन भी है।

आज-कल भाषा की भी बुरी दशा है। बहुत-से लोग शुद्ध भाषा लिखने का अभ्यास होने के पहले ही बड़े-बड़े पोथे लिखने लगते हैं जिनमें व्याकरण की भद्दी भूलें तो रहती ही हैं, कहीं कहीं वाक्य-विन्यास तक ठीक नहीं रहता है। यह बात और किसी भाषा के साहित्य में शायद ही देखने को मिले। व्याकरण की भूलों तक ही बात नहीं है। अपनी भाषा की प्रकृति की पहचान न रहने के कारण कुछ लोग इसका स्वरूप भी बिगाड़ चले हैं। वे अँगरेजी के शब्द, वाक्य और मुहावरे तक ज्यों-के-त्यों उठाकर रख देते हैं; यह नहीं देखने जाते कि भाषा हिंदी हुई या और कुछ। नीचे के अवतरणों से यह बात स्पष्ट हो जायगी––

(१) उनके हृदय में अवश्य ही एक ललित कोना होगा जहाँ रतन ने स्थान पा लिखा होगा। (कुंडलीचक्र उपन्यास) [ ५३७ ] (२) वह उन लोगों में से न था जो घास को थोड़ी देर भी अपने पैरों तले उगने देने हों। (वही)

(३) क्या संभव नहीं हैं कि भारत के बड़े बड़े स्वार्थ कुछ लोगों की नामावली उपस्थित करें। (आज, २८, अक्टूबर, १९३९)


उपन्यास-कहानी

इस तृतीय उत्थान में हमारा उपन्यास-कहानी साहित्य ही सबसे अधिक समृद्ध हुआ। नूतन विकास लेकर आनेवाले प्रेमचंद जो कर गए वह तो हमारे साहित्य की एक निधि ही है, उनके अतिरिक्त पं॰ विश्वंभरनाथ कौशिक, बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव, श्रीजैनेंद्रकुमार ऐसे सामाजिक उपन्यासकार तथा बा॰ वृंदावनलाल वर्मा ऐसे ऐतिहासिक उपन्यासकार उपन्यास-भंडार की बहुत सुंदर पूर्ति करते जा रहे हैं। सामाजिक उपन्यासों में देश में चलनेवाले राष्ट्रीय तथा आर्थिक आदोलनों का भी आभास बहुत कुछ रहता है। तअल्लुकेदारों के अत्याचार, भूखे किसानों की दारुण दशा के बड़े चटकीले चित्र उनमें प्रायः पाए जाते हैं। इस संबंध में हमारा केवल यही कहना है कि हमारे निपुण उपन्यासकारों को केवल राजनीतिक दलों द्वारा प्रचारित बातें लेकर ही न चलना चाहिए, वस्तुस्थिति पर अपनी व्यापक दृष्टि भी डालनी चाहिए। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अँगरेजी राज्य जमने पर भूमि की उपज या आमदनी पर जीवन निर्वाह करनेवालों (किसानों और जमीदारों दोनों) की और नगर के रोजगारियों वा महाजनों की परस्पर क्या स्थिति हुई। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि राजकर्मचारियों का इतना बड़ा चक्र ग्रामवासियों के सिर पर ही चला करता है, व्यापारियों का वर्ग उससे प्रायः बचा रहता है। भूमि ही यहाँ सरकारी आय का प्रधान उद्गम बना दी गई है। व्यापार-श्रेणियों को यह सुभीता विदेशी व्यापार को फूलता-फलता रखने के लिये दिया गया था, जिससे उनकी दशा उन्नत होती आई और भूमि से संबंध रखनेवाले सब वर्गों की––क्या जमींदार, क्या किसान, क्या मजदूर––गिरती गई।

जमींदारों के अंतर्गत हमें ९८ प्रतिशत साधारण जमींदारों को लेना चाहिए; २ प्रतिशत बड़े बड़े तअल्लुकेदारों को नहीं। किसान और जमींदार एक ओर [ ५३८ ] तो सरकार की भूमि-कर-संबंधी नीति से पिसते आ रहे हैं, दूसरी ओर उन्हें भूखों मारनेवाले नगरों के व्यापारी हैं जो इतने घोर श्रम से पैदा की हुई भूमि की उपज का भाव अपने लाभ की दृष्टि से घटाते-बढ़ाते रहते हैं। भाव किसानों, जमींदारों के हाथ में नहीं। किसानों से बीस सेर के भाव से अन्न लेकर व्यापारी सात आठ सेर के भाव से बेचा करते हैं। नगरों के मजदूर तक पान-बीड़ी के साथ सिनेमा देखते हैं, गाँव के जमींदार और किसान कष्ट से किसी प्रकार दिन काटते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि हमारे उपन्यासकारों को देश के वर्तमान जीवन के भीतर अपनी दृष्टि गड़ाकर आप देखना चाहिए, केवल राजनीतिक दलों की बातों को लेकर ही न चलना चाहिए। साहित्य को राजनीति के ऊपर रहना चाहिए, सदा उसके इशारों पर ही न नाचना चाहिए।

वर्तमान जगत् में उपन्यासों की बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है, उसके भिन्न भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं, उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते, आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते हैं। समाज के बीच खान-पान के व्यवहार तक में जो भद्दी नकल होने लगी है––गर्मी के दिनों में भी सूट बूट कसकर टेबुलों पर जो प्रीति-भोज होने लगा है––उसको हँसकर उड़ाने की सामर्थ्य उपन्यासों में ही है। लोक या किसी जन-समाज के बीच काल की गति के अनुसार जो गूढ़ और चिंत्य परिस्थितियाँ खड़ी होती रहती हैं। उनको गोचर रूप में सामने लाना और कभी कभी निस्तार का मार्ग भी प्रत्यक्ष करना उपन्यासों का काम है।

लोक की सामयिक परिस्थितियों तक न रहकर जीवन के नित्य स्वरूप की विषमताएँ और उलझनें सामने रखनेवाले उपन्यास भी योरप में लिखे गए हैं और लिखे जा रहे हैं। जीवन में कुछ बातों का जो मूल्य चिरकाल से निर्धारित चला आ रहा है––जैसे पाप और पुण्य का––उनकी मीमांसा में भी उपन्यास प्रवृत्त हुआ है। इस प्रकार उपन्यासों का लक्ष्य वहाँ क्रमशः ऊँचा होता गया जिससे जीवन के नित्य स्वरूप का चिंतन और अनुभव करनेवाले बड़े बड़े कवि इधर उपन्यास के क्षेत्र में भी काम करते दिखाई देते हैं। बड़े [ ५३९ ]हर्ष की बात है कि इमारे हिंदी-साहित्य में भी बा॰ भगवतीचरण वर्मा ने 'चित्रलेखा' नाम का इस ढंग का एक सुंदर उपन्यास प्रस्तुत किया है।

द्वितीय उत्थान के भीतर बँगला से अनूदित अथवा उनके आदर्श पर लिखे गए उपन्यासों में देश की सामान्य जनता के गार्हस्थ्य और पारिवारिक जीवन के बड़े मार्मिक और सच्चे चित्र रहा करते थे। प्रेमचंदजी के उपन्यासों में भी निम्न और मध्य श्रेणी के गृहस्थों के जीवन का बहुत सच्चा स्वरूप मिलता रहा है पर इधर बहुत से ऐसे उपन्यास सामने आ रहे हैं जो देश के सामान्य भारतीय जीवन से हटकर बिल्कुल योरपीय रहन सहन के साँचे में ढले हुए बहुत छोट-से वर्ग का जीवन-चित्र ही यहाँ से वहाँ तक अंकित करते हैं। उनसे मिस्टर, मिसेज, मिस, प्रोफेसर, होस्टल, क्लब, ड्राइंगरूम, टेनिस, मैच, सिनेमा, मोटर पर हवाखोरी, कॉलेज की छात्रावस्था के बीच के प्रणय-व्यवहार इत्यादि ही सामने आते हैं। यह ठीक है कि अँगरेजी शिक्षा के दिन दिन बढ़ते हुए प्रचार से देश के आधुनिक जीवन का यह भी एक पक्ष हो गया है। पर यह सामान्य पक्ष नहीं है। भारतीय रहन सहन, खान पान, रीति-व्यवहार प्रायः सारी जनता के बीच बने हुए हैं। देश के असली सामाजिक और घरेलू जीवन को दृष्टि से ओझल करना हम अच्छा नहीं समझते।

यहाँ तक तो सामाजिक उपन्यासों की बात हुई। ऐतिहासिक उपन्यास बहुत कम देखने में आ रहे हैं। एक प्रकार से तो यह अच्छा है। जब तक भारतीय इतिहास के भिन्न भिन्न कालों की सामाजिक स्थिति और संस्कृति का अलग अलग विशेष रूप से अध्ययन करनेवाले और उस सामाजिक स्थिति के सूक्ष्म ब्योरों की अपनी ऐतिहासिक कल्पना द्वारा उद्भावना करनेवाले लेखक तैयार न हों तब तक ऐतिहासिक उपन्यासों में हाथ लगाना ठीक नहीं। द्वितीय उत्थान के भीतर जो कई ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए या बंग भाषा से अनुवाद करके लाए गए, उनमें देश-काल की परिस्थिति का अध्ययन नहीं पाया जाता है अब किसी ऐतिहासिक उपन्यास में यदि बाबर के सामने हुक्का रखा जायगा, गुप्त-काल में गुलाबी और फीरोजी रंग की साड़ियाँ, इत्र, मेज पर सजे गुलदस्ते, झाड़ फानूस लाए जाएँगे, सभा के बीच खड़े होकर व्याखान दिए जाएँगे, और उन पर करतल-ध्वनि होगी; बात बात, में 'धन्यवाद', 'सहानुभूति' ऐसे [ ५४० ]शब्द तथा 'सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना' ऐसे फिकरे पाए जायँगे तो, काफी हँसनेवाले और नाक–भौं सुकोड़नेवाले मिलेंगे। इससे इस जमीन पर बहुत समझ-बूझकर पैर रखना होगा।

ऐतिहासिक उपन्यास जिस ढंग से लिखना चाहिए, यह प्रसिद्ध पुरातत्वविद् श्रीराखालदास बंद्योपाध्याय ने अपने 'करुणा', 'शशांक' और 'धर्मपाल' नामक उपन्यासों द्वारा अच्छी तरह दिखा दिया। प्रथम दो के अनुवाद-हिंदी में हो गए हैं। खेद है कि इस समीचीन पद्धति पर प्राचीन हिंदू साम्राज्य-काल के भीतर की कथा-वस्तु लेकर मौलिक उपन्यास न लिखे गए। नाटक के क्षेत्र में अलबत स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी ने इस पद्धति पर कई सुंदर ऐतिहासिक नाटक लिखे। इसी पद्धति पर उपन्यास लिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करनेवाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही वे चल बसे।

वर्तमानकाल में ऐतिहासिक उपन्यास के क्षेत्र में केवल बा॰ वृंदावनलाल वर्मा दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने भारतीय इतिहास के मध्ययुग के प्रारंभ में बुंदेलखंड की स्थिति लेकर 'गढ़कुंडार' और 'विराटा की पद्मिनी' नामक दो बड़े सुदर उपन्यास लिखे हैं। विराटा की पद्मिनी की कल्पना तो अत्यंत रमणीय है।

उपन्यासों के भीतर लंबे-लंबे दृश्य-वर्णनो तथा धाराप्रवाह भाव-व्यंजनापूर्ण भाषण की प्रथा जो पहले थी वह योरप में बहुत कुछ छाँट दी गई, अर्थात् वहाँ उपन्यासों से काव्य का रंग, बहुत कुछ हटा दिया गया। यह बात वहाँ नाटक और उपन्यास के क्षेत्र मे 'यथातथ्यवाद' की प्रवृत्ति के साथ हुई। इससे उपन्यास-की अपनी निज की विशिष्टता निखरकर झलकी, इसमें कोई संदेह नहीं। वह विशिष्टता यह है कि घटनाएँ और पात्रों के क्रियाकलाप ही भावों को बहुत-कुछ व्यक्त कर दे, पात्रों के प्रगल्भ भाषण की उतनी अपेक्षा न रहे! पात्रों के थोड़े से मार्मिक शब्द ही हृदय पर पड़नेवाले प्रभाव को पूर्ण कर दें। इस तृतीय उत्थान का आरंभ होते होते हमारे हिंदी-साहित्य में उपन्यास की [ ५४१ ]यह पूर्ण विकसित श्रीर परिष्कृत स्वरूप लेकर स्वर्गीय प्रेमचंदजी आए। द्वितीय उत्थान के मौलिक उपन्यासकारों में शील-वैचित्र्य की उद्भावना नहीं के बराबर थी। प्रेमचंदजी के ही कुछ पत्रकारों में ऐसे स्वाभाविक ढाँचे की व्यक्तिगत विशेषताएँ मिलने लगीं जिन्हें सामने पाकर अधिकांश लोगों को यह भासित हो कि कुछ इसी ढंग की विशेषतावाले व्यक्ति हमने कहीं न कहीं देखे हैं। ऐसी व्यक्तिगत विशेषता ही सच्ची विशेषता है, जिसे झूठी विशेषता और वर्गगत विशेषता दोनों में अलग समझाना चाहिए। मनुष्य-प्रकृति की व्यक्तिगत विशेषताओं का संगठन भी प्रकृति के और विधानों के समान कुछ ढरो पर होता है, अतः ये विशेषताएँ बहुतों को दिखाई पड़ती रहती है चाहे वे उन्हें शब्दों में व्यक्त न कर सकें। प्रेमचंद की सी चलती और-पात्रों के अनुरूप रंग बदलनेवाली भाषा भी पहले नहीं देखी गई थी।

अतः प्रकृति या शील के उत्तरोत्तर उद्घाटन का कौशल भी प्रेमचंदजी के दो एक उपन्यास में, विशेषत: 'गबन' में देखने में आया। सत् और-असत्, भला और बुरा, सर्वथा भिन्न वर्ग करके पात्र निर्माण करने की अस्वाभाविक प्रथा भी इस तृतीय उत्थान में बहुत कुछ कम हुई हैं, पर मनोवृत्ति की अस्थिरता का वह चित्रण अभी बहुत कम दिखाई पड़ा है जिसके अनुसार कुछ परिस्थितियों में मनुष्य अपने शील-स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध आचरण कर जाता है।

उपन्यासों से भी प्रचुर विकास हिदी में छठी कहानियों का हुआ है। कहानियाँ बहुत तरह की लिखी गईं; उनके अनेक प्रकार के रूप रंग प्रकट हुए। इसमें तो कोई संदेह नहीं, कि उपन्यास और छोटी कहानी दोनों के ढाँचे हमने पश्चिम से लिए है। है भी ये ढाँचे बड़े सुंदर। हम समझते है कि हमें ढाँचों ही तक रहना चाहिए। पश्चिम में भिन्न भिन्न दृष्टियों से किए हुए उनके वर्गीकरण, उनके संबंध में निरूपित तरह तरह के सिद्धांत भी हम समेटते चले, इसकी कोई आवश्यक नहीं दिखाई देती। उपन्यासों और छोटी कहानियों का हमारे वर्तमान हिंदी-साहित्य में इतनी अनेकरूपता के साथ विकास हुआ है कि उनके संबंध में हम अपने कुछ स्वतन्त्र सिद्धांत स्थिर कर सकते है, अपने ढंग पर उनके भेद-उपभेद निरूपित कर सकते हैं। इसकी आवश्यकता समझने के [ ५४२ ]लिए एक उदाहरण लिजिए। छोटी कहानियों के जो आदर्श और सिद्धांत अँगरेजी की अधिकतर पुस्तकों में दिए गए हैं, उनके अनुसार छोटी कहानियों में शील या चरित्र-विकास का अवकाश नहीं रखता। पर प्रेमचंदजी की एक कहानी है 'बड़े भाई साहब' जिसमें चरित्र के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। जिस संग्रह के भीतर यह कहानी है, उसकी भूमिका में प्रेमचंदजी ने कहानी में चरित्र-विकास को बड़ा भारी कौशल कहा है। छोटी कहानियों के जो छोटे-मोटे संग्रह निकलते है उनमें भूमिका के रूप में अँगरेजी पुस्तकों से लेकर कुछ सिद्धांत प्रायः रख दिए जाते हैं। यह देखकर दुःख होता है, विशेष करके तब, जब उन सिद्धांतों से सर्वथा स्वतंत्र कई सुंदर कहानियाँ उन संग्रहों के भीतर ही मिल जाती है।

उपन्यास और नाटक दोनों से काव्यत्व का अवयव बहुत कुछ निकालने की प्रवृत्ति किस प्रकार योरप में हुई है और दृश्य-वर्णन, प्रगल्भ भाव-व्यंजना, आलंकारिक चमत्कार आदि किस प्रकार हटाए जाने लगे हैं, इसका उल्लेख हम अभी कर आए है।[५]। उनके अनुसार इस तृतीय उत्थान में हमारे उपन्यासों के ढाँचों में भी कुछ परिवर्तन हुआ। परिच्छेदों के आरंभ में लंबे लंबे काव्यमय दृश्य-वर्णन, जो पहले रहा करते थे, बहुत कम हो गए, पात्रों के भाषण का ढंग भी कुछ अधिक स्वाभाविक और व्यवहारिक हुआ। उपन्यास को काव्य के निकट रखनेवाले पुराना ढाँचा एकबारगी छोड़ नहीं दिया गया है। छोड़ा क्यों जाय? उसके भीतर हमारे भारतीय कथात्मक गद्य-प्रबंधों (जैसे, कादंबरी, हर्षचरित) के स्वरूप की परंपरा छिपी हुई है। योरप उसे छोड़ रहा है, छोड़ दे। यह कुछ आवश्यक नहीं कि हम हर एक कदम उसी के पीछे पीछे रखे। अब यह आदत छोड़नी चाहिए कि कहीं हार्डी का कोई उपन्यास पढ़ा और उसमें अवसाद या 'दुःखवाद' की गंभीर छाया देखी तो चट बोल उठे कि अभी हिंदी के उपन्यासों को यहाँ तक पहुँचने में बहुत देर है। बौद्धों के दुःखवाद का संस्कार किस प्रकार जर्मनी के शोपन-हावर से होता हुआ हार्डी तक पहुँचा, यह भी जानना चाहिए। [ ५४३ ]योरप में नाटक और उपन्यास से काव्यत्व निकाल बाहर करने का जो प्रयत्न हुआ है, उसका कुछ कारण है। वहाँ जब फ्रांस और इटली के कला, वादियों दारा काव्य भी वेल-बूटे की नक्काशी की तरह जीवन से सर्वथा पृथक् कहा जाने लगा, तब जीवन को ही लेकर चलनेवाले नाटक और उपन्यास का उससे सर्वथा पृथक् समझा जाना स्वाभाविक ही था। पर इस अत्यंत पार्थक्य का आधार प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जगत् और जीवन के नाना पक्षों को लेकर प्रकृत काव्य भी बराबर चलेगा और उपन्यास भी। एक चित्रण और भाव-व्यंजना को प्रधान रखेगा, दूसरा घटनाओं के संचरण द्वारा विविध परिस्थितियों की उद्भावना को। उपन्यास न जाने कितनी ऐसी परिस्थितियाँ सामने लाते है जो काव्य-धारण के लिये प्रकृत मार्ग खोलती है।

उपन्यासों और कहानियों के समाजिक और ऐतिहासिक ये दो भेद तो बहुत प्रत्यक्ष है। ढाँचों के अनुसार जो तीन मुख्य भेद––कथा के रूप में, आत्मकथा के रूप में और चिट्टी-पत्री के रूप में––किए गए है उनमें से अधिकतर उदाहरण तो प्रथम के ही सर्वत्र हुआ करते हैं। द्वितीय के उदाहरण भी अब हिंदी में काफी है, जैसे, 'दिल की आग' (जी॰ पी॰ श्रीवास्तव)। तृतीय के उदाहरण हिंदी में बहुत कम पाए जाते है, जैसे 'चंद हसीनों के खतूत'। इस ढाँचे में उतनी सजीवता भी नही।

कथा-वस्तु के स्वरूप और लक्ष्य के अनुसार हिंदी के अपने वर्तमान उपन्यासों में हमे ये भेद दिखाई पड़ते है––

(१) घटना-वैचित्र्य-प्रधान अर्थात् केवल कुतूहलजनक, जेसे, जासूसी, और वैज्ञानिक अविष्कारों का चमत्कार दिखानेवाले। इनमें साहित्य का गुण अत्यंत अल्प होता है––केवल इतना ही होता है कि ये आश्चर्य और कुतूहल जगाते है।

(२) मनुष्य के अनेक पारस्परिक संबंधों को मार्मिकता पर प्रधान लक्ष्य रखनेवाले, जैसे, प्रेमचंदजी का 'सेवा-सदन', 'निर्मला', 'गोदान'; श्री विश्वंभर[ ५४४ ] नाथ कौशिक का 'माँ', भिखारिणी', श्री प्रतापनारायण श्रीवास्तव का 'विदा', 'विकास' 'विजय', चतुरसेन शास्त्री का 'हृदय की प्यास'।

(३) समाज के भिन्न भिन्न वर्गों का परस्पर स्थिति और उनके संस्कार चित्रित करनेवाले, जैसे, प्रेमचंदजी का 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि'; प्रसादजी का 'कंकाल' 'तितली'।

(४) अंतर्वृत्ति अथवा शील-वैचित्र्य और उसका विकासक्रम अंकित करानेवाले, जैसे, प्रेमचंदजी का 'गबन'; श्री जैनेंद्रकुमार का 'तपोभूमि', 'सुनीता'।

(५) भिन्न भिन्न जातियों और मतानुयायियों के बीच मनुष्यता के व्यापक-संबंध पर जोर देनेवाले। 'जैसे, राजा राधिकारमणप्रसादसिंह जी का 'राम रहीम'।

(६) समाज के पाखंड-पूर्ण कुत्सित पक्षों का उद्घाटन और चित्रण करनेवाले, जैसे, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' का 'दिल्ली का दलाल', 'सरकार तुम्हारी आँखों में', 'बुधुवा की बेटी'

(७) बाह्य और आभ्यंतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करनेवाले, सुंदर शौर अलंकृत पद-विन्यास युक्त उपन्यास, जैसे स्वर्गीय श्री चंडीप्रसाद 'हृदयेश' का 'मंगल प्रभात'।

अनुसंधान और विचार करने पर इसी प्रकार और दृष्टियों से भी कुछ भेद किए जा सकते हैं। सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के जो आंदोलन देश में चल रहे हैं उनका अभास भी बहुत से उपन्यासों में मिलता है। प्रवीण उपन्यासकार उनका समावेश और बहुत सी बातों की बीच कौशल के साथ करते हैं। प्रेमचंदजी के उपन्यासों और कहानियों में भी ऐसे आंदोलनों के अभास प्रायः मिलते है। पर उनमें भी जहाँ राजनीतिक उद्धार या समाजसुधार का लक्ष्य बहुत स्पष्ट हो गया है वहाँ उपन्यासकार का रूप छिप गया है। और प्रचारक (Propagandist) का रूप ऊपर आ गया।


छोटी कहानियाँ

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, छोटी कहानियों का विकास तो हमारे यहाँ [ ५४५ ] और भी विशद और वितृस्त रूप में हुआ है और उसमें वर्त्तमान कवियों का भी पूरा योग रहा है। उनके इतने रूप-रंग हमारे सामने आए हैं कि वे सब के सब पाश्चात्य लक्षणों और आदर्शों के भीतर नहीं समा सकते। न तो सब में विस्तार के किसी नियम का पालन मिलेगा, न चरित्र-विकास का अवकाश। एक संवेदना या मनोभाव का सिद्धांत भी कहीं कहीं ठीक न घटेगा। उसके स्थान पर हमें मार्मिक परिस्थिति की एकता मिलेगी, जिसके भीतर कई ऐसी संवेदनाओं का योग रहेगा जो, सारी परिस्थिति को बहुत ही मार्मिक रूप देगा। श्री चंडीप्रसाद 'हृदयेश' की 'उन्मादिनी' का जिस परिस्थिति में पर्य्यवसान होता है उसमें पूरन का सत्त्वोद्रेक, सौदामिनी का अपत्यस्नेह और कालीशंकर की स्तब्धता तीनों का योग है। जो कहानियाँ कोई मार्मिक परिस्थिति लक्ष्य में रखकर चलेंगी उनमें बाह्य प्रकृति के भिन्न भिन्न रूप रंगों के सहित और परिस्थितियों का विशद चित्रण भी बराबर मिलेगा। घटनाएँ और कथोपकथन बहुत अल्प रहेंगे। 'हृदयेश' जी की कहानियाँ प्रायः इसी ढंग की हैं। 'उन्मादिनी' में घटना गतिशील नहीं। 'शांति-निकेतन' में घटना और कथोपकथन दोनों कुछ नहीं। यह भी कहानी का एक ढंग है, वह हमें मानना पड़ेगा। पाश्चात्य आदर्श का अनुसरण इसमें नहीं है; न सही।

वस्तु-विन्यास के ढंग में भी इधर अधिक वैचित्र्य आया है। घटनाओं में काल के पूर्वापर क्रम का विपर्य्यय कहीं कहीं इस तरह का मिलेगा कि समझने के लिये कुछ देर रुकना पड़ेगा। कहानियों में 'परिच्छेद' न लिखकर केवल १, २, ३, आदि संख्याएँ देकर विभाग करने की चाल है। अब कभी कभी एक ही नंबर के भीतर चलते हुए वृत्त के बीच थोड़ी सी जगह छोड़कर किसी पूर्वकाल की परिस्थिति पाठकों के सामने एकबारगी रख दी जाती है। कहीं कहीं चलते हुए वृत्त के बीच में परिस्थिति का नाटकीय ढंग का एक छोटा सा चित्र भी आ जाता है। इस प्रकार के चित्रों में चारों ओर सुनाई पड़ते हुए शुब्दों का संघात भी सामने रखा जाता है, जैसे, बाजार की सड़क का यह कोलाहल––

"मोटरों, ताँगो और इक्कों के आने जाने का मिलित स्वर। चमचमाती हुई कार का म्युज़ीकल हार्न।........बचना भैये। हटना, राजा बाबू......अक्खा! तिवारीजी [ ५४६ ]है नमस्कार!......हटना भा-आई।.......आदाब अर्ज़ दारोगा जी"।

(पुष्करिणों, में चोर, नाम की कहानी––भगवतीप्रसाद वाजपेयी)

हिंदी में जो कहानियाँ लिखी गई हैं, स्थूल दृष्टि से देखने पर, वे इन प्रणालियों पर चली दिखाई पड़ती हैं––

(१) सादे ढंग से केवल कुछ अत्यंत व्यंजक घटनाएँ और थोड़ी बातचीत सामने लाकर क्षिप्र गति से किसी एक गंभीर संवेदना या मनोभाव में पर्यवसित होनेवाली, जिसका बहुत ही अच्छा नमूना है स्वर्गीय गुलेरीजी की प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था'। पं॰ भगवतीप्रसाद वाजपेयी की 'निंदिया' और 'पेंसिल स्केच' नाम की कहानियाँ भी इसी ढंग की हैं। ऐसी कहानियों में परिस्थिति की मार्मिकता अपने वर्णन या व्याख्या द्वारा हृदयंगम कराने का प्रयत्न लेखक नहीं करता, उसका अनुभव वह पाठक पर छोड़ देता है।

(२) परिस्थितियों के विशद और मार्मिक––कभी कभी रमणीय और अलंकृत––वर्णनों और व्याख्याओं के साथ मंद मधुर गति से चलकर किसी एक मार्मिक परिस्थिति में पर्यवसित होनेवाली। उदाहरण––स्व॰ चंडीप्रसाद हृदयेश की 'उन्मादिनी', 'शांतिनिकेतन'। ऐसी कहानियों में परिस्थिति के अंतर्गत प्रकृति का चित्रण भी प्रायः रहता है।

(३) उक्त दोनों के बीच की पद्धति ग्रहण करके चलनेवाली, जिसमें घटनाओं की व्यंजकता और पाठकों की अनुभूति पर पूरा भरोसा न करके लेखक भी कुछ मार्मिक व्याख्या करता चलता है; उ॰––प्रेमचंदजी की कहानियाँ। पं॰ विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, पं॰ ज्वालादत्त शर्मा, श्री जैनेद्रकुमार, पं॰ विनोदशंकर व्यास, श्री सुदर्शन, पं॰ जनार्दनप्रसाद झा द्विज, इत्यादि अधिकांश, लेखकों की कहानियाँ अधिकतर इसी पद्धति पर चली हैं।

(४) घटना और संवाद दोनों में गूढ़ व्यंजना और रमणीय कल्पना के सुंदर समन्वय के साथ चलनेवाली। उ॰––प्रसादजी तथा राय कृष्णदासजी की कहानियाँ।

(५) किसी तथ्य का प्रतीक खड़ा करनेवाली लाक्षणिक कहानी, जैसे पांडेय बेचन शर्मा उग्र का 'भुनगा'। [ ५४७ ]वस्तु समष्टि के स्वरूप की दृष्टि से भी बहुत से वर्ग किए जा सकते हैं, जिनमें से मुख्य ये हैं––

(१) सामान्यतः जीवन के किसी स्वरूप की मार्मिकता सामने लानेवाली। अधिकतर कहानियाँ इस वर्ग के अंतर्गत आएँगी।

(२) भिन्न भिन्न वर्गों के संस्कार का स्वरूप सामने रखनेवाली। उ॰––प्रेमचदजी की 'शतरंज के खिलाड़ी' और श्री ऋषभचरण जैन की 'दान' नाम की कहानी।

(३) किसी मधुर या मार्मिक प्रसंग-कल्पना के सहारे किसी ऐतिहासिक काल का खंड-चित्र दिखानेवाली। उ॰––राय कृष्णदासजी की 'गहूला' और जयशंकर प्रसादजी की 'आकाशदीप'।

(४) देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से पीड़ित जनसमुदाय की दुर्दशा सामने लानेवाली, जैसे श्री भगवतीप्रसाद वाजपेयी की 'निंदिया लागी', 'हृद्गति' तथा श्री जैनैद्रकुमार की 'अपना अपना भाग्य' नाम की कहानी।

(५) राजनीतिक आंदोलन में संमिलित नव-युवकों के स्वदेश-प्रेम, त्याग, साहस और जीवनोत्सर्ग का चित्र खड़ा करनेवाली, जैसे पांडेय बेचन शर्मा उग्र की 'उसकी माँ' नाम की कहानी।

(६) समाज के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के बीच धर्म, समाज-सुधार, व्यापार व्यवसाय, सरकारी काम, नई सभ्यता आदि की ओट में होनेवाले पाखंडपूर्ण पापाचार के चटकीले चित्र सामने लानेवाली कहानियाँ जैसी 'उग्र' जी की है। 'उग्र' की भाषा बड़ी अनूठी चपलता और आकर्षक वैचित्र्य के साथ चलती है। इस ढंग की भाषा उन्हीं के उपन्यासों और 'चाँदनी' ऐसी कहानियों में ही मिल सकती है।

(७) सभ्यता और संस्कृति की किसी व्यवस्था के विकास का आदिम रूप झलकानेवाली, जैसे, राय कृष्णदासजी की 'अंतःपुर का आरंभ', श्रीमत की 'चँवेली की कली', श्री जैनेद्रकुमार की 'बाहुबली'।

(८) अतीत के किसी पौराणिक या ऐतिहासिक काल-खंड के बीच अत्यंत मार्मिक और रमणीय प्रसंग का अवस्थान करनेवाली, जैसे, श्री बिंदु ब्रह्मचारी और श्रीमंत समंत (पं॰ बालकराम विनायक) की कहानियाँ। [ ५४८ ]ये कहानियाँ 'कथामुखी' नाम की मासिक पत्रिका (अयोध्या, संवत् १९७७-७८) में निकली थीं। इनमें से कुछ के नाम ये हैं––वनभागिनी, कृत्तिका, हेरम्या और बाहुमान, कनकप्रभा, श्वेतद्वीप का तोता क्या पढ़ता था, चँवेली की कली। इनमें से कुछ कहानियों में एशिया के भिन्न भिन्न भागों में (ईरान, तुर्किस्तान, अर्मेनिया, चीन, सुमात्रा, इत्यादि में) भारतीय संस्कृति और प्रभाव का प्रसार (Greater India) दिखानेवाले प्रसंगों की अनूठी उद्भावना पाई जाती हैं, जैसे 'हेरम्या और बाहुमान्' में। ऐसी कहानियों में भिन्न भिन्न देशों की प्राचीन संस्कृति के अध्ययन की त्रुटि अवश्य कहीं कहीं खटकती है, जैसे, 'हेरम्या और बाहुमान्' में आर्य्य पारसीक और सामी अरब सभ्यता का घपला है।

एशिया के भिन्न भिन्न भागों में भारतीय संस्कृति और प्रभाव की झलक जयशंकर प्रसादजी के 'आकाशदीप' में भी है।

(९) हास्य-विनोद द्वारा अनुरंजन करनेवाली। उ॰––जी॰ पी॰ श्रीवास्तव, अन्नपूर्णानंद और कांतानाथ पांडेय 'चोंच' की कहानियाँ।

इस श्रेणी की कहानियों का अच्छा विकास हिंदी में नहीं हो रहा है। अन्नपूर्णानंदजी का हास सुरुचिपूर्ण है। 'चोंच' जी की कहानियाँ अतिरजित होने पर भी व्यक्तियों के कुछ स्वाभाविक ढाँचे सामने लाती हैं। जी॰ पी॰ श्रीवास्तव की कहानियों में शिष्ट और परिष्कृत हास की मात्रा कम पाई जाती है। समाज के चलते जीवन के किसी विकृत पक्ष को, या किसी वर्ग के व्यक्तियों की बेढंगी विशेषताओं को हँसने-हँसाने योग्य बनाकर सामने लाना अभी बहुत कम दिखाई पड़ रहा है।

यह बात कहनी पड़ती है कि शिष्ट और परिष्कृत हास का जैसा सुंदर विकास पाश्चात्य साहित्य में हुआ है वैसा अपने यहाँ अभी नहीं देखने में आ रहा है। पर हास्य का जो स्वरूप हमें संस्कृत के नाटकों और फुटकल पद्यों में मिलता है, वह बहुत ही समीचीन, साहित्य-संमत और वैज्ञानिक है। संस्कृत के नाटकों में हास्य के आलंबन विदूषक के रूप में पेटू ब्राह्मण रहे हैं और फुटकल पद्यों में शिव ऐसे और देवता तथा उनका परिवार और समाज। कहीं कहीं खटमल ऐसे क्षुद्र जीव भी हो गए हैं। हिंदी में इनके अतिरिक्त [ ५४९ ]कंजूसों पर विशेष कृपा हुई है। पर ये सब आलंबन जिस ढंग से सामने लाए गए हैं उसे देखने से स्पष्ट हो जायगा कि रस-सिद्धांत का पालन बड़ी सावधानी से हुआ है। रसों में हास्य रस का जो स्वरूप और जो स्थान है यदि वह बराबर दृष्टि में रहे तो अत्यंत उच्च और उत्कृष्ट श्रेणी के हास का प्रवर्तन हमारे साहित्य में हो सकता है।

हास्य के आलंबन से विनोद तो होता ही है, उसके प्रति कोई न कोई और भाव भी––जैसे, राग, द्वेष, घृणा, उपेक्षा, विरक्ति––साथ साथ लगा रहता है। हास्य रस के जो भारतीय आलंबन ऊपर बताए गए हैं वे सब इस ढंग से सामने लाए जाते हैं कि उनके प्रति द्वेष, घृणा इत्यादि न उत्पन्न होकर एक प्रकार का राग या प्रेम ही उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था हमारे रस-सिद्धांत के अनुसार है। स्थायी भावों में आधे सुखात्मक हैं और आधे दुःखात्मक। हास्य आनंदात्मक भाव है एक ही आश्रय में, एक ही आलंबन के प्रति, आनंदात्मक और दुःखात्मक भावों को एक साथ स्थिति नहीं हो सकती। हास्य रस में आश्रय के रूप में किसी पात्र की अपेक्षा नही होती, श्रोता या पाठक ही आश्रय रहता है। अतः रस की दृष्टि से हास्य में द्वेष और घृणा नामक दुःखात्मक भावों की गुंजाइश नहीं। हास्य के साथ जो दूसरा भाव आ सकता है वह संचारी के रूप में ही। द्वेष या घृणा का भाव जहाँ रहेगी वहाँ हास की प्रधानता नहीं रहेगी, वह 'उपहास' हो जायगा। उसमें हास का सच्चा स्वरूप रहेगा ही नहीं। उसमें तो हास को द्वेष का व्यंजक या उसका आच्छादक मात्र समझना चाहिए।

जो बात हमारे यहाँ की रस-व्यवस्था के भीतर स्वतः सिद्ध है वही योरप में इधर आकर एक आधुनिक सिद्धांत के रूप में यों कही गई है कि 'उत्कृष्ट हास वही है जिसमें आलंबन के प्रति एक प्रकार का प्रेमभाव उत्पन्न हो अर्थात् वह प्रिय लगे'। यहाँ तक तो बात बहुत ठीक रही। पर योरप में नूतन सिद्धांत-प्रवर्त्तक बनने के लिये उत्सुक रहनेवाले चुप कब रह सकते हैं। वे दो कदम आगे बढ़कर आधुनिक 'मनुष्यता-वाद' या 'भूतदया-वाद' का स्वर ऊँचा करते हुए बोले "उत्कृष्ट हास वह है जिसमे आलंबन के प्रति दया या करुणा उत्पन्न हो।" कहने की आवश्यकता नहीं कि यह होली-मुहर्रम सर्वथा अस्वाभाविक, [ ५५० ] अवैज्ञानिक और रस-विरुद्ध है। दया या करुणा दुःखात्मक भाव है, हास आनंदात्मक। दोनों की एक साथ स्थिति बात ही बात है। यदि हास के साथ एक ही आश्रय में किसी और भाव का सामंजस्य हो सकता है तो प्रेम या भक्ति का ही। भगवान् शंकर के बौड़मपन का किस भक्तिपूर्ण विनोद के साथ वर्णन किया जाता है, वे किस प्रकार बनाए जाते हैं, यह हमारे यहाँ "शशि सी मची है त्रिपुरारि के तबेला में" देखा जा सकता है।

हास्य का स्वरूप बहुत ठीक सिद्धांत पर प्रतिष्ठित होने पर भी अभी तक उसका ऐसा विस्तृत विकास हमारे साहित्य में नहीं हुआ है जो जीवन के अनेक क्षेत्रों से––जैसे, राजनीतिक, साहित्यिक, धार्मिक, व्यावसायिक––आलंबन ले लेकर खड़ा करे।



नाटक

यद्यपि और देशों के समान यहाँ भी उपन्यास और कहानियों के आगे नाटकों का प्रणयन बहुत कम हो गया है, फिर भी हमारा नाट्य-साहित्य बहुत कुछ आगे बढ़ा है। नाटकों के बाहरी रूप-रंग भी कई प्रकार के हुए हैं और अवयवों के विन्यास और आकार-प्रकार से भी वैचित्र्य आया है। ढाँचों में जो विशेषता योरप के वर्त्तमान नाटकों में प्रकट हुई है, वह हिंदी के भी कई-नाटकों में इधर दिखाई पड़ने लगी है, जैसे अंक के आरंभ और बीच में भी समय, स्थान तथा पात्रों के रूप-रंग और वेश-भूषा का बहुत सूक्ष्म ब्योरे के साथ लंबा वर्णन। स्वगत भाषण की चाल भी अब उठ रही है। पात्रों के भाषण भी न अब बहुत लंबे होते हैं न लंबे लंबे वाक्यवाले। ये बातें सेठ गोविंददासजी तथा पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटकों में पाई जायँगी। थिएटरों के कार्यक्रम में दो अवकाशों के विचार से इधर तीन अंक रखने की प्रवृत्ति भी लक्षित हो रही है। दो एक व्यक्ति अँगरेजी में एक अंकवाले आधुनिक नाटक देख उन्हीं के ढंग के दो एक-एकांकी नाटक लिखकर उन्हें बिल्कुल एक नई चीज कहते हुए सामने लाए। ऐसे लोगों को जान रखना चाहिए कि एक अंकवाले कई उप-रूपक हमारे यहाँ बहुत पहले से माने गए हैं। [ ५५१ ]यह तो स्पष्ट है कि आधुनिक काल के आरंभ से ही बँगला की देखा-देखी हमारे हिंदी नाटकों के ढाँचे पाश्चात्य होने लगे। नांदी, मंगलाचरण तथा प्रस्तावना हटाई जाने लगी। भारतेंदु ने ही 'नीलदेवी' और 'सती-प्रताप' में प्रस्तावना नहीं रखी है; हाँ, आरंभ में यशोगान या मंगलगान रख दिया है। भारतेंदु के पीछे तो यह भी हटता गया। भारतेंदु-काल से ही अंकों का अवस्थान अँगरेजी ढंग पर होने लगा। अंकों के बीच के स्थान-परिवर्तन या दृश्य-परिवर्तन को 'दृश्य' और कभी कभी 'गर्भांक' शब्द रखकर सूचित करने लगे, यद्यपि 'गर्भांक' शब्द का हमारे नाट्यशास्त्र में कुछ और ही अर्थ। 'प्रसाद' जी ने अपने 'स्कंदगुप्त' आदि नाटकों में यह 'दृश्य' शब्द (जो अँगरेजी Scene का अनुवाद है) छोड़ दिया है और स्थान-परिवर्तन या पट-परिवर्तन के स्थलों पर कोई नाम नहीं रखा है। इसी प्रकार आजकल 'विष्कंभक' और 'प्रवेशक' का काम देनेवाले दृश्य तो रखे जाते है, पर ये नाम हटा दिए गए हैं। 'प्रस्तावना' के साथ 'उद्घातक', 'कथोद्घात' आदि का विन्यास-चमत्कार भी गया। पर ये युक्तियाँ सर्वथा अस्वाभाविक न थीं। एक बात बहुत अच्छी यह हुई है कि पुराने नाटकों में दरबारी विदूषक नाम का जो फालतू पात्र रहा करता था उसके स्थान पर कथा की गति से सबद्ध कोई पात्र ही हँसोड़ प्रकृति का बना दिया जाता है। आधुनिक नाटको में प्रसादजी के 'स्कंदगुप्त' नाटक का मुद्गल ही एक ऐसा पात्र है जो पुराने विदूषक का स्थानापन्न कहा जा सकता है।

भारतीय साहित्य शास्त्र में नाटक भी काव्य के ही अंतर्गत माना गया है अतः उसका लक्ष्य भी निर्दिष्ट शील स्वभाव के पात्रों को भिन्न भिन्न परिस्थितियों में डालकर उनके वचनों और चेष्टाओं द्वारा दर्शकों में रस-संचार करना ही रहा है। पात्रों के धीरोदात्त आदि बँधे हुए ढाँचे थे जिनमें ढले हुए सब पात्र सामने आते थे। इन ढाँचों के बाहर शील-वैचित्र्य दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता था। योरप में धीरे धीरे शील-वैचित्र्य-प्रदर्शन को प्रधानता प्राप्त होती गईं; यहाँ तक कि किसी नाटक के संबंध में वस्तुविधान और चरित्र-विधान की चर्चा का ही चलन हो गया। इधर, यथातथ्यवाद के प्रचार से वहाँ रहा सहा काव्यत्व भी झूठी भावुकता कहकर हटाया [ ५५२ ]जाने लगा। यह देखकर प्रसन्नता होती है कि हमारे 'प्रसाद' और 'प्रेमी' ऐसे प्रतिभाशाली नाटककारों ने उक्त प्रवृत्ति का अनुसरण न करके रस-विधान और शील-वैचित्र्य दोनों का सामंजस्य रखा है। 'स्कंदगुप्त' नाटक में जिस प्रकार देवसेना और शर्वनाग ऐसे गूढ़ चरित्र के पात्र हैं, उसी प्रकार शुद्ध प्रेम, यद्धोत्साह, स्वदेश-भक्ति आदि भावों की मार्मिक और उत्कृष्ट व्यंजना भी है। हमारे यहाँ के पुराने ढाँचों के भीतर शील-वैचित्र्य का वैसा विकास नहीं हो सकता था, अतः उनका बंधन हटाकर वैचित्र्य के लिये मार्ग खोलना तो ठीक ही है, पर यह आवश्यक नहीं कि उसके साथ रसात्मकता भी हम निकाल दें।

हिंदी-नाटकों के स्वतंत्र विकास के लिये ठीक मार्ग तो यह दिखाई पड़ता है कि हम उनका मूल भारतीय लक्ष्य तो बनाए रहें, पर उनके स्वरूप के प्रसार के लिये और देश की पद्धतियों का निरीक्षण और उनकी कुछ बातों का मेल सफाई के साथ करते चलें। अपने नाट्य-शास्त्र के जटिल विधान को ज्यों का त्यों लेकर तो हम आजकाल चल नहीं सकते, पर उसका बहुत सा रूप-रंग अपने नाटकों में ला सकते हैं जिससे भारतीय परंपरा के प्रतिनिधि वे बने रह सकते हैं। रूपक और उपरूपक के जो बहुत से भेद किए गए हैं उनमें से कुछ को हम आजकल भी चला सकते हैं। उनके दिए हुए लक्षणों में वर्तमान रुचि के अनुसार जो हेर-फेर चाहे कर लें। इसी प्रकार अभिनय की रोचकता बढ़ानेवाली जो युक्तियाँ हैं––जैसे, उद्घातक, कथोद्घात––उनमे से कई एक को, आवश्यक रूपांतर के साथ और स्थान का बंधन दूर करके हम बनाए रख सकते हैं। संतोष की बात है कि 'प्रसाद' और 'प्रेमी' जी के नाटकों में इसके उदाहरण हमे मिलते हैं, जैसे, कथोद्घात के ढंग पर एक पात्र के मुँह से निकले हुए शब्द को लेकर दूसरे पात्र का यह प्रवेश––

शर्वनाग––देख, सामने सोने का संसार खड़ा है।

(रामा का प्रवेश)

रामा––पामर! सोने की लंका राख हो गई। (स्कंदगुप्त)

श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' के नाटकों में भी यह मिलता है। 'शिवा साधना' में देखिए–– [ ५५३ ]जीजा॰––हाँ! यह एक बाधा है।

(सई बाई का बालक संभाजी को लिए हुए प्रवेश)

सई बाई––यह बाधा भी न रहेगी, माँजी!

प्राचीन नाट्यशास्त्र (भारतीय और यवन दोनों) में कुछ बातों का––जैसे, मृत्यु, बध, युद्ध––दिखाना वर्जित था। आजकल उस नियम के पालन की आवश्यकता नहीं मानी जाती। प्रसादजी ने अपने नाटकों में बराबर मृत्यु, बध और आत्महत्या दिखाई है। प्राचीन भारत और यवनान में ये निषेध भिन्न भिन्न कारणों से थे। यवनान में तो बड़ा भारी कारण रंगशाला का स्वरूप था। पर भारत में अत्यन्त क्षोभ तथा शिष्ट रुचि की विरक्ति बचाने के लिये कुछ दृश्य वर्जित थे। मृत्यु और बध अत्यंत क्षोभकारक होने के कारण, भोजन परिष्कृत रुचि के विरुद्ध होने के कारण तथा रंगशाला की थोड़ी सी जगह के बीच दूर से पुकारना अस्वाभाविक और अशिष्ट लगने के कारण वर्जित थे। देश की परंपरागत सुरुचि की रक्षा के लिये कुछ व्यापार तो हमे आजकल भी वर्जित रखने चाहिए, जैसे, चुबंन-आलिंगन। स्टेशन के प्लेटफार्म पर चुंबन-आलिंगन चाहे योरप की सभ्यता के भीतर हो, पर हमारी दृष्टि में जंगलीपन वा पशुत्व है।

इस तृतीय उत्थान के बीच हमारे वर्त्तमान नाटक-क्षेत्र में दो नाटककार बहुत ऊँचे स्थान पर दिखाई पड़े––स्व॰ जयशंकर प्रसादजी और श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी'। दोनों की दृष्टि ऐतिहासिक काल की ओर रही है। 'प्रसाद' जी ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिंदू-काल के भीतर चुना और 'प्रेमी' जी ने मुस्लिम-काल के भीतर। 'प्रसाद' के नाटकों में 'स्कंदगुप्त' श्रेष्ठ है और 'प्रेमी' के नाटकों में 'रक्षा बंधन'।

'प्रसाद' जी में प्राचीन काल की परिस्थितियों के स्वरूप की मधुर भावना के अतिरिक्त भाषा को रँगनेवाली चित्रमयी कल्पना और भावुकता की आधिकता भी विशेष परिमाण में पाई जाती है। इससे कथोपकथन कई स्थलों पर नाटकीय न होकर वर्त्तमान गद्य-काव्य के खंड हो गए हैं। बीच बीच में जो गान रखे गए हैं वे न तो प्रकरण के अनुकूल हैं, न प्राचीन काल की भाव[ ५५४ ]पद्धति के। वे तो वर्तमान काव्य की एक शाखा के प्रगीत मुक्तक (Lyrics) मात्र हैं। अपनी सबसे पिछली रचनाओं से ये त्रुटियाँ उन्होंने निकाल दी हैं। 'चंद्रगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी' इन दोषों से प्रायः मुक्त हैं। पर 'चंद्रगुप्त' में एक दूसरा बड़ा भारी दोष आ गया है। उसके भीतर सिकंदर के भारत पहुँचने के कुछ पहले से लेकर सिल्युकस के पराजय तक के २५ वर्ष के दीर्घकाल की घटनाएँ लेकर कसी गई हैं जो एक नाटक के भीतर नहीं आनी चाहिए। जो पात्र युवक के रूप में नाटक के आरंभ में दिखाई पड़े, वे नाटक के अंत में भी उसी रूप में सामने आते हैं। यह दोष तो इतिहास की ओर दृष्टि ले जाने पर दिखाई पड़ता हैं अर्थात् बाहरी है। पर घटनाओं की अत्यंत सघनता का दोष रचना से संबंध रखता है। बहुत से भिन्न भिन्न पात्रों से संबद्ध घटनाओं के जुड़ते चलने के कारण बहुत कम चरित्रों के विकास का अवकाश रह गया है। पर इस नाटक में विन्यस्त वस्तु और पात्र इतिहास का ज्ञान रखनेवाले के लिये इतने आकर्षक हैं कि उक्त दोषों की ओर ध्यान कुछ देर में जाता है। 'मुद्रा-राक्षस' से इसमें कई बातों की विशषता हैं। पहली बात तो यह है कि इसमें चंद्रगुप्त केवल प्रयत्न के फल का भोक्ता कठपुतली भर नहीं, प्रयत्न में अपना क्षत्रिय-भाग सुंदरता के साथ पूरा करनेवाला है। नीति-प्रवर्त्तन का भाग चाणक्य पूरा करता है। दूसरी बात यह है कि 'मुद्राराक्षस' में चाणक्य का व्यक्तित्व––उसका हृदय––सामने नहीं आता। तेजस्विता, धीरता, प्रत्युत्पन्न बुद्धि और ब्राह्मणोचित त्याग आदि सामान्य गुणों के बीच केवल प्रतीकार की प्रबल वासना ही हृदय-पक्ष की ओर झलकती है। पर इस नाटक में चाणक्य के प्रयत्न का लक्ष्य भी ऊँचा किया गया है और उसका पूरा हृदय भी सामने रखा गया है।

नाटकों का प्रभाव पात्रों के कथोपकथन पर बहुत कुछ अवलंबित रहता है। श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' के कथोपकथन 'प्रसाद' जी के कथोपकथनों से अधिक नाटकोपयुक्त हैं। उनमें प्रसंगानुसार बातचीत का चलता हुआ स्वाभाविक ढंग भी है। और सर्वहृदय-ग्राह्य पद्धति पर भाषा का मर्म-व्यंजक अनूठापन भी। 'प्रसाद' जी के नाटकों में एक ही ढंग की चित्रमयी और लच्छेदार बातचीत करनेवाले कई पात्र आ जाते हैं। 'प्रेमी' जी के नाटकों में यह खटकनेवाली बात नहीं मिलती [ ५५५ ]'प्रसाद' और 'प्रेमी' के नाटक यद्यपि ऐतिहासिक हैं, पर उनमे आधुनिक आदर्शों और भावनाओं का आभास इधर-उधर बिखरा मिलता है। 'स्कंदगुप्त' और 'चंद्रगुप्त' दोनो में स्वदेश-प्रेम, विश्वप्रेम और आध्यात्मिकता का आधुनिक रूप-रंग बराबर झलकता है। आजकल के मजहबी दंगों का स्वरूप भी इस 'स्कंदगुप्त' में देख सकते है। 'प्रेमी' के 'शिवासाधना' नाटक के शिवाजी भी कहते हैं––"मेरे शेष जीवन की एकमात्र साधना होगी भारतवर्ष को स्वतंत्र करना, दरिद्रता की जड़ खोदना, ऊँच-नीच की भावना और धार्मिक तथा सामाजिक असहिष्णुता का अंत करना, राजनीतिक और सामाजिक दोनों प्रकार की क्रांति करना।" हम समझते हैं कि ऐतिहासिक नाटक में किसी पात्र से आधुनिक भावनाओं की व्यंजना जिस काल का वह नाटक हो उस काल की भाषा-पद्धति और विचार-पद्धति के अनुसार करानी चाहिए; 'क्रांति' ऐसे शब्दों द्वारा नहीं। 'प्रेमी' जी के 'रक्षा-बंधन' में मेवाड़ की महारानी कर्मवती का हुमायूँ को भाई कहकर राखी भेजना और हुमायूँ का गुजरात के मुसलमान बादशाह बहादुरशाह के विरुद्ध एक हिंदू राज्य की रक्षा के लिये पहुँचना, यह कथा-वस्तु ही हिंदू-मुसलिम भेद-भाव की शांति सूचित करती है। उसके ऊपर कट्टर सरदारों और मुल्लों की बात का विरोध करता हुआ हुमायूँ जिस उदार भाव की सुंदर व्यंजना करता है वह वर्तमान हिंदू-मुसलिम दुर्भाव की शांति का मार्ग दिखाता जान पड़ता है। इसी प्रकार 'प्रसाद' जी के 'ध्रुव-स्वामिनी' नामक बहुत छोटे से नाटक में एक संभ्रात, राजकुल की स्त्री का विवाह-संबंध-मोक्ष सामने लाया गया है, जो वर्त्तमान सामाजिक आंदोलन का एक अंग है।

वर्त्तमान राजनीति के अभिनयों का पूर्ण परिचय प्राप्त कर सेठ गोविंददास जी ने इधर साहित्य के अभिनय-क्षेत्र में भी प्रवेश किया है। उन्होंने तीन अच्छे नाटक लिखे हैं। "कर्त्तव्य" में राम और कृष्ण दोनों के चरित्र नाटक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो खंड करके रखे गए हैं जिनका उद्देश्य है कर्त्तव्य के विकास की दो भूमियाँ दिखाना। नाटककार के विवेचनानुसार मर्यादा-पालन प्रथम भूमि है जो पूर्वार्ध में राम द्वारा पूर्णता को पहुँचती है। लोकहित की व्यापक दृष्टि से आवश्यकतानुसार नियम और मर्यादा का उल्लंघन उसके आगे की भूमि है, जो नाटक के उत्तरार्ध में श्रीकृष्ण ने अपने चरित्र द्वारा––जैसे, [ ५५६ ]जरासंध के सामने लड़ाई का मैदान छोड़कर भागना––प्रदर्शित की है। वास्तव में पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो अलग अलग नाटक हैं, पर नाटककार ने अपने कौशल से कर्तव्य-विकास की सुंदर उद्भावना द्वारा दोनों के बीच पूर्वापर संबंध स्थापित कर दिया है। यह भी एक प्रकार का कौशल है। इसे 'ऊटक-नाटक' न समझना चाहिए। सेठजी का दूसरा नाटक 'हर्ष' ऐतिहासिक है जिसमें सम्राट् हर्षवर्द्धन, माधवगुप्त, शशांक आदि पात्र आए है। इन दोनों नाटकों में प्राचीन वेशभूषा, वास्तुकला इत्यादि का ध्यान रखा गया है। 'प्रकाश' नाटक में वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण है। यद्यपि इन तीनों नाटकों के वस्तु-विन्यास और कथोपकथन में विशेष रूप से आकर्षित करनेवाला अनूठापन नहीं है, पर इनकी रचना बहुत ठिकाने की है।

पं॰ गोविंदवल्लभ पंत भी अच्छे नाटककार हैं। उनका 'वरमाला' नाटक, जो मार्कंडेय पुराण की एक कथा लेकर निर्मित है, बड़ी निपुणता से लिखा गया है। मेवाड़ की पन्ना नामक धाय के अलौकिक त्याग का ऐतिहासिक वृत्त लेकर 'राजमुकुट' की रचना हुई है। 'अंगूर की बेटी' (जो फारसी शब्द का अनुवाद है) मद्य के दुष्परिणाम दिखानेवाला सामाजिक नाटक है।

कुछ हलके ढंग के नाटकों में, जिनसे बहुत साधारण पढ़े-लिखे लोगों को भी कुछ मनोरंजन हो सकता है, स्वर्गीय पं॰ बदरीनाथ भट्ट के 'दुर्गावती', 'तुलसीदास' आदि उल्लेखयोग्य है। हास्यरस की कहानियों लिखनेवाले जी॰ पी॰ श्रीवास्तव ने मोलियर के फरांसीसी नाटकों के हिंदुस्तानी अनुवादों के अतिरिक्त 'मरदानी औरत', 'गड़बड़झाला', 'नोक-झोंक', 'दुमदार आदमी' इत्यादि बहुत से छोटे-मोटे प्रहसन भी लिखे हैं, पर वे परिष्कृत रुचि के लोगों को हँसाने में समर्थ नहीं। "उलट-फेर" नाटक औरों से अच्छे ढर्रे का कहा जाता है।

पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र ने अपने नाटको के द्वारा स्त्रियों की स्थिति आदि कुछ सामाजिक प्रश्न या 'समस्याएँ' तो सामने रखी ही है, योरप में प्रवर्तित 'यथातथ्यवाद' का वह खरा रूप भी दिखाने का प्रयत्न किया है जिसमें झूठी भावुकता और मार्मिकता से पीछा छुड़ाकर नर-प्रकृति अपने वास्तविक रूप में [ ५५७ ]सामने लाई जाती है। ऐसे नाटकों का उद्देश्य होता है समाज अधिकतर जैसा है वैसा ही सामने रखना, उसके भीतर की नाना विषमताओं से उत्पन्न प्रश्नों का जीता-जागता रूप खड़ा करना तथा यदि संभव हो तो समाधान के स्वरूप का भी आभास देना। लोक के बीच कभी कभी जो उच्च भावों के कुछ दृष्टांत दिखाई पड़ जाया करते हैं उनपर कल्पना का झूठा रंग चढ़ाकर धोखे की टट्टियाँ खड़ी करना और बहुत सी फालतू भावुकता जगाना अब बंद होना चाहिए, यही उपर्युक्त 'यथातथ्यवाद' के अनुयायियों का कहना है। योरप मे जब 'कला' और 'सौंदर्य' की बड़ी पुकार मची और कुछ कलाकार, कवि और लेखक अपना यही काम समझने लगे कि जगत् के सुंदर पक्ष से सामग्री चुन-चुनकर एक काल्पनिक सौंदर्य-सृष्टि खड़ी करें और उसका मधुपान करके झूमा करे, तब इसकी घोर प्रतिक्रिया वहाँ आवश्यक थी और यहाँ भी 'सौंदर्यवाद' और 'कलावाद' का हिंदी में खासा चलन होने के कारण अब आवश्यक हो गई है। जब कोई बात हद के बाहर जाकर जी उबाने और विरक्ति उत्पन्न करने लगती है तब साहित्य के क्षेत्र में प्रतिक्रिया अपेक्षित होती है। योरप के साहित्य-क्षेत्र में एकांगदर्शिता इतनी बढ़ गई है कि किसी न किसी हद पर जाकर कोई न कोई वाद बराबर खड़ा होता रहता है और आगे बढ़ चलता है। उसके थोड़े ही दिनों पीछे बड़े वेग से उसकी प्रतिक्रिया होती है जिसकी धारा दूसरी हद की ओर बढ़ती है। अतः योरप के किसी 'वाद' को लेकर चिल्लानेवालों को यह समझ रखना चाहिए कि उसका बिल्कुल उलटा वाद भी पीछे लग रहा है।

प्रतिक्रिया के रूप में निकली हुई साहित्य की शाखाएँ प्रतिक्रिया का रोष ठंडा होने पर धीरे धीरे पलटकर मध्यम पथ पर आ जाती हैं। कुछ दिनों तक तो वे केवल चिढ़ाती सी जान पड़ती हैं, पीछे शांत भाव से सामंजस्य के साथ चलने लगती हैं। 'भावुकता' भी जीवन का, एक अंग है, अतः साहित्य की किसी शाखा से हम उसे बिल्कुल हटा तो सकते नहीं। हाँ यदि वह व्याधि के रूप में––फीलपाँव की तरह––बढ़ने लगे, तो उसकी रोक-थाम आवश्यक है।

नाटक का जो नया स्वरूप लक्ष्मीनारायणजी योरप से लाए हैं उसमे काव्यत्व का अवयव भरसक नहीं आने पाया है। उनके नाटकों में न चित्रमय [ ५५८ ]और भावुकता से लदे भाषण हैं, न गीत या कविताएँ। खरी खरी बात कहने का जोश कहीं कहीं अवश्य है। इस प्रणाली पर उन्होंने कई नाटक लिखे हैं, जैसे, 'मुक्ति का रहस्य', 'सिंदूर की होली', 'राक्षस का मंदिर', 'आधी रात'।

समाज के कुत्सित, वीभत्स और पाखंडपूर्ण अंशों के चटकीले दृश्य दिखाने के लिये पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने छोटे नाटकों या प्रहसनों से भी काम लिया है। 'चुम्बन' और 'चार बेचारे' (संपादक, अध्यापक, सुधारक, प्रचारक) इसीलिये लिखे गए हैं। 'महात्मा ईसा' के फेर में तो वे नाहक पड़े।

पं॰ उदयशंकर भट्ट ने, जो पंजाब में बहुत अच्छी साहित्य-सेवा कर रहे हैं, 'तक्षशिला', 'राका', 'मानसी', आदि कई अच्छे काव्यों के अतिरिक्त, अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक नाटक भी लिखे हैं। 'दाहर या सिंधपतन' तथा 'विक्रमादित्य' ऐतिहासिक नाटक हैं। हाल में 'कमला' नामक एक सामाजिक नाटक भी आपने लिखा है जिसमें किसान-आंदोलन तथा सामाजिक असामंजस्य का मार्मिक चित्रण है। 'दस हजार' नाम का एक एकांकी नाटक भी आपने इधर लिखा है।

भट्टजी की कला का पूर्ण विकास पौराणिक नाटकों में दिखाई पड़ता है। पौराणिक क्षेत्र के भीतर से वे ऐसे पात्र ढूँढकर लाए हैं जिनके चारों ओर जीवन की रहस्यमयी विषमताएँ बड़ी गहरी छाया डालती हुई आती हैं––ऐसी विषमताएँ जो वर्तमान समाज को भी क्षुब्ध करती रहती है। 'अंबा' नाटक में भीष्म द्वारा हरी हुई अंबा की जन्मांतर-व्यापिनी प्रतीकार-वासना के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष संबंध की वह विषमता भी सामने आती है जो आजकल के महिला आंदोलनों, की तह में वर्तमान है। 'मत्स्यगंधा' एक भाव-नाट्य या पद्यबद्ध नाटक है। उसमें जीवन का वह रूप सामने आता है जो ऊपर से सुख-पूर्ण दिखाई पड़ता है, पर जिसके भीतर भीतर न जाने कितनी उमंगों और मधुर कामनाओं के ध्वंस की विषाद-धारा यहाँ से वहाँ तक छिपी मिलती है। 'विश्वामित्र' भी इसी ढंग का एक सुंदर नाटक है। चौथा नाटक 'सागरविजय' भी उत्तम है। पौराणिक सामग्री का जैसा सुंदर उपयोग भट्टजी ने किया है, वैसा कम देखने में आता है। ऐतिहासिक नाटक-रचना में जो स्थान 'प्रसाद' और 'प्रेमी' का है, पौराणिक नाटक-रचना में वही स्थान भट्टजी का है। [ ५५९ ]श्री जगन्नाथद्रसाद 'मिलिंद' ने महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक से लेकर अंत तक का वृत्त लेकर 'प्रताप-प्रतिज्ञा' नाटक की रचना की है। स्व॰ राधाकृष्णदासजी के 'प्रताप-नाटक' का आरंभ मानसिंह के अपमान से होता है जो नाट्यकला की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त है। परिस्थितियों को प्रधानता देने में भी 'मिलिंद' जी का चुनाव उतना अच्छा नहीं है। कुछ ऐतिहासिक त्रुटियाँ भी है।

श्री चतुरसेन शास्त्री ने उपन्यास और कहानियाँ तो लिखी ही हैं, नाटक की ओर भी हाथ बढ़ाया है। अपने 'अमर राठौर' और 'उत्सर्ग' नामक ऐतिहासिक नाटकों में उन्होंने कथावस्तु को अपने अनुकूल गढ़ने में निपुणता अवश्य दिखाई है, पर अधिक ठोंक-पीट के कारण कहीं कही ऐतिहासिकता, और कहीं कहीं घटनाओं की महत्ता भी, झड़ गई है।

अँगरेज कवि शैली के ढंग पर श्री सुमित्रानंदन पंत ने कवि-कल्पना को दृश्य रूप देने के लिये 'ज्योत्स्ना' नाम से एक रूपक लिखा है। पर शेली का रूपक (Prometheus Unbound) तो आधिदैविक शासन से मुक्ति और जगत् के स्वातंत्र्य का एक समन्वित प्रसंग लेकर चला है, और उसमे पृथ्वी, वायु आदि आधिभौतिक देवता अपने निज के रूप में आए हैं, किंतु 'ज्योत्स्ना' मे बहुत दूर तक केवल सौंदर्य-चयन करनेवाली कल्पना मनुष्य के सुख-विलास की भावना के अनुकूल चमकती उषा, सुरभित समीर, चटकती कलियाँ, कलरव करते विहंग आदि को अभिनय के लिये मनुष्य के रंगमंच पर जुटाने में प्रवृत्त है। उसके उपरांत आजकल की हवा में उड़ती हुई कुछ लोकसमस्याओं पर कथोपकथन है। सब मिला कर क्या है, यह नहीं कहा जा सकता।

श्री कैलाशनाथ भटनागर का 'भीम-प्रतिज्ञा' भी विद्यार्थियों के योग्य अच्छा नाटक है।

एकांकी नाटक का उल्लेख आरंभ में हो चुका है और यह कहा जा चुका है कि किस प्रकार पहले-पहल दो-एक व्यक्ति उसे भारतीय नाट्य साहित्य में एक अश्रुतपूर्व वस्तु समझते हुए लेकर आए। अब इधर हिंदी के कई अच्छे कवियों और नाटककारों ने भी कुछ एकांकी नाटक लिखे है जिनका एक अच्छा [ ५६० ] संग्रह "आधुनिक एकांकी नाटक" के नाम से प्रकाशित हुआ है। इसमें श्रीसुदर्शन, रामकुमार वर्मा, भुवनेश्वर, उपेंद्रनाथ अश्क, भगवतीचरण वर्मा, धर्मप्रकाश आनंद, उदयशंकर भट्ट के क्रमशः 'राजपूत की हार', 'दस मिनट', 'स्ट्राइक', 'लक्ष्मी का स्वागत', 'सबसे बड़ा आदमी', 'दीन' तथा 'दस हजार' नाम के नाटक संगृहीत हैं।

हिंदी के कुछ प्रसिद्ध कवियों और उपन्यासकारों ने भी––जैसे, बा॰ मैथिलशरण गुप्त, श्री वियोगी हरि, माखनलाल चतुर्वेदी, प्रेमचंद, विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुदर्शन––नाटक की ओर हाथ बढ़ाया, पर उनका मुख्य स्थान कवियों और उपन्यासकारों के बीच ही रहा।

मौलिक नाटकों के अतिरिक्त संस्कृत के पुराने नाटकों में से भास के 'स्वप्नवासवदत्ता' (अनुवादक––सत्यजीवन वर्मा), 'पंचरात्र', 'मध्यम व्यायोग', 'प्रतिज्ञायौगधरायण’ (अनु॰––ब्रजजीवनदास) ; 'प्रतिमा' (अनु॰––बलदेव शास्त्री) तथा दिङ्नाग के 'कुंदमाला' नाटक (अनु॰––वागीश्वर विद्यालकार) के अनुवाद भी हिंदी में हुए।

जर्मन कवि गेटे के प्रसिद्ध नाटक 'फाउस्ट' का अच्छा अनुवाद श्री भोलानाथ शर्मा एम॰ ए॰ ने किया है।



निबंध

विश्वविद्यालयों के उच्च शिक्षा-क्रम के भीतर हिंदी-साहित्य का समावेश हो जाने के कारण उत्कृष्ट कोटि के निबंध की––ऐसे निबंधों की जिनकी असाधारण शैली या गहन विचारधारा पाठकों को मानसिक श्रमसाध्य नूतन उपलब्धि के रूप में जान पड़े––जितनी ही आवश्यकता है उतने ही कम वे हमारे सामने आ रहे हैं। निबंध की जो स्थिति हमें द्वितीय उत्थान में दिखाई पड़ी प्रायः वही स्थिति इस वर्त्तमान काल में भी बनी हुई है। अर्थ वैचित्र्य और भाषा शैली का नूतन विकास जैसा कहानियों के भीतर प्रकट हुआ है, वैसा निबंध के क्षेत्र में नहीं देखने में आ रहा है, जो उसका उपयुक्त स्थान है। [ ५६१ ]यदि किसी रूप में गद्य की कोई नई गति-विधि दिखाई पड़ी तो काव्यात्मक गद्य-प्रबंधों के रूप में। पहले तो बंगभाषा के 'उद्भ्रात प्रेम' (चंद्रशेखर मुखोपाध्याय कृत) को देख कुछ लोग उसी प्रकार की रचना की ओर झुके; पीछे भावात्मक गद्य की कई शैलियों की ओर। 'उद्भ्रांत प्रेम' उस विक्षेप शैली पर लिखा गया था जिसमें भावावेश द्योतित करने के लिये भाषा बीच बीच मे असंबद्ध अर्थात् उखड़ी हुई होती थी। कुछ दिनों तक तो उसी शैली पर प्रेमोद्गार के रूप में पत्रिकाओं में कुछ प्रबंध––यदि उन्हें प्रबंध कह सके––निकले जिनमें भावुकता की झलक यहाँ से वहाँ तक रहती थी। पीछे श्री चतुरसेन शास्त्री के 'अंतस्तल' में प्रेम के अतिरिक्त और दूसरे भावों की भी प्रबल व्यंजना अलग अलग प्रबंधों में की गई जिनमें कुछ दूर तक एक ढंग पर चलती धारा के बीच बीच में भाव का प्रबल उत्थान दिखाई पड़ता था। इस प्रकार इन प्रबंधों की भाषा तरंगवती धारा के रूप में चली थी अर्थात् उसमें 'धारा' और 'तरंग' दोनों का योग था। ये दोनों प्रकार के गद्य बंगाली थिएटरों की रंग-भूमि के भाषणों के से प्रतीत हुए।

पीछे रवींद्र बाबू के प्रभाव से कुछ रहस्योन्मुख आध्यात्मिकता का रंग लिए जिस भावात्मक गद्य का चलन हुआ वह विशेष अलंकृत होकर अन्योक्ति-पद्धति पर चला। ब्रह्मसमाज ने जिस प्रकार ईसाइयों के अनुकरण पर अपनी प्रार्थना का विशेष दिन रविवार रखा था, उसी प्रकार अपने भक्ति-भाव की व्यंजना के लिये पुराने ईसाई-संतों की पद्धति भी ग्रहण की। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायगी। ईसा की बारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण में सत बरनार्ड (St–Bernard) नाम के प्रसिद्ध भक्त हो गए है, उन्होंने दूल्हे रूप ईश्वर के हृदय के 'तीसरे कक्ष' में प्रवेश का इस प्रकार उल्लेख किया है––

"यद्यपि वे कई बार मेरे भीतर आए, पर मैने न जाना कि वे कब आए। आ जाने पर कभी-कभी मुझे उनकी आहट मिली है; उनके विद्यमान होने का स्मरण भी मुझे है; वे आनेवाले हैं, इसका आभास मुझे कभी कभी पहले से मिला है; पर वे कब भीतर आए और कब बाहर गए इसका पता मुझे कभी न चला।" [ ५६२ ]इसी प्रकार उस परोक्ष आलंबन को प्रियतम मानकर उसके साथ संयोग और वियोग की अनेक दशाओं की कल्पना इस पद्धति की विशेषता है। रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' की रचना इसी पद्धति पर हुई है। हिंदी में भी इस ढंग की रचनाएँ हुई जिनमें राय कृष्णदासजी की 'साधना', 'प्रवाल' और 'छायापथ', वियोगी हरि जी की 'भावना' और 'अंतर्नाद' विशेष उल्लेख योग्य हैं। हाल में श्री भँवरमल सिंघी ने 'वेदना' नाम की इसी ढंग की एक पुस्तक लिखी हैं जिसके भूमिका-लेखक हैं भाषातत्व के देश-प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।

यह तो हुई अध्यात्मिक या सांप्रदायिक क्षेत्र से गृहीत लाक्षणिक भावुकता, जो बहुत कुछ अभिनीत या अनुकृत होती है अर्थात् बहुत कम दशाओं में हृदय की स्वाभाविक पद्धति पर चलती है। कुछ भावात्मक प्रबंध लौकिक प्रेम को लेकर भी मासिक पत्रों में निकलते रहते हैं जिनमें चित्र-विधान कम और कसक, टीस, वेदना अधिक रहती है।

अतीत के नाना खंडों में जाकर रमनेवाली भावुकता का मनुष्य की प्रकृति में एक विशेष स्थान है। मनुष्य की इस प्रकृतिस्थ भावुकता का अनुभव हम आप भी करते हैं और दूसरों को भी करते हुए पाते हैं। अतः यह मानव-हृदय की एक सामान्य वृत्ति है। बड़े हर्ष की बात है कि अतीत-क्षेत्र में रमानेवाली अत्यंत मार्मिक और चित्रमयी भावना लेकर महाराजकुमार डाक्टर श्री रघुबीरसिंह जी (सीतामऊ, मालवा) हिंदी साहित्य-क्षेत्र में आए। उनकी भावना मुगल-सम्राटों के कुछ अवशिष्ट चिह्न सामने पाकर प्रत्यभिज्ञा के रूप में मुगलसाम्राज्य-काल के कभी मधुर, भव्य और जगमगाते दृश्यों के बीच, कभी पतनकाल के विषाद, नैराश्य और वेबसी की परिस्थितियों के बीच बड़ी तन्मयता के साथ रमी है। ताजमहल , दिल्ली का लाल किला, जहाँगीर और नूरजहाँ की कब्र इत्यादि पर उनके भावात्कक प्रबंधों की शैली बहुत ही मार्मिक और अनूठी हैं।

गद्य-साहित्य में भावात्मक और काव्यात्मक गद्य को भी एक विशेष स्थान है, यह तो मानना ही पड़ेगा। अतः उपयुक्त क्षेत्र में उसका आविर्भाव और [ ५६३ ]प्रसार अवश्य प्रसन्नता की बात है। पर दूसरे क्षेत्रों में भी, जहाँ गंभीर विचार और व्यापक दृष्टि अपेक्षित है, उसे घसीटे जाते देख दुःख होता है। जो चिंतन के गूढ़ विषय हैं उनको भी लेकर कल्पना की क्रीड़ा दिखाना कभी उचित नहीं कहा जा सकता। विचार-क्षेत्रों के ऊपर इस भावात्मक और कल्पनात्मक प्रणाली का धावा पहले-पहल 'काव्य का स्वरूप' बतलानेवाले निबंधों में बंग-साहित्य के भीतर हुआ, जहाँ शेक्सपियर की यह उक्ति गूँज रही थी––

"सौंदर्य मद में झूमती हुई कवि की दृष्टि स्वर्ग से भूलोक और भूलोक से स्वर्ग तक विचरती* रहती है"[६]

काव्य पर जाने कितने ऐसे निबंध लिखे गए जिनमें सिवा इसके कि "कविता अमरावती से गिरती हुई अमृत की धारा है।" "कविता हृदय-कानन में खिली हुई कुसुम-माला है," "कविता देवलोक के मधुर संगीत की गूँज है" और कुछ भी न मिलेगा। यह कविता का ठीक ठीक स्वरूप बतलाना है कि उसकी विरुदावली बखानना? हमारे यहाँ के पुराने लोगों में भी 'जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि' ऐसी ऐसी बहुत सी विरुदावलियाँ प्रचलित थीं, पर वे लक्षण या स्वरूप पूछने पर नहीं कही जाती थीं। कविता भावमयी, रसमयी और चित्रमयी होती है, इससे यह आवश्यक नहीं कि उसके स्वरूप का निरूपण भी भावमयी, रसमय और चित्रमय हो। 'कविता' के ही निरूपण तक भावात्मक प्रणाली का यह धावा रहता तो भी एक बात थी। कवियों की आलोचना तथा और और विषयों में भी इसका दखल हो रहा है, यह खटके की बात है। इससे हमारे साहित्य में घोर विचार-शैथिल्य और बुद्धि का आलस्य फैलने की आशंका है। जिन विषयों के निरूपण में सूक्ष्म और सुव्यवस्थित विचार-परंपरा अपेक्षित है, उन्हें भी इस हवाई शैली पर हवा बताना कहाँ तक ठीक होगा?


[ ५६४ ]

समालोचना और काव्य-मीमांसा

इस तृतीय उत्थान में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अंतःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। तुलसीदास, सूरदास, जायसी, दीनदयाल गिरि और कबीरदास की विस्तृत आलोचनाएँ पुस्तकाकार और भूमिकाओं के रूप में भी निकलीं। इस इतिहास के लेखक ने तुलसी, सूर और जायसी पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं जिनमें से प्रथम 'गोस्वामी तुलसी' के नाम से पुस्तकाकार छपी है, शेष दो क्रमशः 'भ्रमरगीत-सार' और 'जायसी-ग्रंथावली' में संमिलित है। स्व॰ लाला भगवानदीन की सूर, तुलसी और दीनदयाल गिरि की समालोचनाएँ उनके संकलित और संपादित 'सूर-पंचरत्न', 'दोहावली' और 'दीनदयाल गिरि ग्रंथावली' में संमिलित है। पं॰ अयोध्या सिंह उपाध्याय की कबीर-समीक्षा उनके द्वारा संगृहीत 'कबीर-वचनावली' के साथ और डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल की 'कबीर-ग्रंथावली' के साथ भूमिका-रूप मे सनिविष्ट है।

इसके उपरांत 'कलाओं' और 'साधनाओं' का ताँता बँधा और

(१) केशव की काव्य-कला (श्री कृष्णशंकर शुक्ल),
(२) गुप्तजी की कला (प्रो॰ सत्येंद्र),
(३) प्रेमचंद की उपन्यास-कला (पं॰ जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'),
(४) प्रसाद की नाट्य कला,
(५) पद्माकर की काव्य-साधना (अखौरी गंगाप्रसादसिंह),
(६) 'प्रसाद' की काव्य-साधना (श्री रामनाथ लाल 'सुमन'),
(७) मीरा की प्रेम-साधना (पं॰ भुवनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव'),

एक दूसरे के आगे पीछे निकलीं। इनमें से कुछ पुस्तकें तो समालोचना की असली पद्धति पर निर्णयात्मक और व्याख्यात्मक दोनों ढंग लिए हुए चली हैं तथा कवि के बाह्य और आभ्यंतर दोनों का अच्छा परिचय कराती है, जैसे, 'केशव की काव्यकला', 'गुप्तजी की कला'। 'केशव की काव्यकला' में पं॰ कृष्णशंकर शुक्ल ने अच्छा विद्वत्तापूर्ण अनुसंधान भी किया है। उनका 'कविवर रत्नाकर' भी कवि की विशेषताओं को मार्मिक दंग से सामने रखता है। पं॰ गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' [ ५६५ ]कृत 'गुप्तजी की काव्यधारा' में भी मैथिलीशरण गुप्तजी की रचना के विविध पक्षों का सूक्ष्मता और मार्मिकता के साथ उद्घाटन हुआ है । 'पद्माकर की काव्य-साधना' द्वारा भी पद्माकर के संबंध में बहुत सी बातों की जानकारी हो जाती है। इधर हाल में पं॰ रामकृष्ण शुक्ल ने अपनी 'सुकविसमीक्षा' में कबीर, सूर, जायसी, तुलसी, मीरा, केशव, बिहारी, भूषण, भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर प्रसाद पर अच्छे मीक्षात्मक निबंध लिखे हैं। मीरा की प्रेम-साधना भावात्मक है जिसमें 'माधव' जी मीरा, के भावों का स्वरूप पहचानकर उन भावों में आप भी मग्न होते दिखाई पड़ते हैं। इन सब पुस्तकों से हमारा समीक्षा साहित्य बहुत कुछ समृद्ध हुआ है, इसमें संदेह नहीं। पं॰ शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'हमारे साहित्य-निर्माता' नाम की एक पुस्तक लिखकर हिंदी के कई वर्तमान कवियों और लेखकों की प्रवृत्तियों और विशेषताओं का अपने ढंग पर अच्छा आभास दिया है।

ठीक ठिकाने से चलनेवाली समीक्षाओं को देख जितना संतोष होता है, किसी कवि की समीक्षा के नाम पर उसकी रचना से सर्वथा असंबद्ध चित्रमयी कल्पना और भावुकता की सजावट देख उतनी ही ग्लानि होती है। यह सजावट अंग्रेजी के अथवा बँगला के समीक्षा-क्षेत्र से कुछ विचित्र, कुछ विदग्ध, कुछ अतिरंजित चलते शब्द और वाक्य ला लाकर खड़ी की जाती है। कहीं कहीं तो किसी अँगरेजी कवि के संबंध में की हुई समीक्षा का कोई खंड ज्यों का त्यों उठाकर किसी हिंदी-कवि पर भिड़ा दिया जाता है। ऊपरी रंग-ढंग से तो ऐसा जान पड़ेगा कि कवि के हृदय के भीतर सेध लगाकर घुसे है और बड़े बड़े गूढ़ कोने, झाँक रहे हैं, पर कवि के उद्धृत पद्यों से मिलान कीजिए तो पता चलेगा, कि कवि के विवक्षित भावों से उनके वाग्विलास का कोई लगाव नहीं। पद्य का आशय या भाव कुछ और है, आलोचकजी उसे उद्धृत करके कुछ और ही राग अलाप रहे है। कवि के मानसिक विकास का एक आरोपित इतिहास तक––किसी विदेशी कवि के मानसिक विकास का इतिहास कहीं से लेकर––वे सामने रखेंगे, पर इस बात का कहीं कोई प्रमाण न मिलेगा कि आलोच्य कवि के पचीस-तीस पद्यों का भी ठीक तात्पर्य उन्होंने समझा है। ऐसे आलोचकों के शिकार 'छायावादी' कहे जानेवाले कुछ कवि ही अभी हो रहे हैं। नूतन [ ५६६ ]शाखा के एक अच्छे कवि हाल ही में मुझसे मिले जो ऐसे कदरदानों से पनाह माँगते थे। अब सुनने में आ रहा है कि इस ढंग के ऊँचे हौसलेवाले दो एक आलोचक तुलसी और सूर के चारों ओर भी ऐसा ही चमचमाता वाग्जाल बिछानेवाले हैं।

काव्य की 'छायावाद' कही जानेवाली शाखा चले काफी दिन हुए। पर ऐसी कोई समीक्षा-पुस्तक देखने में न आई जिसमे उक्त शाखा की रचना प्रक्रिया (Technique), प्रसार की भिन्न-भिन्न भूमियाँ, सोच-समझकर निर्दिष्ट की गई हों। केवल प्रो॰ नगेंद्र की 'सुमित्रानंदन पंत' पुस्तक ही ठिकाने की मिली। बात यह है कि इधर अभिव्यंजना का वैचित्र्य लेकर 'छायावाद' चला, उधर उसके साथ ही प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा (Impressionist Criticism) का फैशन बंगाल होता हुआ आ धमका। इस प्रकार की समीक्षा में कवि ने क्या कहा है, उसका ठीक भाव या आशय क्या है, यह समझने या समझाने की आवश्यकता नहीं आवश्यक इतना ही है कि उसकी किसी रचना का जिसके हृदय पर जो प्रभाव पड़े उसका वह सुंदरता और अनूठेपन के साथ वर्णन कर दे। कोई यह नहीं पूछ सकता कि कवि का भाव तो कुछ और है, उसका यह प्रभाव कैसे पड़ सकता है। इस प्रकार की समीक्षा के चलन ने अध्ययन, चिंतन और प्रकृत समीक्षा का रास्ता ही छेंक लिया।

प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा कोई ठीक-ठिकाने की वस्तु ही नहीं। न ज्ञान के क्षेत्र में उसका कोई मूल्य है, न भाव के क्षेत्र में। उसे समीक्षा या आलोचना कहना ही व्यर्थ है। किसी कवि की आलोचना कोई इसी लिये पढ़ने बैठता है। कि उस कवि के लक्ष्य को, उसके भाव को, ठीक-ठीक हृदयंगम करने में सहारा मिले; इसलिये नहीं कि आलोचक की भाव-भंगी और सजीले पद-विन्यास द्वारा अपना मनोरंजन करे। यदि किसी रमणीय अर्थ-गर्भित पद्य की आलोचना इसी रूप में मिले कि "एक बार इसी कविता के प्रवाह में पड़कर बहना ही पड़ता है। स्वयं कवि को भी विवशता के साथ बहना पड़ा है, वह एकाधिक बार मयूर की भाँति अपने सौंदर्य्य पर आप ही नाच उठा है", तो उसे लेकर कोई क्या करेगा?

सारे योरप की बात छोड़िए, अँगरेजी के वर्तमान समीक्षा-क्षेत्र में ही प्रभा– [ ५६७ ]वाभिव्यंजक समीक्षा को निस्सारता प्रकट करनेवाली पुस्तकें बराबर निकल रही हैं[७]। इस ढंग की समीक्षाओं में प्रायः भाषा विचार में बाधक बनकर आ खड़ी होती है। लेखक का ध्यान शब्दों की तड़क-भड़क, उनकी आकर्षण योजना, अपनी उक्ति के चमत्कार, आदि में उलझा रहता है जिनके बीच स्वच्छंद विचारधारा के लिये जगह ही नहीं मिलती। विशुद्ध आलोचना के क्षेत्र में भाषा की क्रीड़ा किस प्रकार बाधक हुई है, कुछ बँधे हुए शब्द और वाक्य किस प्रकार विचारों को रोक रहे हैं, ऐसी बातें जिनकी कहीं सत्ता नहीं किस प्रकार घने वाग्जाल के भीतर से भूत बनकर झाँकती रही हैं, यह दिखाते हुए इस बीसवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध समालोचना-तत्त्वज्ञ ने बड़ी खिन्नता प्रकट की हैं[८]

हमारे यहाँ के पुराने व्याख्याताओं और टीकाकारों की अर्थक्रीड़ा प्रसिद्ध है। किसी पद्य का और का और अर्थ करना तो उनके बाएँ हाथ का खेल हैं। तुलसीदासजी की चौपाइयों से बीस बीस अर्थ करनेवाले अभी मौजूद हैं। अभी थोड़े दिन हुए, हमारे एक मित्र ने सारी 'बिहारी-सतसई' का शासरस-परक अर्थ करने की धमकी दी थी। फारसी के हाफिज आदि शायरों की शृंगारी उक्तियों के आध्यात्मिक अर्थ प्रसिद्ध हैं, यद्यपि अरबी-फारसी के कई पहुँचे हुए विद्वान् आध्यात्मिकता नहीं स्वीकार करते हैं। इस पुरानी प्रवृत्ति का नया संस्करण भी कहीं कहीं दिखाई पड़ने लगा हैं। रवींद्र बाबू ने अपनी प्रतिभा के बल से कुछ संस्कृत-काव्यों की समीक्षा करते हुए कहीं कहीं आध्यात्मिक अर्थों की योजना की [ ५६८ ]है। 'प्राचीन साहित्य' नाम की पुस्तक में मेघदूत आदि पर जो निबंध हैं उनमें ये बातें मिलेगी। काशी के एक व्याख्यान में उन्होंने 'अभिज्ञानशाकुंतल' के सारे आख्यान का आध्यात्मिक पक्ष निरूपित किया था। इस संबंध में हमारा यही कहना है कि इस प्रकार की प्रतिभापूर्ण कृतियों को भी अपना अलग मूल्य है। वे कल्पनात्मक साहित्य के अंतर्गत अवश्य है, पर विशुद्ध समालोचना की कोटि में नहीं आ सकती है।

योरपवालों को हमारी आध्यात्मिकता बहुत पसंद आती है। भारतीयों की आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता की चर्चा पच्छिम में बहुत हुआ करती है। इस चर्चा के मूल में कई बाते हैं। एक तो ये शब्द हमारी अकर्मण्यता और बुद्धि शैथिल्य पर परदा डालते है। अतः चर्चा या तारीफ करनेवालों में कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो चाहते है कि यह परदा पड़ा रहे। दूसरी बात यह है कि ये शब्द पूरबी और पच्छिमी जातियों के बीच एक ऐसी सीमा बाँधते है जिससे पच्छिम में हमारे संबंध में एक प्रकार का कुतूहल-सा जाग्रत रहता है और हमारी बातें कुछ अनूठेपन के साथ कही जा सकती है। तीसरी बात यह है कि आधिभौतिक समृद्धि के हेतु जो भीषण संघर्ष सैकड़ो वर्ष तक योरप में रहा उससे क्लति और शिथिल होकर बहुत से लोग जीवन के लक्ष्य में कुछ परिवर्तन चाहने लगे––शांति और विश्राम के अभिलाषी हुए। साथ ही साथ धर्म और विज्ञान का झगड़ा भी बंद हुआ। अतः योरप में जो इधर, अध्यात्मिकता की चर्चा बढ़ी वह विशेषतः प्रतिवर्तन (Reaction) के रूप में। स्वर्गीय साहित्याचार्य पं॰ रामवतारजी पांडेय और चंद्रधरजी गुलेरी इस आध्यात्मिकता की चर्चा से बहुत घबराया करते थे।

पुस्तकों और कवियों की आलोचना के अतिरिक्त पाश्चात्य काव्य-मीमांसा को लेकर भी बहुत से लेख और कुछ पुस्तकें इस काल में लिखी गई––जैसे, बा॰ श्यासुंदरदास कृत साहित्यालोचन, श्री पदुमलाल पुन्नीखाल बख्शी कृत विश्व-साहित्य। इनमें से पहिली पुस्तक तो शिक्षोपयोगी है। दूसरी पुस्तक में योरोपीय साहित्य के विकास तथा पाश्चात्य काव्य-समीक्षकों के कुछ प्रचलित-मतों का दिग्दर्शन है।

इधर दो एक लेखकों की एक और प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है। वे योरप के [ ५६९ ]कुछ कला संबंधी एकदेशीय और अत्युक्त मतों को सामने लाकर हिंदीवालों की आँखो में उसी प्रकार चकाचौंध उत्पन्न करना चाहते हैं जिस प्रकार कुछ लोग वहाँ के फैशन की तड़क-भड़क दिखाकर। जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस और स्वेडन इत्यादि अनेक देशों के नए-पुराने कवियों, लेखकों और समीक्षकों के नाम गिनाकर वे एक प्रकार का आतंक उत्पन्न करना चाहते हैं। वे कला संबंधी विलयिती पुस्तकों की बातें लेकर और कहीं मैटरलिंक (Materlinck), कहीं गेटे (Goethe), कहीं टाल्सटाय (Tolstoy) के उद्धरण देकर अपने लेखों की तड़क-भडक भर बढ़ाते हैं। लेखों को यहाँ से वहाँ तक पढ़ जाइए, लेखकों के अपने किसी विचार का कहीं पता न लगेगा। उद्धृत मतों की व्याप्ति कहाँ तक है, भारतीय सिद्धांतों के साथ उनका कहाँ सामजस्य है और कहाँ विरोध, इन सब बातों के विवेचन का सर्वथा अभाव पाया जाएगा। साहित्यिक विवेचन से संबंध रखनेवाले जिन भावों और विचारों के द्योतन के लिये हमारे यहाँ के साहित्य-ग्रंथों में बराबर से शब्द-प्रचलित चले आते हैं उनके स्थान पर भद्दे गढ़े हुए शब्द देखकर लेखकों की अनभिज्ञता की और बिना ध्यान गए नहीं रहता। समालोचना के क्षेत्र में ऐसे विचारशून्य लेखों से कोई विशेष लाभ नहीं।

पश्चिम के काव्य-कला संबंधी प्रचलित वादों में अकसर एकाग दृष्टि की दौड़ ही विलक्षण दिखाई पड़ा करती है। वहाँ के कुछ लेखक काव्य के किसी एक पक्ष को उसका पूर्ण स्वरूप मान, इतनी दूर तक ले जाते हैं कि उनके कथन में अनूठी सूक्ति का-सा चमत्कार आ जाता है और बहुत से लोग उसे सिद्धांत या विचार के रूप में ग्रहण कर चलते हैं। यहाँ हमारा काम काव्य के स्वरूप पर विचार करना या प्रबंध लिखना नही बल्कि प्रचलित प्रवृत्तियों और उनके उद्गमों तथा कारणों का दिग्दर्शन कराना मात्र है। अतः यहाँ काव्य या कला के संबंध में उन प्रवादों का, जिनका योरप में सबसे अधिक फैशन रहा है, संक्षेप में उल्लेख करके तब मैं इस प्रसंग को समाप्त करूँगा। इसकी आवश्यकता यहाँ मैं केवल इसलिये समझता हूँ कि एक ओर योरप में तो व्यापक और सूक्ष्म दृष्टि सपन्न समीक्षकों द्वारा इन प्रवादों का निराकरण हो रहा है, दूसरी ओर हमारे हिंदी साहित्य में इनकी भद्दी नकल शुरू हुई है। [ ५७० ]योरप में जिस प्रवाद का इधर सबसे अधिक फैशन रहा है वह है–– "काव्य का उद्देश्य काव्य ही हैं" या "कला का उद्देश्य कला ही है"। इस प्रवाद के कारण जीवन और जगत् की बहुत सी बाते, जिनका किसी काव्य के मूल्य निर्णय में बहुत दिनों से योग चला आ रहा था, यह कहकर टाली जाने लगीं कि "ये तो इतर वस्तुएँ है, शुद्ध कला-क्षेत्र के बाहर की व्यवस्थाएँ हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रवाद की योजना करनेवाले कई सामान खड़े हुए थे। कुछ तो इसमें जर्मन सौंदर्य-शास्त्रियों की, यह उद्भावना सहायक हुई कि सौंदर्य संबंधी अनुभव (AEsthetic experience) एक भिन्न ही प्रकार का अनुभव है जिसका और प्रकार के अनुभवों से कोई संबंध ही नहीं। इससे बहुतेरे साहित्यशास्त्री यह समझने लगे कि कला का मूल्य-निर्धारण भी उसके मूल्य को और सब मूल्यों से एकदम विच्छिन्न करके ही होना चाहिए। ईसा की १९वीं शताब्दी के मध्य भाग में ह्विस्लर (Whistler) ने यह मत प्रवर्तित किया जिसका चलन अब तक किसी न किसी रूप में रहा है। अँगरेजी में इम मत के सबसे प्रभावशाली व्याख्याताओं में डाक्टर ब्रेंडले (Dr. Bradley) हैं।

उन्होंने इस संबंध में कहा है––"यह (काव्य-सौंदर्य संबंधी) अनुभव अपना लक्ष्य आप ही है; इसका अपना निराला मूल्य है। अपने विशुद्ध क्षेत्र के बाहर भी इसका और प्रकार का मूल्य हो सकता है। किसी कविता से यदि धर्म और शिष्टाचार का भी साधन होता हो, कुछ शिक्षा भी मिलती हो, प्रबल मनोविकारो का कुछ निरोध भी संभव हो, लोकोपयोगी विधानों में कुछ सहायता भी पहुँचती हो अथवा कवि को कीर्ति या अर्थलाभ भी हो तो अच्छी ही बात है। इनके कारण भी उसकी कदर हो सकती है। पर इन बाहरी बातों के मूल्य के हिसाब से उसे कविता की उत्तमता की असली जाँच नहीं हो सकती। उसकी उत्तमता तो एक तृप्तिदायक कल्पनात्मक अनुभव-विशेष से संबंध रखती है। अतः उसकी परीक्षा भीतर से ही हो सकती है। किसी कविता को लिखते या जाँचते समय यदि बाहरी मूल्यों की ओर भी ध्यान रहेगा तो बहुत करके उसका मूल्य घट जायगा या छिप जाएगा। बात यह है कि कविता को यदि हम उसके विशुद्ध क्षेत्र से बाहर ले जायँगे तो उसका स्वरूप बहुत कुछ विकृत हो जाएगा, [ ५७१ ]क्योंकि उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग है, न अनुकृति। उनकी तो एक दुनिया ही निराली है––एकांत, स्वतःपूर्ण और स्वत्रंत।"[९]

काव्य और कला के संबंध में अब तक प्रचलित इस प्रकार के नाना अर्थवादों का पूरा निराकरण रिचर्ड्स (I. A. Richards) ने अपनी पुस्तक "साहित्यसमीक्षा सिद्धांत" (Principles of Literary Criticism)[१०] में बड़ी सूक्ष्म और गंभीर मनोवैज्ञानिक पद्धति पर किया है। उपर्युक्त कथन में चारों मुख्य बातों की अलग अलग परीक्षा करके उन्होंने उनकी अपूर्णता, अयुक्तता और अर्थहीनता-प्रतिपादित की हैं। यहाँ उनके दिग्दर्शन का स्थान नहीं। प्रचलित सिद्धांत का जो प्रधान पक्ष है कि "कविता की दुनिया ही निराली हैं; उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग हैं, न अनुकृति" इस पर रिचर्ड्स के वक्तव्य का सारांश नीचे दिया जाता हैं––

"यह सिद्धांत कविता को जीवन से अगल समझने का आग्रह करता है। पर स्वंय डाक्टर ब्रैंडले इतना मानते हैं कि जीवन के साथ उसका लगाव भीतर-भीतर अवश्य है कि। हमारा कहना है कि यही भीतरी लगाव असल चीज है। ज्ञो कुछ काव्यानुभव (Poetic experience) होता है वह जीवन से ही होकर आता है काव्य-जगत् की शेष जगत् से भिन्न कोई सत्ता नहीं है न उसके कोई अलौकिक या विशेष नियम है। उसकी योजना बिल्कुल वैसे ही अनुभवों से हुआ करती है जैसे और सब अनुभव होते हैं। प्रत्येक काव्य एक परिमित अनुभवखंड मात्र है जो विरोधी उपादानों के संसर्ग से भी चटपट और कभी देर में छिन्न-भिन्न हो जाता है। साधारण अनुभवों से उसमे यही विशेषता होती है कि उसकी योजना बहुत गूढ़ और नाजुक होती है। जरा सी ठेस से वह चूर चूर हो सकता है। उसकी एक बड़ी भारी विशेषता यह है कि वह एक हृदय से दूसरे हृदय में पहुँचाया जा सकता है। बहुत से हृदय उसका अनुभव बहुत थोड़े ही फेरफार के साथ कर सकते हैं। काव्यानुभव से मिलते– [ ५७२ ]जुलते और भी अनुभव होते हैं, पर इस अनुभव की सबसे बड़ी विशेषता हैं। यही सर्वग्राह्यता (Communicability) इसीलिए इसके प्रतीति-काल में हमें इसे अपनी व्यक्तिगत विशेष बातों की छूत से बचाए रखना पड़ता है[११]। यह सबके अनुभव के लिये होता है, किसी एक ही के नहीं। इसीलिये किसी काव्य को लिखते या पढ़ते समय हमें अपने अनुभव के भीतर उस काव्य और उस काव्य से इतर वस्तुओं के बीच अलगाव करना पड़ता है। पर यह अलगाव दो सर्वथा भिन्न या असमान वस्तुओं के बीच नहीं होता, बल्कि एक ही कोटि की वृत्तियों के भिन्न भिन्न विधानों के बीच होता हैं[१२]

यह तो हुई रिचर्ड्स की मीमांसा। अब हमारे यहाँ के संपूर्ण काव्यक्षेत्र की अंतःप्रकृति की छानबीन कर जाइए, उसके भीतर जीवन के अनेक पक्षों पर और जगत् के नाना रूपों के साथ मनुष्य-हृदय का गूढ़ सामंजस्य निहित मिलेगा। साहित्यशास्त्रियों का मत लीजिए तो जैसे संपूर्ण जीवन अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का साधन रूप है वैसे ही उसका एक अंग काव्य भी। 'अर्थ' का स्यूल और संकुचित अर्थ द्रव्यप्राप्ति ही नहीं लेना चाहिए, उसका व्यापक अर्थ 'लोक की सुखसमृद्धि' लेना चाहिए। जीवन के और साधनों की अपेक्षा काव्यानुभव में विशेषता यह होती है कि वह एक ऐसी रमणीयता के रूप में होता है जिसमें व्यक्तित्व का लय हो जाता है। बाह्य जीवन और अनजीवन की कितनी उच्च भूमियों पर इसे रमणीयता का उद्घाटन हुआ है, किसी काव्य की उच्चता और उत्तमता के निर्णय में इसका विचार अश्वय होता आया है, और होगा। हमारे यहाँ के लक्षणग्रथों में रसानुभव को जो 'लोकोत्तर' और 'ब्रह्मानंद-सहोदर' आदि कहा [ ५७३ ]है वह अर्थवाद के रूप में, सिद्धांत रूप में नहीं। उसका तात्पर्य केवल इतना ही हैं कि रस में व्यक्तित्व का लय हो जाता है।

योरप में समालोचना शास्त्र का क्रमागत विकास फ्रांस में ही हुआ। अतः फ्रांस का प्रभाव यूरोपीय देशों में बहुत कुछ रहा। विवरणात्मक समालोचना के अंतर्गत ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना का उल्लेख हो चुका है। पीछे प्रभाववादियों (Impressionists) का जो दल खड़ा हुआ वह कहने लगा कि हमें किसी कवि की प्रकृति, स्वभाव, सामाजिक परिस्थिति आदि से क्या प्रयोजन? हमें तो केवल किसी काव्य को पढ़ने से जो आंनदपूर्ण प्रभाव हमारे चित्त पर पड़ता है उसी को प्रकट करना चाहिए और उसी को समालोचना समझना चाहिए। प्रभाववादियों का पक्ष यह है "हमारे चित्त पर किसी काव्य से जो आंनद उत्पन्न होता है वही आलोचना है। इससे अधिक आलोचना और चाहिए क्या? जो प्रभाव हमारे चित्त पर पड़े उसी का वर्णन यदि हमने कर दिया तो समालोचना हो गई।" कहने की आवश्यकता नहीं कि इस मत के अनुसार समालोचना एक व्यक्तिगत वस्तु है। उसके औचित्य अनौचित्य पर किसी को कुछ विचार करने की जरूरत नहीं। जिसपर जैसा प्रभाव पड़े वह वैसा कहे।

उक्त प्रभाववादियों की बात लें तो समालोचना कोई व्यवस्थित शास्त्र नहीं रह गया। वह एक कला की कृति से निकली हुई दूसरी कला की कृति, एक काव्य से निकला हुआ दूसरा काव्य, ही हुआ है।

काव्य की स्वरूप-मीमांसा के संबंध में योरप में इधर सबसे अधिक जोर रहा है 'अभिव्यंजनावाद' (Expressionism) का, जिसके प्रवर्तक हैं इटली के क्रोचे (Benedetto Croce) इसमें अभिव्यजना अर्थात् किसी बात को कहने का ढंग ही सब कुछ हैं, बात चाहे जो या जैसी हो अथवा कुछ ठीक ठिकाने की न भी हो। काव्य में जिस वस्तु या भाव का वर्णन है वह इस वाद के अनुसार उपादान मात्र है; समीक्षा में उसका कोई विचार अपेक्षित नहीं। काव्य में मुख्य वस्तु है वह आकार या साँचा जिसमें वह वस्तु या भाव डाला जाता है[१३]। जैसे कुंडल की सुंदरता की चर्चा उसके आकार या [ ५७४ ]रूप को लेकर होती है, सोने को लेकर नहीं, वैसे ही काव्य के संबंध में भी समझना चाहिए। तात्पर्य यह कि अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन ही सब कुछ है, जिस वस्तु या भाव की अभिव्यंजना की जाती है, वह क्या है, कैसा है, यह सब काव्यक्षेत्र के बाहर की बात है। क्रोचे का कहना है कि अनूठी उक्ति की अपनी अलग सत्ता होती है, उसे किसी दूसरे कथन का पर्याय न समझना चाहिए। जैसे, यदि किसी कवि ने कहा कि "सोई हुई आशा आँख मलने लगी", तो यह न समझना चाहिए कि उसने यह उक्ति इस उक्ति के स्थान पर कही है कि "फिर कुछ कुछ आशा होने लगी।" वह एक निरपेक्ष उक्ति हैं। कवि को वही कहना ही था। वाल्मिकि ने जो यह कहा कि "न स संकुचितः यथाः येन वाली हतो गतः", वह इसके स्थान पर नहीं कि "तुम भी बाली के समान मारे जा सकते हो।"

इस वाद में तथ्य इतना ही है कि उक्ति ही कविता है, उसके भीतर जो छिपा अर्थ रहता है वह स्वतः कविता नहीं। पर यह बात इतनी दूर तक नहीं घसीटा जा सकती कि उसे उक्ति की मार्मिकता का अनुभव उसकी तह में छिपी हुई वस्तु या भाव पर बिना दृष्टि रखे ही हो सकता है। बात यह है कि 'अभिव्यंजनावाद' भी 'कलावाद' की तरह काव्य का लक्ष्य बेल-बूटे की नक्काशीवाला सौंदर्य मानकर चला है, जिसका मार्मिकता या भावुकता से कोई संबंध नहीं। और कलाओं को छोड़ यदि हम काव्य ही को ले तो इस 'अभिव्यंजनावाद' को 'वाग्वैचित्र्यवाद' ही कह सकते हैं और इसे अपने यहाँ के पुराने "वकोक्तिवाद' का विलायती उत्थान मान सकते हैं।

इन्हीं दोनों वादों की दृष्टि से यह कहा जाने लगा कि समालोचना के क्षेत्र से अब लक्षण, नियम, रीति, काव्यभेद, गुणदोष, छंदोव्यवस्था आदि का विचार उठ गया[१४]। पर इस कथन को व्याप्ति कहाँ तक है, यह विचारणीय है। साहित्य के ग्रंथों में जो लक्षण, नियम आदि दिए गए थे वे विचार की व्यवस्था के लिये, काव्य संबंधों चर्चा के सुबीते के लिये। पर इन लक्षणों और नियमों का उपयोग गहरे और कठोर बंधन की तरह होने लगा और [ ५७५ ]उन्हीं को बहुत से लोग सब कुछ समझने लगे। जब कोई बात हद से बाहर जाने लगती है तब प्रतिवर्तन (Reaction) का समय आता है। योरप में अनेक प्रकार के वादों की उत्पत्ति प्रतिवर्तन के रूप में ही हुआ करती है। अतः हमें सामंजस्य-बुद्धि से काम लेकर अपना स्वतंत्र मार्ग निकालना चाहिए।

वेल बूटे और नक्काशी के लक्ष्य के समान काव्य का भी लक्ष्य सौंदर्यविधान लगातार कहते रहने से काव्य रचना पर जो प्रभाव पड़ा है, उसका उल्लेख हो चुका है और यह भी कहा जा चुका है कि यह सब काव्य के साथ 'कला' शब्द लगने के कारण हुआ हैं। हमारे यहाँ काव्य की गिनती ६४ कलाओं के भीतर नहीं की गई है। यहाँ इतना और सूचित करना आवश्यक जान पड़ता है कि सौंदर्य की भावना को रूप देने में मनोविज्ञान के क्षेत्र से आए हुए उस सिद्धांत का भी असर पड़ा है जिसके अनुसार अतस्सज्ञा में निहित अतृप्त काम वासना ही कला-निर्माण की प्रेरणा करनेवाली अंतर्वृत्ति है। योरप में चित्रकारी, मूर्तिकारी, नक्काशी, बेल-बूटे आदि के समान कविता भी 'ललित कलाओं' के भीतर दाखिल हुई, अतः धीरे धीरे उसका लक्ष्य भी सौंदर्य-विधान ही ठहराया गया। जब कि यह सौंदर्य भावना काम वासना द्वारा प्रेरित ठहराई गई तब पुरुष कवि के लिये यह स्वाभाविक ही ठहरा कि उसकी सारी सौंदर्य-भावना स्त्रीमयी हो अर्थात् प्रकृति के अपार क्षेत्र में जो कुछ सुंदर दिखाई पड़े उसकी भावना स्त्री के रूप-सौंदर्य के भिन्न-भिन्न अंग लाकर ही की जाय। "अरुणोदय की छटा का अनुभव कामिनी के कपोलो पर दौड़ी हुई लज्जा की ललाई लाकर किया जाय; राका रजनी की सुषमा का अनुभव सुंदरी के उज्ज्वल वस्त्र या शुभ्र हास द्वारा किया जाय आकाश में फैलती हुई कादंबिनी तब तक सुंदर न लगे जब तक उस पर स्त्री के मुक्त कुंतल का आरोप न हो। आजकल तो स्त्री-कवियों की कमी नहीं है। उन्हें अब पुरुष कवियों का दीन अनुकरण न कर अपनी रचनाओं में क्षितिज पर उठती हुई मेघमाला को दाढ़ी-मूछ के रूप में देखना चाहिए।

काव्यरचना और काव्यचर्चा दोनो में इधर 'स्वप्न' और 'मंद' का प्रधान स्थान रहने लगा है। ये दोनों शब्द काव्य के भीतर प्राचीन समय में धर्म संप्रदायों से आए। लोगो की धारण थी कि संत या सिद्ध लोगों को बहुत [ ५७६ ]सी बातों का आभास या तो स्वप्न में मिलता था अथवा तन्मयता की दशा में। कवियों को अपने भावों में मग्न होते देख लोग उन्हें भी इस प्रत्यक्ष जगत् और जीवन से अलग कल्पना के स्वप्न-लोक में विचरनेवाले जीव प्यार और श्रद्धा से कहने लगे। यह बात बराबर कवियों की प्रशंसा में अर्थवाद के रूप में चलती रही। पर ईसा की इस बीसवीं सदी में आकर वह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में फ्रायड (Freude) द्वारा प्रदर्शित की गई। उसने कहा कि जिस प्रकार स्वप्न अतस्संज्ञा से निहित अतृप्त वासनाओ की तृप्ति का एक अंतर्विधान है, उसी प्रकार कलाओं को निर्माण करनेवाली कल्पना भी। इससे कवि कल्पना और स्वप्न का अभेद-भाव भी पक्का हो गया। पर सच पूछिए तो कल्पना में आई हुई वस्तुओं की अनुभूति और स्वप्न में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं की अनुभूति के स्वरूप में बहुत अंतर हैं। अतः काव्यरचना या काव्यचर्चा में 'स्वप्न' की बहुत अधिक भरमार अपेक्षित नहीं है। यों कहीं कहीं साम्य के लिये यह शब्द आ जाया करे तो कोई हर्ज नहीं।

अब 'मद' और 'मादकता' लीजिए। काव्यक्षेत्र में इसका चलन फारस में बहुत पहले से अनुमित होता है। यद्यपि इसलाम के पूर्व वहाँ का सारा साहित्य नष्ट कर दिया गया, उसका एक चिट भी कहीं नहीं मिलता है, पर शायरी में 'मद' और 'प्याले' की रूढ़ि बनी रही जिसको सूफियों ने और भी बढाया। सूफी शायर दीन-दुनिया से अलग, प्रेममद में मतवाले आजाद जीव माने जाते थे। धीरे धीरे कवियों के संबंध में भी 'मतवालेपन’ और 'फक्कड़पन' की भावना वहाँ जड़ पकड़ती गई और वहाँ से हिंदुस्तान में आई। योरप में गेटे और वर्ड्स्वर्थ के समय तक 'मतवालेपन' और 'फक्कड़पन' की इस भावना का कवि और काव्य के साथ कोई नित्य-सबंध नहीं समझा जाता था। जर्मन कवि गेटे बहुत ही व्यवहार-कुशल राजनीतिज्ञ था; इसी प्रकार वर्ड् स्वर्थ भी लोक-व्यवहार से अलग एक रिंद नहीं माना जाता था। एक खास ढंग का फक्कड़पन और मतवालापन वाइरन और शैली में दिखाई पड़ा जिनकी चर्चा योरप ही तक रहकर अँगरेजी साहित्य के साथ साथ हिंदुस्तान तक पहुँची। इससे मतवालेपन और फकड़पन की जो भावना पहले से फारसी साहित्य के प्रभाव से बँधती आ रही थी वह और भी पक्की हो गई। [ ५७७ ]भारत में मतवालेपन या फक्कड़पन की भावना अघोरपंथ आदि कुछ सप्रदायों में तथा सिद्ध बनने वाले कुछ साधुओं में ही चलती आ रही थी। कवियों के संबंध में इसकी चर्चा नहीं थी। यहाँ तो कवि के लिये लोकव्यवहार में कुशल होना आश्वयक समझा जाता था। राजशेखर ने काव्य-मीमांसा में कवि के जो लक्षण कहे हैं उससे यह बात स्पष्ट हो जायगी। यह ठीक है कि राजशेखर ने राज सभाओं में बैठनेवाले दरबारी कवियों के स्वरूप का वर्णन किया है और वह स्वरूप, एक विलासी दरबारी का है, मुक्त हृदय स्वच्छंद कवि का नहीं। पर वाल्मीकि से लेकर, भवभूति और पंडितराज तथा चंद से लेकर ठाकुर और पद्माकर तक कोई मद से झूमनेवाला, लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ था बेपरवा फक्कड़ नहीं माना गया।

प्रतिभाशाली कवियों की प्रवृत्ति अर्थ में रत साधारण लोगों से भिन्न और मनस्विता लिए होती है तथा लोगों के देखने में कभी कभी एक सनक सी जान पड़ती है। जैसे और लोग अर्थ की चिंता में लीन होते हैं वैसे ही वे अपने किसी उद्भावित प्रसंग में लीन दिखाई पड़ते हैं। प्रेम और श्रद्धा के कारण लोग इन प्रवृत्तियों को अत्युक्ति के साथ प्रकट करते हुए 'मद में झूमना' 'स्वप्न में लीन रहना', 'निराली दुनिया में विचरना' कहने लगे। पर इसका यह परिणाम न होना चाहिए कि कवि लोग अपनी प्रशस्ति की इन अत्युक्त बातों को ठीक ठीक चरितार्थ करने में लगे।

लोग कहते हैं कि समालोचकगण अपनी बातें कहते ही रहते है, पर कवि लोग जैसी मौज होती है वैसी रचना करते ही हैं। पर यह बात नहीं है। कवियों पर साहित्य-मीमांसकों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ता है। बहुतेरे कवि––विशेषतः नए––उनके आदर्शों के अनुकूल चलने का प्रयत्न करने लगते है। उपर्युक्त वादों के अनुकूल इधर बहुत कुछ काव्यरचना योरप में हुई, जिसका कुछ अनुकरण बँगला में हुआ। आजक़ल, हिंदी की जो कविता 'छायावाद' के नाम से पुकारी जाती है उसमें इन सब वादों का मिला जुला अभास पाया जायगा। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इन सब हिंदी कवियों ने उनके सिद्धांत सामने रखकर रचना की है। उनके आदर्शों के अनुकूल कुछ कविताएँ योरप में हुईं, जिनकी देखा-देखी बँगला और हिंदी में भी होने लगीं। [ ५७८ ]इस प्रसंग में इतना लिखने का प्रयोजन केवल यही है, की योग्य के साहित्य-क्षेत्र में फैशन के रूप में प्रचलित बातों को कच्चे-पक्के ढंग से सामने लाकर कुतुहल उत्पन्न करने की चेष्टा करना अपने मस्तिकशून्यता के साथ ही साथ समस्त हिंदी पाठकों पर मस्तिकशुन्यता का आरोप करना है। काव्य और कला पर निकलने वाले भड़कीले लेखों में आवश्यक अनिशता और स्वतंत्र विचार का अभाव देख दुःख होता है। इधर कुछ दिनों में "सत्यं, शिव, सुदरम्" की बड़ी धूम हैं, जिसे कुछ लोग शायद उपनिषद्-वाक्य समझकर "अपने यहाँ भी कहा है" लिखकर उद्धृत किया करते है। यह कोमल पदावली ब्रह्मसमाज के महृर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर की हैं और वास्तव में The True, the Good and the Beautiful का अनुवाद है[१५]। बस इतना और कहकर मैं इस प्रसंग को समाप्त करता हूँ, किसी साहित्य में केवल बाहर की भद्दी नकल उसकी अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए, खूब आए, पर वह कूढ़ा करकट के रूप में न इकठ्ठी की जाय। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उसपर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय; जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे।

 

  1. साहित्य-दर्पणकार ने शृंगार रस के उदाहरण में "शून्य वासगृहं विलोक्य" यह श्लोक उद्धृत किया। रस-गंगाधरकार ने इस श्लोक में अनेक दोष दिखलाए और उदाहरण में अपना बनाया श्लोक भिड़ाया। हिंदी-कवियों में श्रीपति ने दोषों के उदाहरण में केशवदास के पद्य रखे हैं।
  2. Methods and Materials of Literary Criticism.––Gayley & Scott.
  3. The ranking of writers in order of merit has become obsolete.––The New Criticism by J. E Spingarn (1911)
  4. देखिए "भ्रमरगीतसार" की भूमिका।
  5. -देखो पृ॰ ५३८ का अंतिम पैरा।
  6. The poet's eye in frenzy rolling Doth glance from heaven to earth and earth to heaven
  7. देखिए Psychological Approach to Literary Criticism जिसमें यह अच्छी तरह दिखा दिया गया है कि प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा कोई समीक्षा ही नहीं।
  8. A diligent search will still find many Mystic Beings.........sheltering in verbal thickets. While current attitudes to language persist, this difficulty of the imguistic phantom must still continue.

    ––'Principles of Literary Criticism'.

    By I. A. Richards

  9. Oxford Lectures on Poetry.
  10. Third Edition, 1928.
  11. इसी को साहित्य शास्त्र में 'साधारणीकरण' कहते हैं।
  12. But this is no severance between difference of the same activities The myth of a 'transmutation' or 'poetisation' of experience and that other myth of the 'contenplative' or 'aesthetic attitude' instead of talking about the concrete experiences which are Poems.
  13. An aesthetic fact is 'from' and nothing else.
  14. The New Criticism––by J. E. Spingarn (1911),
  15. Thus arises the phantom of the aesthetic mode or aesthetic state a legacy from the days of abstract investigation into the Good the Beautiful and the True.

    ––Principles of Literary Criticism.
    (I.A. Richards)