७९६ 3 [ कबीर कर कहते हैं कि इसीलिए हे जीव, तुम भगवान मे निरन्तर अपनी लौ लगाए रही । (यही कल्याण का मार्ग है)
अलंकार-1) रूपकातिशयोक्ति-स्यघ, वन, स्याल । (2) गूढोक्ति-किन सुमिरै'। (3) विरोधाभा--उलटि स्याल ' खाइ; जीत्या, तिरै; जीवत ही मरै । विशेष - (1) नाथ पथी प्रतीको का प्रयोग है । (2) यह पद उलटवंसी की शैली पर रचित है (3) 'अहकार' के रहते हुए प्रभु कैसे आ सकते है ? प्रेम-गली अत्यंत
सकरी है । इसमे 'मैं' और 'तू' मे एक ही रह सकता है ।
प्रेम गली अति साँकारी तामें दो न समाँय । रहिमन भरी सराइ लखि लौट मुसाफिर जाय । ( ३५० ) जागि रे जीव जागि रे । चोरन कौ डर बहुत कहत है, उठि उठि पहरै लागि रे ॥ टेक ॥ 1 ररा करि टोप ममां करि बखतर, ग्यान रतन करि षाग रे ।1 ऐसै जौ अजराइल मारै, मस्तकि आवै भाग रे ॥ ऐसी जगणीं जे को जागै, ता हरि देइ सुहाग रे ॥ कहै कबीर जाग्या ही चाहिये, क्या गृह क्या बैराग रे । 1 शब्दार्थ--वखतर=कवच । वाग=खड्गा, तलवार । अजराइल==अजरा-
डल = मृत्यु का देवदूत
सन्दर्भ- कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव विवेकपूर्ण आचरण करना
चाहिए ।
भावार्थ-रे जीव, जागो, जाग जाओ । इस जीवन मे (काम क्रोध, लोभ,
मोह मत्सर) रूपी चोरो का डर वहुत कहा जाता है । इसलिए तू उठ और उठकर पहरा लगा जिससे बोध वृत्ति रूपी घन की रक्षा होती रहे । ) इसके लिए तू राम के नाम का इस प्रकार सहारा ले-- रकार का शिरस्त्राण बना तथा मकार का कवच वना । ज्ञान रूपी रत्न की तलवार बनाले । इससे अज्ञान रूपी मृत्यु के देव दूत पर तुम ऐसा वार करो कि अहकार-रूपी उसका मस्तक पर तुम्हारा अधि- कार हो जाए । ऐसी जाग मे जो कोई जागता है अर्थात् जाग कर जो कोई इस प्रकार सावथान रहता है, उन पर भगवान अपने सौभाग्य की कृपा करते है । तात्पर्य यह है कि जो आत्मा-सुंर्दरी इस प्रकार की ज्ञानावस्था को प्राप्त करती है, उसको भगवान पति रूप मे प्राप्त होने है अर्थत् आत्मा का परमात्मा मे ,सान का अनन्त मे तय हो जाता हे| कबीर कहते है कि चाहे व्यक्ति गृहस्य हो अथवा विरक्त,उसको रादैव विकार रूपी चोरो के प्रति सावधान रहना ही चाहिए ।