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ग्रन्थावली ]
(|||)उपमा-मीन ज्यु तलपं | विशेप--इस पद गे रहस्य भावना एव भक्ति भावना का सुन्दर समन्वय है |इसमे समन्वित प्रेमानुभूति का विप्र्लम्भ रुप है | समभाव के लिए देखिए-- मैं हरि विन क्यो जिऊ री माई | पिव कारन वौरी भई, ज्यों धुन काठहि खाइ | X X X मीरौ के प्रभु लाल गिरधर | मिलि गये सुख दाइ |--मीरावाई (२५१) जातनि बेद न जानंगा जन सोई, सारा भरम न जांनै राम कोइ||टेक|| चषि बिन दिवस जिसी है सझा,व्यावन पीर न जांनै वझा | सूभुं करक न लागै कारी,बेद बिधाता करि मोहि सारी || कहै कबीर यहु दुख कासनि कहिये,अपनें तन की आप ही सहिये|| शब्दर्थ-करक=पीडा | सन्दर्भ-कबीर की विरहिणी आत्मा भगवत्दर्शन् के लिए व्याकुल है | भावार्थ-जिसके हदय मे विरह की पीडा है वही भगवन्प्रेमी उसको समभु सकता है| शेप समार को भ्र,मान है | राम के प्रेम की अनुभूति तो किसी किसी को होती है | नेत्रहीन के लिए तो जैसा दिन है वैसा ही सध्या है अर्थात अन्धे के लिए तो दिन-रात समान है | वन्ध्या नारी प्रसव की पीडा नही समभु सकती है |विरहिणी को अपनी पीडा भर दिखाई देती है और वह उसको बुरी भी नही लगती है | विरहिणी जीवात्मा कहती है कि हे भगवान रुपी वैघ, मेरी व्यथा को ठीक कर दो तुम वैघ बन कर आओ और दर्शन रूपी औषघि द्रारा मुभे स्वस्थ कर दो |कबीर कहते है कि इस प्रेम पीडा को किससे कहूँ | अपनी व्यथा स्वय ही सहनी पडती है | अलकार-टूष्टान्त्त--चषि बभा | विशेष--(|)सम्भाव देखिए-- घायल को गति घायल जाने और न जाने कोय | तथा--घायल-सो घूमत फिरू,दरद न जाणे कोइ | घान न भावै,नींद न आवै बिरह सतावै मोइ | --मीराबाई (||)अपने तन को आपन सहिये |ठीक ही है-- रहिमन] मन की चिथा मन मे राखी गोइ | लोग ह्ँसाई सब करै वोट न लेहै कोइ | --रहीम् (२५६) जन की पीर हो, राजा राम भल जांनै,काहूँ काहि को मांनै ||ट्के||