वही गुड़ का पानी बंटता था। पंचायत में एकत्र हर्जाने की रकम का एक भाग उड़ाही के संयोजन में खर्च होता था।
दक्षिण में धर्मादा प्रथा थी। कहीं-कहीं इस काम के लिए गांव की भूमि का एक हिस्सा दान कर दिया जाता था और उसकी आमदनी सिर्फ साद निकालने के लिए खर्च की जाती थी। ऐसी भूमि को कोडगे कहा जाता था।
राज और समाज मिलकर कमर कस लें तो फिर किसी काम में ढील कैसे आएगी। दक्षिण में तालाबों के रख-रखाव के मामले में राज और समाज का यह तालमेल खूब व्यवस्थित था। राज के खजाने से इस काम के लिए अनुदान मिलता था पर उसी के साथ हर गांव में इस काम के लिए एक अलग खज़ाना बन जाए, ऐसा भी इंतजाम था।
हर गांव में कुछ भूमि, कुछ खेत या खेत का कुछ भाग तालाब की व्यवस्था के लिए अलग रख दिया जाता था। इस पर लगान नहीं लगता था। ऐसी भूमि मान्यम् कहलाती थी। मान्यम् से होने वाली बचत, आय या मिलने वाली फसल तालाब से जुड़े तरह-तरह के कामों को करने वाले लोगों को दी जाती थी। जितनी तरह के काम, उतनी तरह के मान्यम्। जो काम जहां होना है, वहीं उसका प्रबंध किया जाता था, वहीं उसका खर्च जुटा लिया जाता था।
अलौति मान्यम् से श्रमिकों के पारिश्रमिक की व्यवस्था की जाती थी। अणैंकरण मान्यम् पूरे वर्ष भर तालाब की देखरेख करने वालों के लिए था। इसी से उन परिवारों की जीविका भी चलती थी, जो तालाब की पाल पर पशुओं को जाने से रोकते थे। पाल की तरह तालाब के आगौर में भी पशुओं के आने-जाने पर रोक थी। इस काम में भी लोग साल भर लगे रहते थे। उनकी व्यवस्था बंदेला मान्यम् से की जाती थी।
तालाब से जुड़े खेतों में फसल बुवाई से कटाई तक पशुओं को रोकना एक निश्चित अवधि तक चलने वाला काम था। यह भी बंदेला मान्यम् से पूरा होता था। इसे करने वाले पट्टी कहलाते थे।
सिंचाई के समय नहर का डाट खोलना, समय पर पानी पहुंचाना एक अलग ज़िम्मेदारी थी। इस सेवा को नीरमुनक्क मान्यम् से पूरा किया जाता था। कहीं किसान पानी की बर्बादी तो नहीं कर रहे—इसे देखने वालों का वेतन कुलमकवल मान्यम् से मिलता था।
तालाब में कितना पानी आया है, कितने खेतों में क्या-क्या बोया गया है, किसे कितना पानी चाहिए—जैसे प्रश्न नीरघंटी या नीरुकुट्टी हल करते
४५ आज भी खरे हैं तालाब