के जीवन हैं। उनके अभाव में उर्दू का अस्तित्व लोप हो जायगा। वह फ़ारसी बन जायगी अथवा कोई ऐसी भाषा जिसका नामकरण भी न हो सकेगा। फ़ारसी, अरबी के अधिक शब्द हिन्दी में मिला कर उर्दू गढ़ी गयी है अथवा उसका आविर्भाव हुआ है। ऐसी दशा में वह हिन्दी भाषा का रूपान्तर छोड़ और कुछ नहीं है। जब उर्दू की प्रवृत्ति अधिकतर फ़ारसी और अरबी प्रयोगों की ओर झुकी और लम्बे लम्बे समस्त पद भी उसमें इन भाषाओं के आने लगे उस समय वह हिन्दी से सर्वथा भिन्न ज्ञात होने लगी। यह बात हिन्दी के अस्तित्व का वाधक थी इस लिये उसका कोई निज का मार्ग होना आवश्यक था जिससे वह अपने मुख्य-रूप को सुरक्षित रख सके। उसका अपने वास्तविक रूप में विकसित होना भी बांछनीय था। अतएव खड़ी बोली की कविता उस मार्ग पर चली जो उसका लक्ष्य था। उसके कुछ पथ-प्रदर्शक इस मार्ग को जानते थे। अतएव वे उसके लक्ष्य की ओर सतर्क हो कर चल रहे थे। परन्तु कुछ लोग उर्दू की अनेक बातों का अन्धानुकरण करना चाहते थे। ऐसे अवसर पर जिन लोगों ने खड़ी बोली की कविता को उचित पथ पर चलाया उनमें से पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदो अन्यतम हैं। अपनी 'सरस्वती' नामक मासिक पत्रिका में उन्होंने अधिकतर खडी बोली की कविता ही प्रकाशित करने की ओर दृष्टि रखी और अनेक कृत-विद्याें को इस कार्य के लिये उत्साहित करके अपनी ओर आकर्षित किया। मुझको यह ज्ञात है कि जो खड़ी बोलचाल की कवितायें उनके पास उस समय 'सरस्वती' में प्रकाशित करने के लिये जाती थीं उनका संशोधन वे बड़े परिश्रम से करते थे और संशोधित कविता को ही 'सरस्वता' में प्रकाशित करते थे। इससे बहुत बड़ा लाभ यह होता था कि खड़ी बोली को कविता करनेवालों का ज्ञान बढ़ता था और वे यह जान सकते थे कि उनको किस मार्ग पर चलना चाहिये। इस प्रणाली से धीरे धीरे खड़ी बोली की कविता का मार्ग भी प्रशस्त हो रहा था। पं° महाबीर प्रसाद द्विवेदी ने इतना ही नहीं किया, उन्होंने कुछ खड़ी बोली की रचनायें भी की और इस रीति में भी उन्होंने खड़ी बोली की कविता-प्रणाली जनता के सामने उपस्थित की। उनका कुमार-
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