( ३८८ ) उनकी अधिकतर रचनायें कवित्त और सवैया में हैं। उनके कवित्तों में जितना प्रवल प्रवाह, ओज, अनुप्रास और यमक की छटा है. वह विल- क्षण है। सवैयों में यह बात नहीं है. परन्तु उनमें सरसता और मधुरता छलकती मिलती है। दो प्रकार के कवि या महाकवि देखे जाते हैं, एक की रचना प्रसादमयी और दूसरे की गम्भीर, गहन विचारमयी और गूढ़ होती है। इन दोनों गुणों का किसी एक कवि में होना कम देखा जाता है. देव जो में दोनों बातें पाई जाती हैं और यह उनकी उल्लेखनीय विशेषता है। मानसिक भावों के चित्रण में, कविता को संगीतमय बनाने में भावानुकूल शब्द-विन्यास में, भावानुसार शब्दों में ध्वनि उत्पन्न करने में और कविता को व्यंजनामय बना देने में महाकवियों की सी शक्ति देव जी में पायी जाती है। प्रायः ऐसे अवसर पर लोग तुलनात्मक समालोचना को पसन्द करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि ऐसा करनेसे एक से दूसरे का उत्कप दिखाने में बहुत बड़ी सहायता प्राप्त होती है। परन्तु ऐसी अवस्था में, निर्णय के लिये दोनो कवियों की समस्त रचनाओं को आलोचना होना आवश्यक है यह नहीं कि एक दूसरे के कुछ समान भाव के थोड़े से पद्यों को ले कर समालोचना की जाय और उसी के आधार पर एक से दूसरे को छोटा या बड़ा बना दिया जाय। यह एक देशिता है। कोई कवि दस विपयों को लिख कर सफलता पाता है और कोई दो चार बिपयों को लिख कर ही कृतकार्य होता है। ऐसो अवस्था में उन दोनों के कतिपय विषयों को लेकर ही तुलनात्मक समालोचना करना समुचित नहीं । समालोचना के समय यह भी विचारना चाहिये कि उनको रचना में लोक-मंगल की कामना और उपयोगिता कितनी है । उसका काव्य कौन सा संदेश देता है । और उसकी उपयुक्तता किस कोटि की है। बिना इन सब बातों पर विचार किये कुछ थोड़ेसे पद्योंको लेकर किसी का महत्त्व प्रतिपादन युक्ति संगत नहीं । अतएव में यह मीमांसा करनेके लिये प्रस्तुत नहीं हूं कि जो हिन्दी संसारके महाकवि हैं उनमेंसे किससे देव बड़े हैं और किससे छोटे । प्रत्येक विषय में प्रत्येकको महत्व प्राप्त नहीं होता, ओर न सभी विषयों में सब को उत्कप
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