( १८० ) रहस्यवाद की ऐसी सुन्दर रचनाओं के रचयिता हो कर भी कहीं कहीं कबीर साहब ने ऐसी बातें कही हैं जो बिल्कुल ऊटपटांग और निरर्थक मालूम होती हैं। इस पद को देखियःठगिनी क्या नैना झमकावै । कयिरा तेरे हाथ न आवै । कद्द, काटि मृदंग बनाया नीबू काटि मॅजीरा। सात तरोई मंगल गावै नाचै बालम खीरा ! भैंस पदमिनी आसिक चूहा मेड़क ताल लगावै चोला पहिरि गदहिया नाची ऊंट बिसुनपद गावै आम डार चढ़ि कछुआ तोड़े गिलहरि चुनिचुनिलावै कहै कबीर सुनो भाई साधो बगुला भोग लगावै । ऐसे पड़ों के अनर्गल अर्थ करने वाले मिल जाते हैं। परन्तु उनमें वास्तवता नहीं, धींगा धोंगी होती है। मेरा विचार है उन्होंने ऐसी रचनायें जनता को विचित्रता-समुद्र में निमग्न कर अपनी ओर आकर्पित करने ही के लिये की हैं। उनकी उल्टवासियाँ भी विचित्रताओं से भरी हैं। दो पद्य उनके भी देखियेदेखौ लोगो घर की सगाई। माय धरै पितुधिय सँग जाई । सासु ननद मिलि अदल चलाई । मादरिया गृह बेटी जाई। हम बहनोई राम मोर सारा । हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा। कहै कबीर हरी के बूता। राम रमैं ते कुकुरी के पूता। कवीर वीजक पृ० ३९३
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