( १७१ ) बाई बंध्या सयल जग, बाई किनहुं न बंध । बाइबिहूणा ढहिपरै, जोरै कोई न संधि ॥ चुणकर नाथ । कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इस लिये कबीर साहब की र( १७१ ) बाई बंध्या सयल जग, बाई किनहुं न बंध । बाइबिहणा ढहिपरै, जोरै कोई न संधि ॥ चुणकर नाथ। कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इस लिये कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनायें प्रभावित हैं, न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तक के निराकरण के लिये मैं प्रगट कर देना चाहता हूं कि जलंधर नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे। चौरंगीनाथ गारखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधरनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणकरनाथ भी इन्हीं के समकालोन थे १। इस लिये इन लोगोंका कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है । कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर जो रहस्यवाद से सम्बन्ध रखती हैं, वौद्धधम के उन सिद्धों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ । कबीर साहब की बहुत सी रचनायें ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्रायः किये जाते हैं। जैसे, घर घर मुसरी मंगल गावै, कछुवा संख बजावै । पहिरि चोलना गदहा नाचे, भैंसा भगत करावै॥ इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है. किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। वौद्धसिद्धों की भी ऐसी व्यर्थक अनेक रचनायें है। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनायें हैं वे सिद्धों १-देखिये नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ११, अंक ४ में प्रकाशित 'योगप्रवाह' मामक लेख। चनाओं से स्वयं उनकी रचनायें प्रमा- वित हैं, न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तक के निराकरण के लिये मैं प्रगट कर देना चाहता हूं कि जलंधर नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे। चौरंगीनाथ गारखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधरनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणकरनाथ भी इन्हीं के समका- लोन थे १। इस लिये इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है । कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर जो रहस्यवाद से सम्बन्ध रखती हैं, वौद्धधर्म के उन सिद्धों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ । कबीर साहब की बहुत सी रचनायें ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अथ प्रायः किये जाते हैं। जैसे, घर घर मुसरी मंगल गावै, कछुवा संख बजावै । पहिरि चोलना गदहा नाचे, भैंसा भगत करावै ॥ इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है. किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौद्धसिद्धों की भी ऐसी व्यर्थक अनेक रचनायें है। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनायें हैं वे सिद्धों १-देखिये नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ११, अंक ४ में प्रकाशित 'योगप्रवाह' मामक लेख ।
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