पृष्ठ:हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण.pdf/४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

प्रस्तावना

सन् १८६८ ई॰ में भारत सरकार ने लाहौर निवासी पंडित राधाकृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकृत कर भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रांतों में हस्त-लिखित संस्कृत पुस्तकों की जाँच का काम आरंभ करना निश्चित किया; और इस निश्चय के अनुसार अब तक संस्कृत पुस्तकों की खोज का काम सरकार की ओर से बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी, बम्बई और मद्रास गवर्नमेंटों तथा अन्य संस्थाओं और विद्वानों द्वारा निरंतर होता आ रहा है। इस खोज का जो परिणाम आज तक हुआ है और इससे भारतवर्ष की जिन जिन साहित्यिक तथा ऐतिहासिक बातों का पता चला है, वे पंडित राधाकृष्ण की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता तथा भारत सरकार की समुचित कार्यतत्परता और विद्यारसिकता के प्रत्यक्ष और ज्वलंत प्रमाण हैं। संस्कृत पुस्तकों की खोज-संबंधी डाक्टर कीलहार्न, बूलर, पीटर्सन, भांडारकर और बर्मैल आदि की रिपोर्टों के आधार पर डाक्टर आफ्रेक्ट ने तीन भागों में, संस्कृत पुस्तकों तथा उनके कर्त्ताओँ की एक वृहत् सूची सौंपी है जो बड़े महत्त्व की है और जिसको देखने से संस्कृत साहित्य के विस्तार तथा महत्त्व का पूरा पूरा परिचय मिलता है। इसका नाम कैटेलोगस कैटेलोगरम है। ऐसे ही महत्त्व के व्रतों में आफरेक्ट का आक्सफर्ड की बोडलियन लाइब्रेरी का सूचीपत्र, एन्गलिंग की इंडिया ऑफिस की पुस्तकों का सूचीपत्र, और वेबर का बर्लिन के राजपुस्तकालय का सूचीपत्र है।

काशी नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना के पहले ही वर्ष (सन् १८९३ ई॰) में इसके संचालकों का ध्यान इस महत्त्वपूर्ण विषय की ओर आकर्षित हुआ। सभा ने इस बात को भली भाँति समझ लिया और उसे इसका पूरा पूरा विश्वास हो गया कि भारतवर्ष की, विशेष कर उत्तर भारत की, बहुत सी साहित्यिक तथा ऐतिहासिक बातें बेठनों में लपेटी, अँधेरी कोठरियों में बंद हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों में छिपी पड़ी हैं। यदि किसी को कुछ पता भी है अथवा किसी व्यक्ति के घर में कुछ हस्तलिखित पुस्तकें संगृहीत भी हैं तो वे या तो मिथ्या मोहवश अथवा धनाभाव के कारण इस छिपे हुए रत्नों को सर्वसाधारण के सम्मुख उपस्थित कर अपनी देशभाषा के साहित्य को लाभ पहुँचाने और उसे सुरक्षित करने से पराङ्मुख हो रहे हैं।

सभा यह भली भाँति समझती थी कि इन छिपी हुई हस्तलिखित पुस्तकों को ढूँढ़ निकालने में तथा इनको प्राप्त करने में बड़ी बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा; क्योंकि सभ्यता की इस बीसवीं शताब्दी में भी ऐसे बहुत से लोग मिल जाते हैं जो अपनी प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों का, देने की बात तो दूर रही, दिखाने में भी आनाकानी करते हैं। तथापि यह सोचकर कि कदाचित् नीति, धैर्य और परिश्रम से काम करने पर कुछ लाभ अवश्य होगा, सभा ने यह विचार किया कि यदि राजपुताने, बुंदेलखंड,