'नवजीवन' के पाठक वर्ग में बहुत सारी बहनें हैं तथा कुछ पारसी और कुछ मुसलमान हैं । और मुझे भय है कि इन सबके लिए देवनागरी लिपि पढ़ना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । यदि मेरी यह धारणा सही है तो में 'नवजीवन' को देवनागरी लिपिमें नहीं छाप सकता । चूंकि देवनागरी लिपिका प्रचार मेरा खास विषय नहीं है, इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि उसमें पहल करनेकी जोखिम में नहीं उठा सकता। इसके सिवा, गुजराती 'नवजीवन' देवनागरी लिपिमें प्रकाशित किया गया तो भी हिन्दी 'नवजीवन'की आवश्यकता बनी ही रहेगी । उसके पाठक गुजराती नहीं समझ सकते ।
परन्तु पत्र लेखकका सुझाव अमलमें लाने योग्य है, उसे समाचारपत्रोंकी ओरसे प्रोत्साहन मिलना चाहिए, और उसके बारेमें 'नवजीवन के पाठकोंका अभिप्राय भी जानना चाहिए, इसीलिए मैंने उपर्युक्त पत्र प्रकाशित किया है । पत्र लिखनेवालेको मेरी सलाह है कि वे पत्र लिखने-भरसे ही सन्तोष न मानें अपितु यदि उन्हें फुरसत हो तो अपने विचारोंका प्रचार करनेके लिए अपना जीवन अर्पित कर दें ।
[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २६-६-१९२७
५७. परोपकारी डॉक्टर
डॉक्टर लाला मथुरादासने वढवानके सैकड़ों पीड़ितोंकी आँखोंके कष्ट दूर कर दिये, इसका वर्णन करते हुए भाई अमृतलाल सेठने[१] मुझे एक पत्र लिखा है । में उक्त पत्र लगभग ज्योंका-त्यों नीचे दे रहा हूँ ।
गुजरे जमाने में वैद्यगण परोपकारार्थ ही वैद्यक किया करते थे । अपनी आजीविका चलानेके लिए जितना चाहिए उतना उन्हें धनीवर्गसे मिल जाता था किन्तु यह उनकी फीस नहीं मानी जाती थी । वे मानते थे कि वैद्योंका धर्म रोगियोंका इलाज करना है, आजीविका देनेवाला तो ईश्वर है । आज तो सामान्यतः अन्य लोगोंकी भाँति वैद्य, हकीम और डॉक्टर, तीनों ही वर्ग; पैसा बटोरनेमें लगे रहते हैं । किन्तु सभी ऐसे नहीं होते यह लाला मथुरादास जैसे परोपकारी डॉक्टरोंने सिद्ध कर दिया है ।
आर्यसमाजने अन्त्यजोंकी सेवा को अपना विशेष कर्त्तव्य माना है अतः यदि इस भले डॉक्टर ने अन्त्यजोंकी सेवा बहुत ही उत्साहपूर्वक की तो इसमें आश्चर्यकी बात नहीं है । वढवानके कार्यकर्त्ताओंने अपने सेवाकार्यमें अन्त्यजोंको प्राथमिकता दी, इसके लिए वे धन्यवादके पात्र हैं। लाला मथुरादासको धन्यवाद देनेवाला में कौन हूँ ? निम्न पत्रसे सिद्ध होता है कि उनका धन्यवाद तो उनके द्वारा की गई सेवासे प्राप्त सन्तोष-
- ↑ सौराष्ट्रके कांग्रेस कार्यकर्ता तथा बम्बईसे प्रकाशित होनेवाले गुजराती दैनिक जन्मभूमि के संस्थापक ।