ब्रजभाषा और खड़ी बोली] ६६ [ 'हरिऔध' महिमामयी मागधी जैसे नियति का नियम पालन करने को बाध्य हुई. उसी प्रकार मधुरतामूर्तिं ब्रजभाषा को भी नियति-चक्र में पड़ना पड़ा । किन्तु वे भाषाएँ जैसे हमारी दृष्टि में आज तक भी समात हैं, वैसे ही जब तक हिंदी भाषा का नाम भी संसार में शेष रहेगा, ब्रजभाषा समाहत रहेगी। आज भी उसकी अर्चा करके अपने करों को चन्दन-चर्चित करनेवाले लोग हैं अोर चिर काल तक रहेंगे। मैं उन लोगों को मर्मज्ञ और सहृदय नहीं समझता, जो उसके विरुद्ध असंगत. बातें कथन करके अपने को कलंकित करते हैं। खड़ी बोली की कविता का अभी प्रारम्भिक काल है। जो लोग उसकी सेवा आजकल कर रहे हैं, वास्तव में वे सेवक हैं । यदि उनको कोई कवि समझता है तो यह उसका महत्त्व है। भक्तजन की भावुकता भावमयी होती है, अपने भावावेश में उसे किसी बात का अभाव नहीं होता, इसी सूत्र से कोई कुकवि भी किसी की दृष्टि में महाकवि बन सकता है। परन्तु, वास्तव बात यह है कि खड़ी बोली के सेवकों की तुलना ब्रजभाषा के सुकवियों से करना विडम्बना छोड़ और कुछ नहीं है । कवि- चक्र-चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास से महाकवि जिस पथ में चलकर कहते हैं-"कबित विवेक एक नहिं मोरे, सत्य कहौं लिखि कागद' कोरे" उस पथ का पथिक होकर कोई खड़ी बोली का सुकवि भी अपने को कवि नहीं कह सकता । कोई सेवक ऐसा दुस्साहस कैसे करेगा ! सब भाषाओं में सूर-शशि एक-एक ही होता है । हाँ, तारकचय की कमी नहीं होती। खड़ी बोली की कविता में पास-पास अन्धकार घनीभूत है, कतिपय तारे उसमें चमक-दमक रहे हैं । धीरे-धीरे अन्धकार टल रहा है। किन्तु भरमार अभी खद्योतों की ही है। उनको भी चमकने दीजिये। क्या कुछ अन्धेरा उनसे भी दूर नहीं हो रहा है ? आप उनको मुट्टियों में क्यों रखना चाहते हैं ? यह अन्धेर है । समय पर सब होगा-घनीभूत अन्धकार एक दिन टलेगा, भगवान् भुवन-भास्कर भी निकलेंगे।
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