हिन्दी भाषा का विकास] ७४ [ 'हरिऔध' है और उसमें गजब का जादू है। देखिये, वह भगवान् बैकुंठनाथ के बैकुंठ को भी कुंठित करके क्या कहते हैं- भुइयाँ खेड़े हर व्है चार । घर व्है गिहथिन, गऊ दुधार । रहर दाल जड़हन का भात । गागल निबुआ औ, घिव तात। सहरस खंड दही जो होय । बाँकै नेन परोसे जाय । कहै घाघ तब सब ही झूठा । उहाँ छाड़ि इहवै बैकुण्ठा । सुनिये, एक ब्राह्मण देवता की बातें सुनिये-श्राप बड़े बिगड़े दिल और चिड़चिड़े थे। कुछ दुख पाकर एक बार अपने राम से खीज गये । फिर क्या था, उबल पड़े। बड़ी जली-कटी सुनायी। उनकी बातें हों बेढंगी, पर दिल के भाव का सच्चा फोटो उनमें मौजूद है। कहते हैं:- घर से निकसते .बापै खेलें । पंचवटी हेरवउलैं नार । ढेकुली के अड़वाँ से बाली मरलें । ए दसरथ के बंड बोहार । ___ स्वर्गीय पण्डित प्रतापनारायण मिश्र की वैसवाड़ी में लिखी गयी कविता की बहार देखिये- हाय बुढ़ापा तोरे मारे अब तो हम नक न्याय गयन । करत धरत कछु बनत नाही, कहाँ जान औ' कैस करन ।। छिन भिर चटक छिन मा मद्धिम जस बुझात खन खोय दिया। तैसे निखवख देख परत हैं हमरी अक्किल के लच्छन । यदि इन पद्यों में वास्तविक हृदय के उद्गार प्रकट हुए हैं, तो बोल- चाल की भाषा में क्यों उत्तम कविता न हो सकेगी ? सैकड़ों गाने की चीजें, ठुमरियाँ, कजलियाँ, बिरहे, लोरिक, पचरे, पाल्हे बिल्कुल बोलचाल की भाषा में लिखे गये हैं और आज तक प्रचलित हैं । जनता में उनका कम आदर भी नहीं। फिर कैसे कहा जाय कि बोलचाल की भाषा काव्य
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