जीवित जाति के लिए जीवन-यात्रा-निर्वाह की जितनी उपयोगी सामग्री हैं, वह सब उनमें मौजूद है, और यही कारण है कि वे आज तक उसके जीवन सर्वस्व हैं। प्रत्येक सहृदय कवि को इन्हीं ग्रंथों को आदर्श मानकर कार्य क्षेत्र में उदारता और सहृदयता के साथ उत्तीर्ण होने की आवश्यकता है। आज हमारे लिए जो विष है उसका त्याग और जो अमृत है उसका ग्रहण आवश्यक है। कवि की दृष्टि प्रखर होनी चाहिए। उसको समाज के भीतर की गूढ़ से गूढ़ बातों को, छिपे से छिपे रहस्य को उद्घाटन करना चाहिए और उसके गुण-दोष की समुचित विवेचना करके दोष के निराकरण और गुण के संवर्धन और संरक्षण के लिए बद्धपरिकर होना चाहिए। यदि उसमें सच्चा आत्म-उत्सर्ग है, वास्तविक सत्यप्रियता है, यदि उसका हृदय उन्नत है, उदार है, निरपेक्ष है, संयत है, तो उसकी लेखनी जाति के लिए संजीवनीधारा होगी और उसका कविताकलाप समाज पर सुधावर्षण करेगा। वैतालिक जिस समय इदंकुतः में रत रहकर मानव हृदय को उपपत्तियों में उलझाता है और उसे पेचीली बातों में फंसाकर भूलभुलैया में डाल देता है उसी समय कवि अपनी रसमयी वाणी से उसको सरस कर देता है और उसमें उत्साह और स्फूर्ति के वह बीज वपन कर देता है जो उसके लिए तत्काल फलप्रसू होते हैं कवि के एक-एक शब्द, कविता की एक-एक पंक्ति में वह जीवन्त शक्ति होती है और वह इतनी प्रभावशालिनी होती है कि जाति के उत्थान-पतन में, मानव हृदय के संबोधन में, चित्त के वशीकरण में जादू का-सा काम देती है। कविपुंगव सूरदास के सामने दो मनुष्य उपस्थित हुए। ये दोनों विद्वान् थे, शंकासमाधान और विवाद की निवृत्ति के लिए उनकी सेवा में आये थे। एक कहता---'कुल बड़ा', दूसरा कहता---'संगति बड़ी'। घंटों लड़झगड़ कर भी जब किसी सिद्धांत पर उपनीत न हुए तो उनको उक्त महात्मा को पंच मानना पड़ा। उन्होंने उनकी बातों को सुनकर तत्काल निम्नलिखित दोहा पढ़ा--जिसने ऐसे गूढ़ प्रश्न की
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कवि ]
[ 'हरिऔध'
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