कविवर भारतेन्दु ] २६० [ 'हरिऔध' सर्व कामत गजब की चाल से तुम । क्यों कयामत चले बपा करके ।। खुद बख्खुद आज जो वह बुत आया। मैं भी दौड़ा .खुदा .खुदा कर के॥ दोस्तो कौन मेरी तुरबत पर। रो रहा है रसा रसा कर के। ८-श्रीराधामाधव युगल प्रेम रसका अपने को मस्त बना। पी प्रम-पियाला भर भरकर कुछ इस मैका भी देख मजा। इतबार न हो तो देख न ले क्या हरीचंद का हाल हुआ। ६-नव उज्ज्वल जल धार हार हीरक सी सोहति । बिच बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति । लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत । जिमि नर गन मन विविध मनोरथ करत मिटावत । १०-तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये। झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये । किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा। कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल सोभा। मनि आतप वारन तीर को सिमिटि सबै छाये रहत । कै हरिसेवा हित नै रहे निरखि नयन मन सुख लहत । उनकी इस प्रकार की रचनाएँ भी मिलती हैं, जिनमें खड़ी बोली का भी पुट पाया जाता है। जैसे यह पद्य :-
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