गोस्वामी तुलसीदास ] १६० [ 'हरिऔध' वास्तव में कार्य-क्षेत्र में आकर यह सिद्ध कर दे कि संसार की असारता में कोई सन्देह नहीं । हमारे इन तर्कों का यह अर्थ नहीं कि हम परोक्ष- वाद का खण्डन करते हैं, या उन सिद्धान्तों का विरोध करने के लिए कटिबद्ध हैं, जिनके द्वारा मुक्ति, नरक, स्वर्ग आदि सत्ता स्वीकार की जाती है। यह बड़ा जटिल विषय है। अाज तक न इसकी तर्कसम्मत निष्पत्ति हुई न भविष्य काल में होने की आशा है। यह विषय सदा रहस्य ही बना रहेगा। मेरा कथन इतना ही है कि सांसारिकता की समुचित रक्षा करके ही परमार्थ-चिन्ता उपयोगी बन सकती है, वरन् सत्य तो यह कि सांसारिक समुन्नत त्यागमय जीवन ही परमार्थ है। हम अात्महित करते हुए जब लोकहित साधन में समर्थ हों तभी मानव जीवन सार्थक हो सकता है। यदि विचार-दृष्टि से देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जायगा कि जो आत्महित करने में असमर्थ है वह लोक-हित करने में समर्थ नहीं हो सकता । आत्मोन्नति के द्वारा ही मनुष्य लोक- हित करने का अधिकारी होता है। देखा जाता है कि जिसके मुख से यह निकलता रहता है कि 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम, दास मलूका यों कहै, सब के दाता राम.' वह भी हाथ पाँव डालकर बैठा नहीं रहता। क्योंकि पेट उसको बैठने नहीं देता । हाँ, इस प्रकार के विचारों से समाज में अकर्मण्यता अवश्य उत्पन्न हो जाती है, जिससे अकर्मण्य प्राणी जाति और समाज के बोझ बन जाते हैं। उचित क्या है ? यही कि हम अपने हाथ-पाँव आदि को उन कर्मों में लगाये जिनके लिए उनका सृजन है। ऐसा करने से लाभ यह होगा कि हम स्वयं संसार से लाभ उठावेंगे और इस प्रवृत्ति के अनुसार सांसारिक अन्य प्राणियों को भी लाभ पहुँचा सकेंगे। प्रयोजन यह है कि सांसा- रिकता की रक्षा करते हुए, लोक में रहकर लोक के कर्तव्य का पालन करते हुए, यदि मानव वह विभूति प्राप्त कर सके जो अलौकिक बत- लायी जाती है तब तो उसकी जीवन-यात्रा सुफल होगी, अन्यत्र सब
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