कविवर सूरदास ] १८२ [ 'हरिऔध' 'लोगन के मन हाँसी' 'सूर परागनि तजति हिये ते श्री गुपाल अनुरागी । अँखिया हरिदरसन की प्यासी' 'जलसमूह बरसत दोउ आँखें हूँकत लीने नाउँ' १३-सूरदास की रचना में मुख्य बात यह पायी जाती है कि वे संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं। परन्तु विशेषता यह है कि उनके शब्द चुने हुए और ऐसे होते हैं जिनको काव्योपयुक्त कहा जा सकता है। संयुक्त वर्णो को तो मुख्य रूप में वे कभी-कभी संकीर्ण स्थलों पर ही लेते हैं। परन्तु, कोमल, ललित और सरस तत्स्प शब्दों को वे निस्संकोच ग्रहण करते हैं और इस प्रकार अपनी भाषा को मधुरतम बना देते हैं। उद्धृत पद्यों में से सातवें पद्य को देखिये। उनकी रचना में जो शब्द जिस भाव की व्यञ्जना के लिए आते हैं वे ऐसे मनोनीत होते हैं जो अपने स्थान पर बहुत ही उपयुक्त जान पड़ते हैं। अनुप्रास अथवा वर्णमैत्री जैसी उनकी कृति में मिलती है, अन्यत्र दुर्लभ है। जो शब्द उनकी रचना में आते हैं. प्रवाह रूप में आते हैं। उनके अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि वे प्रयत्नपूर्वक नहीं, स्वाभाविक रीति से आकर अपने स्थान पर विराजमान हैं। रसानुकूल शब्द-चयन उनकी रचना की विशेष सम्पत्ति है। अधिकतर उनकी रचनाएँ पद के स्वरूप ही हैं, अतएव झंकार और संगीत उनके व्यवहृत शब्दों के विशेष गुण हैं। इतना होने पर भी जटिलता का लेश नहीं। सब ओर प्राञ्जलता और सरलता ही दृष्टिगत होती है। १४-किसी भाव को यथातथ्य अंकित करना और उसका जीता- जागता चित्र सामने लाना सूरदासजी की प्रतिभा का प्रधान गुण है। जिस भाव का चित्र वे सामने रखते हैं उनकी रचनाओं में वह मूर्ति- मन्त होकर दृष्टिगत होता है। प्रार्थना और विनय के पदों में उनके
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