कबीर साहब ] १६३ [ 'हरिऔध' ऐसे पदों के अनर्गल अर्थ करने वाले मिल जाते हैं। परन्तु उनमें वास्तविकता नहीं, धींगा-धींगी होती है। मेरा विचार है उन्होंने ऐसी रच- नाएँ जनता को विचित्रता-समुद्र में निमग्न कर अपनी ओर आकर्षित करने ही के लिए की हैं । उनकी उल्टबाँसियाँ भी विचित्रतात्रों से भरी हैं । दो पद्य उनके भी देखिये- देखौ लोगो घर की सगाई। माय धरै पितु घिय सँग जाई। सासु ननद मिलि अदल चलाई। मादरिया गृह बेटी जाई । हम बहनोई राम मोर सारा । हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा। कहै कबीर हरी के बता। राम रमैं ते कुकुरी के पूता। कबीर बीजक, पृ० ३६३ देखि-देखि जिय अचरज होई। यह पद बूझै बिरला कोई। धरती उलटि अकासहिं जाई।। चिंउटी के मुख हस्ति समाई। बिन पौने जहँ परबत उड़ । जीव जन्तु सब बिरछा बुड़े। सूखे सरवर उठै हिलोर । बिन जल चकवा करै कलोल । बैठा पंडित पढ़े पुरान।। बिन देख का करै बखान ।
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