२१० . पौदिए लालन पालने हौं मुलावौं । कर पद मुख चख कमल लसत लखि लोचन भँवर भुलावौं । बाल बिनोद मोद मजुल मनि किलकनि खानि खुलावौं । तेइ अनुराग ताग गुहिवे कहँ मति मृगनयनि बुलावों। तुलसी भनित भली भामिनि उर सो पहिराय फुलाव चारु चरित रघुबर तेरे तेहि मिलि गाइ चरन चित लावौं ।। बालक का मयक सा मुखड़ा ऑखो मे सुधा बरसाता है, उसकी तुतली वाते कानो मे अमृत की बूद टपकाती है, उसके चुम्बन के आस्वाद के समुख पीयूष अख बन जाता है, और उसका आलिगन अग अंग पर चाँदनी छिड़क देता है। जब वह हसता-खेलता आकर शरीर से लपट जाता है, या किलकारियॉ भरता हुआ गोद में आ वैठता है, तब क्या उस समय 'सर्वांगीणमिवालिंगन्' का दृश्य उपस्थित नहीं हो जाता ? यह वात्सल्य भाव की रस मे परिणति ही तो है, और क्या है। देखिये सुधा निचोड़ती हुई एक माता क्या कहती है- मेरे प्यारे बेटे आओ। मोठी मोठी बातें कहके मरे जी की कली खिलाओ। उमग उमग कर खेला कूदो लिपट गले से मेरे जाआ। इन मेरी दोनो आँखों में सकर मुपा नूंद टपकाओ ॥ जिसने कभी बालको के साथ खेला है, वह जानता है कि उस समय कितनी तन्मयता हो जाती है। बालक उस समय जो कहता है, वही करना पड़ता है। उस समय वास्तव मे अन्य वैद्य विपय तिरोहित हो जाते हैं, यदि न हो नो बल का रंग ही न जमेगा। यदि ग्वेल का रग न जमा तो बाल-विलास का आनद ही जाता रहंगा । प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ ग्लाइन्टोन एक दिन अपने पौत्र के साथ खेल रहे थे। आप घोड़ा वन हुए थे, और पौत्र उनकी पीठ पर सवार होकर उनमे घोड़े का काम ले रहा था। उसी समय उनसे मिलने के लिये एक सन्नन पाये, और
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