अग्नि होता है, इसी प्रकार कारण से जो कार्य उपजता है सो भी उसी के सदृश होता है। तैसे ही जो निर्विकार आत्मा से जगत् उपजा है वह भी निर्विकार होना चाहिये पर वह तो ऐसे नहीं, आत्मा निर्विकार भोर शान्तिरूप है और जगत् विकारी और दुःखरूप है, उससे कलंकरूप जगत् कैसे उपजा? इतना कह वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार रामजी ने कहा तब ब्रह्मऋषि वशिष्ठजी बोले कि हे रामजी! यह सब जगत् ब्रह्मरूप है पर नाना प्रकार मलीनरूप जो भासता है सो मलीनता सत् नहीं। जैसे तरङ्ग के समूह समुद्र में फुरते हैं सो मलीनतारूप धूल नहीं है, वही रूप है, तैसे ही आत्मा में जगत् कुछ कलंक नहीं है वही रूप है। जैसे अग्नि में उष्णता अग्निरूप है तैसे ही आत्मा में जगत् आत्मारूप है, भिन्न नहीं। रामजी ने फिर पूछा कि हे ब्रह्मन्! निर्दुःख और निधर्म से जो यह दुःखरूप जगत् उपजा है यही कलंक है। आपके वचन प्रकाशरूप हैं और मुझे स्पष्ट नहीं भासते। मैं इसको नहीं जान सकता। तब मुनिशार्दूल वशिष्ठजी ने विचारा कि परम प्रकाश को अभी इसकी बुद्धि नहीं प्राप्त हुई, कुछ निर्मल हुई है और पद पदार्थ को जानता है परन्तु परमार्थ वेत्ता नहीं हुमा। जिसको परमार्थ बोध प्राप्त होता है और जिसका मन शान्त होता है, वह बात वेय पुरुष मोक्ष उपाय की वाणी के पार प्राप्त होता है और संसाररूपी अविद्या मल उसको नहीं भासता। वह केवल अद्वैत सत्ता देखता है। जब तक मैं और उपदेश रामजी को न करूँगा तब तक इसको विश्राम न होगा। जो अर्द्धप्रबुद्ध है उसको सब ब्रह्म ही कहना नहीं शोभता, क्योंकि उसका चित्त भोगों से सर्वथा व्यतिरेक नहीं हुआ। सर्वब्रह्म के वचन सुनके वह भोगों में आसक्त होगा जो नाश का कारण है। जिसको परमदृष्टि प्राप्त हुई है उसको भोग की इच्छा नहीं उपजती। इससे सर्वब्रह्म का कहना रामजी को सिद्धान्त काल में शोभेगा। गुरु को शिष्य के प्रति प्रथम सर्वब्रह्म कहना नहीं बनता। प्रथम शम-दम आदिक गुणों से शिष्य को शुद्ध करे फिर सर्वब्रह्म शुद्ध तू है ऐसे उपदेश करे तो उससे वह जाग उठता है। जो अज्ञानी अर्द्धप्रबुद्ध है उसको ऐसा उपदेश करने वाला गुरु
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योगवाशिष्ठ।
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