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आदिमंगल ।
लख चौरासी धारमा, तहाँ जीवदिय बास ।। चौदह यम रखवारिया, चारवेद विश्वास ॥१८॥ आपु आपु सुख सबरमै, एक अंडके माहिं ॥ उत्पतिपरलयदुःखसुख, फिरिआवहिंफिरिजाहिं १९ तेहि पाछे हम आइया, सत्य शब्दके हेत ॥ आदि अन्तकी उतपती, सो तुमसों कहिदेत ॥२०॥ सात सुरात सवमूलहै, प्रलयहु इनहीं माहिं।। इनहीं मासे ऊपजे, इनहीं माहँ समाहिं ॥२१॥ सोई ख्याल समरत्थकर, रहे सो अछप छपाइ॥ सोई संधिलै आइया,सोवत जगहिं जगाइ॥२२॥ सात सुरतिके बाहिरे, सोरह संखके पार ॥ तहँ समरथको बैठका, हेंसन केर अधार ॥२३॥ घर घर हम सबसों कही, शब्द न सुनें हमार ॥ ते भवसागर डूबहीं, लख चौरासी धार ॥२४॥ मंगल उत्पत्ति आदिका, सुनियो संत सुजान॥ कह कबीर गुरु जाग्रत, समरथका फ़रमान ॥२५॥ वस्तुनिर्देशात्मक मंगल।
दोहा-प्रथमै समरथ आपरहे, दूजा रहा न कोय ॥ दूजा केहिविधि ऊपजा, पूंछतहीं गुरुसोय ॥१॥ कबीरजीकी वाणीके अर्थ करिवेको मोमें सामथ्र्य नहींरही परंतु साहब यह । बिचारिकै कि कबीरजीके बीजकको पाखण्ड अर्थलगाइकै जीवबिगरे जायेंहैं सो