पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/१७

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मिलति है। आपने अपने बैठने के कमरे का नाम रक्खा था "ब्राह्मण-कुटीर" ।पर बैठते 'आप वहा बहुत कम थे। एक दिन जब हम आप से मिलने गये श्राप वहीं हमको मिले। दीवार पर एक इकतारा टॅगा था । हमारे साथ एक और सजन थे। उन्होंने उस इकतारे को उठाकर छेडना शुरू किया । कोई दो मिनट याद प्रतापनारायण से न रहा गया। उन्होंने उसे उनके हाथ से छीन लिया। आपने कहा 'यहि तना नहीं बजाया जाता। यह कह कर श्राप खडे हो गये और उसे बजाते हुए लायनी गाने लगे। हमारे साथी सजन ने पूछा-"ब्राह्मण मरि गा कि है ?" आपने कहा-"ब्राह्मण अब ना मरी, जी गा । बाबू रामदोगसिंह 'ब्राह्मण' का अमर के दीन । हम उनसे दो दफे मिले, पर हमें अफसोस है, एक दफा भी उनसे साहित्य विषयक बातें अच्छी तरह न हुई । शायद उनकी तबियत उस समय किसी और तरफ रुजू थो।

प्रतापनारायण अव्बल नम्बर के काहिल थे। उनके बैठने की जगह तक में कूडे का ढेर लगा रहता था। असगर, चिट्ठिया, कागज, विसरे पडे रहते थे। उनके यहा आने जाने वाले उनके मित्र अगर उन्हें उठाकर जगह को साफ कर देते थे तो कर देते थे। सुद प्रतापनारायण ने शायद ही कभी उनको उठा कर यथास्थान रक्या हो । लोगों की चिट्टियों का उत्तर तक ये पहुधा नहीं देते थे। पण्डित दुर्गाप्रसाद मिश्र को इन्होंने एक चिट्ठी लिखी थी। उसे "सङ्गविलास प्रेस' ने छाप कर प्रकाशित किया है। उसमें, एक जगह, चिट्टियों का उत्तर न देने के विषय में आप लिखते हैं-"कोसारेन को यहसि मा परै"।