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इसी प्रकार की विस्तारपूर्ण अत्युक्ति ग्रीवा की कोमलता और स्वच्छता के इस वर्णन में भी है--

पुनि तेहि ठाँव परीं तिनि रेखा। घुट जो पीक लीक सब देखा॥

इस वर्णन से तो चिड़ियों के अंडे से तुरंत फूटकर निकले हुए बच्चे का चित्र सामने आता है। वस्तु या गुण का परिमाण अत्यंत अधिक बढ़ाने से ही सर्वत्र सरसता नहीं पाती। इस प्रकार की वस्तुव्यंग्य उक्तियों की भरमार उस काल से आरंभ हुई जबसे 'ध्वनि' का आग्रह बहुत बढ़ा, और सब प्रकार की व्यंजनाएँ उत्तम काव्य समझी जाने लगीं। पर वस्तुव्यंजनाएँ ऊहा द्वारा ही की और समझी जाती हैं; सहृदयता से उनका नित्य संबंध नहीं होता।

वस्तुवर्णन का संक्षेप में इतना दिग्दर्शन कराके हम यह कह देना आवश्यक समझते हैं कि जिन जिन वस्तुओं का विस्तृत वर्णन हुआ है उन सबको हम 'आलंबन' मानते हैं। जो वस्तुएँ किसी पात्र के ग्रालंबन के रूप में नहीं आतीं उन्हें कवि और श्रोता प्रालंबन समझना चाहिए। कवि ही आश्रय बनकर श्रोता या पाठक के प्रति उनका प्रत्यक्षीकरण करता है। उनके प्रत्यक्षीकरण में कवि की भी वृत्ति रमती है और श्रोता या पाठक की भी। वन, सरोवर, नगर, प्रदेश, उत्सव, सजावट, युद्ध, यात्रा, इत्यादि सब वस्तुएँ और व्यापार मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति के सामान्य आलंबन हैं। अतः इनके वर्णनों को भी हम रसात्मक वर्णन मानते हैं। ग्रालंबन मात्र के वर्णन में भी रसात्मकता माननी पड़ेगी। 'नखशिख' की पुस्तकों में शृंगार रस के ग्रालंबन का ही वर्णन होता है और वे काव्य की पुस्तकें मानी जाती हैं। जिन वस्तुओं का कवि विस्तृत चित्रण करता है उनमें से कुछ शोभा, सौंदर्य या चिरसाहचर्य के कारण मनुष्य के रतिभाव का ग्रालंबन होती हैं; कुछ भव्यता, विशालता, दीर्घता आदि के कारण उसके आश्चर्य का; कुछ घिनौने रूप के कारण जुगुप्सा का, इत्यादि। यदि बलभद्र कृत 'नखशिख' और गुलाम नबी कृत 'अंगदर्पण' रसात्मक काव्य हैं तो कालिदास कृत हिमालयवर्णन और भूप्रदेशवर्णन भी।


पात्र द्वारा भावव्यंजना

पात्र द्वारा जिन स्थायी भावों की प्रधानतः व्यंजना जायसी ने कराई है वे रति, शोक और युद्धोत्साह हैं। दो एक स्थानों पर क्रोध की भी व्यंजना है। भय का केवल आलंबन मात्र हम समुद्रवर्णन के भीतर पाते हैं, किसी पात्र द्वारा भय का प्रदर्शन नहीं। बाभत्स का भी पालंबन ही प्रथानसार युद्धवर्णन में है। हास का तो अभाव हा समझना चाहिए। गौरण भावों की व्यंजना कुछ तो अन्य भाव के संचारिया के रूप में है, कूछ स्वतंत्र रूप में। जायसी की भाव-यंजना के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि उन्होंने जबरदस्ती विभाव, अनुभाव और संचारी ठसकर पूर्ण रस की रस्म अदा करने की कोशिश नहीं की है। भाव का उत्कर्ष जितने से सध गया है उतने ही से उन्होंने प्रयोजन रखा है। अनुभावों की योजना कम है। पदमावत म यद्यपि शृंगार ही प्रधान है पर उसके संभोग पक्ष में स्तभ, रोमांच नहीं मिलते। वियोग में अश्रुओं का बाहुल्य है। हावों का भी विधान नहीं