पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९९

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heart पेट पकरि के भाता रोवै बाँह पकरि के भाई । कपटि झपटि के तिरिया रोवे हंस अकेला जाई ॥ जब लगि माता जीवै रोवै तेरह दिन तक तिरिया रोवै बहिन रोवे दस माला । फेर करें घर बासा || चार गजी चरगजी मँगाया चारों कोने आग लगाया हाड़ जरै जस लाह कड़ी को सोना ऐसी काया जरि गई चढ़ा काठ की घोड़ी। फूँक दियो । जस होरी ।। केस जरै जस घासा । कोई न आया पासा || घर की तिरिया हूँ न लागी दूँढ़ि फिरी चहुदेसा | कहै कबीर सुनो भई साधो छाड़ौ जग की आला || १७५ ।। काया बौरी चलत प्रान काहे रोई ॥ टेक ॥ काया पाय बहुत सुख कीन्हो नित उडि मलि मलि धोई । सो तन छिया छार है जैसे नाम न लैहे कोई ॥ कहत प्रान सुनु काया धौरी मोर तोर संग न तोहि अस मित्र बहुत हम त्यागा सांग न लीन्हा ऊसर खेत कै कुसा मँगावै चाँचर चवर जीवत ब्रह्म को कोई न पूंजे मुरदा के सब सनकादि आदि ब्रह्मादिक सेस सहस जो जा जन्म लियो बसुधा में थिर न रहयो है पाप पुन्य है जन्म संघाती समुझि देख नर कहत कबीरा अंतर की गति जानत बिरला कोई ॥ होली होई । कोई || कै पानी । मिहमानी ॥ मुख होई । कोई ।। लोई । १७६ ॥ आई गवनवाँ की सारी उमिरि अबहीं मोरी बारी ॥ टेक साज समाज पिया ले आये और कहरिया चारी । बम्हना बेदरदी अचरा पकरि कै जोरत गँठिया हमारी । सभी सर्व गावत मारी ॥