पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९८

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कबीर साहब कबीर साईं मुझको चुपड़ी माँगत मैं डरूँ सत्त नाम को छाँड़ि कै बेस्या करे पूत ज्यों रूखी रोटी देय | रूखी छीनि न करें और कहें कौन को लेय ॥ १६५ ॥ को जाप । बाप ॥ १६६ ॥ एकै साधै सब सधै सब साधै सब जाय । पाहन पूजे ता जो गहि सेवै मूल हरि ये चाकी भली को फूलै फलै अघाय ॥ १६७ ॥ मिले तो मैं पुर्जी पहार | पीसि खाय संसार ॥ १६८ ॥ कै काँकर पाथर ओरि ता चढि मुल्ला बॉंग दे पोथी पढि पढ़ि जग मुआ दाई अच्छर प्रेम का सपने में साई मिले आँखि न खोलू उरपता साँझ पड़े दिन बीतवै चल चकवा वा देस को चात्रिक सुतहि पढ़ावही मम कुल यही जूआ चोरी जो चाहे स्वभाव है मुखबिरी कोय | मसजिद लई सुनाय । क्या बहिरा हुआ खुदाय ॥ १६६ ॥ पंडित हुआ न पढ़े सो पंडित होय ॥ लिया सांवत मति सुपना हूँ जाय दीन्हा चकवी जहाँ रैन ना होय ।। आन नीर मति १७० ॥ जगाय । ॥ १७१ ॥ राय । १७२ ॥ लेय । स्त्राँति बूंद चित देय || १७३ || व्याज घूस पर नार । दीदार को एती वस्तु निवार ।। १७४ ॥ शब्दावली मन फूला फूला फिरे जक्त में कैसा नाता रे || टेक।। ॥ माता कहै यह पुत्र हमारा बहिन कहें बिर मेरा । भाई कहै यह भुजा हमारी नारि कहें नर मेरा ॥