पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९७

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४२ कबीर जोगी जगत गुरु सर्जे जगत को जो जग की आसा करे तो जगत गुरू वह दास तन नुरंग असवार मन कर्म पियादा frent चली सिकार को कबिता-कौमुदी आस । ॥१५२॥ साथ । विषे बाज लिये हाथ ॥ १५३ ॥ act चलो सब कोई कहे पहुँचे बिरला कोय । पर नारी एक कनक अरु कमिनी दुरगम घाटी पैनी छुरी मत कोइ दोय ॥ १५४ ॥ लावो अंग । रावन के दस सिर गये पर नारी के संग ।। १५५ ।। सब सोने की सुन्दरी आवै बास सुबास । जो जननी है आपनी तऊ न बैठे पास ॥ १५६ ॥ छोटी मोटी कामनो सब ही विष की बेल । बैरी मारे दाँव दे यह मारै हँसि खेल ॥ १५७ ॥ जगत में सोवन करे सोवन सुरति डोर लागी रहें तार टूटि नहिं जाय निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय | तिनका कबहुँ न निन्दिये जो पाँवन तर कबहूँ उडि आँखिन पर पीर घनेरी होय दोष पराये देख करि चले हसंत अपने याव न आवई माखी गुड़ में गड़ि रही हाथ मलै औ सिरधुन औगुन कहौं सराब का मानुष से पसुआ करै रुखा सूखा खाइ देखि हसंत | जिनका आदि न अंत ॥ १६१ ॥ पंख रह्यो लिपदाय ॥ लालच बुरी बलाय ॥ ज्ञानवंत सुनि १६२ ॥ लेय ॥ द्रव्य गाँठि को देय ॥ १६३ ॥ कै ठंढा पानी पीच । बिरानो चूपड़ी मत ललचावै जीव ॥ १६४ ॥ लौ लाय । ॥ १५८ ॥ छवाय । ॥ १५६ ॥ होय । ॥ १६० ॥