पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९६

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ठौर । १४० ॥ इरी भया तो क्या भया जो करता हरता होय । साधू ऐसा चाहिये जो हरि भज निरमल होय ।। १३६ ।। बिरमल भया तो क्या भया निरमल भाँगे मल निरमल ते रहित हैं ते साधू कोइ और ॥ तप नहीं झूठ बराबर साँच है ताके हिरदे आप ॥ १४१ ॥ न लागई साँचे काल न साँच बराबर जाके हिरदे साँचे खाप पाप । खाय । साँचा को साँचा मिले साँचे माहि समाय ।। १४२ ।। साँचे कोइ न पतीजई झूठे जग पतियाय । गली गली गोरस फिरै मदिरा बैठि विकाय ॥ १४३ ॥ साँचे को साँचा मिलै आधिक बढ़े सनेह । झूठे को साँचा मिलै तड़दे टूटै नेह ॥ १४४ ॥ जहाँ दया वह धर्म है जहाँ लोभ तह पाप । जहाँ क्रोध तह काल है जहाँ छिमा तह आप ॥ १४५ ॥ कोय | १४६ ॥ बुरा जो देखन मैं चला जो दिल खोजौं आपना दाया दिल में रात्रिये साईं के सब जीव हैं कोटि करम लागे रहें किया कराया सब गया दसो दिसा से क्रोध की सीतल संगति साधु बड़ा हुआ तो क्या हुआ पंथी को बुरा न मिलिया मुझसा बुरा न कोय ॥ तू क्यों निरदर होय । कीड़ी कुंजर सोय ॥ १४७ ॥ एक क्रोध की जब आया हंकार ॥ उठी अपरबल की जैसे लार । १४८ ॥ आगि । तहाँ उबरिये भागि ॥ १४९ ॥ पेड़ खजूर 1 छाया नहीं फल लागे अति दूर ॥ १५० ॥ आपदा जहँ संसय तह सोग । मिर्दे चारो दीरघ रोग ॥ जहँ आपा तह कह कबीर कैसे १५१ ॥