पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९३

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३८ कविता- कौमुदी कस्तूरी कुंडल बसै ऐसे घट में पीव है द्वार धनी के पड़ि रहे कबहुँक धनी निवाजई जरा मोच व्यापै नहीं चलु कबीर वा देस को साथ सती औ सूरमा एते निकसि न बहुरैं सिर राखे सिर जात है जैसे बाती दीप की जूझैं गे तब कहेंगे भोड़ पड़े मन मसखरा अगिनि आँच सहना सुगम नेह निभावन एकरस सूरा नाम धराइ के मैदान में रहना पतिबरता को सुख घना मन मैलो मृग हूँद बन माहिं । दुनियाँ जान नाहि ॥ १००॥ धका धनीका खाय । जो दर छाड़िन जाय ॥ १०१ ॥ न सुनिये कोय । जहँ बैद साइयाँ होय ॥१०२॥ औ गजदंत | मुआ ज्ञानो १०३ ॥ सोय । जो जुग जाहि अनन्त ॥ सिर काटे सिर कटि उजियारा होय ॥ १०४ ॥ अब कछु कहा न लड़े किधौं भगि जाय सुगम खड़ग की महा कठिन ब्यौहार अब ENT डरपै जाय । ॥ १०५ ॥ धार । ॥ १०६ ॥ बार । सन्मुख सहना तीर ।। १०७ ।। जाके पति हैं एक । विभिचारनो ताके खसम अनेक || १०८ ॥ और न आन सुहाय । पतिबरता पति को भजै सिंह बचा जे लंघना तौ भी घास न खाय ॥ १०६ ॥ नंनों अंतर आव तू नैन काँपि ना मैं देखों और को ना ताहि देखन मैं सेवक समरत्थ का पतिबरता नाँगो रहे सब आये उस एक में अब कहो पाछे क्या रहा तोहि लेवं । देवें ॥ ११० ॥ कबहुँ न होय अकाज | तो वाही पति को लाज ॥ १११ ॥ डार पात फल फूल / गहि पकड़ा जब मूल ॥ ११२ ॥