पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९१

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३६ सिहों के लेहड़े नहीं हंसों को लाखों की नहि बोरियाँ साधु कहावन कठिन हैं डगमगाय तो गिरि पर गाँठी दाम न बाँधई कह कबीर ता साधु के साधु हमारी आतमा हम साधुन के साधु न चलें' ज्यों खाँड़े नहिं पांत । जमात ॥ ७४ ॥ की धार। निश्चल उतरे पार ॥ ७५ ॥ नहिं नारी से नेह । हम चरनन की खेह ॥ ७६ ॥ जीव । साधुन मद्रे य रहौं जाति न पूछो साधु की पूछि ज्यों य म घीव ॥ लीजिये ७७ ॥ शान । मोल करो तरवार का पड़ा रहन दो स्थान ॥ ७८ ॥ कबीर सांगत साधु की हरै और की व्याधि | संगत बुरी असाधु की कबीर संगत साधु की खीर खाँड़ भोजन मिले कबीर सांगत साधु की जो कछु गंधी दे नहीं कबीर सांगत साधु की होसी चंदन बासना संगति भई तो क्या भया आठो पहर उपाधि ॥ ७६ ॥ जौ की खाय । भूसी साकट सौंग न जाय ॥ ८० ॥ ज्यों गंधी तो भी बास निकल का बास । सुबास ॥ ८१ ॥ कभी न होय । ।। ८२ ॥ कठोर । नीम न कहसी कोय हिरदा भया नौ नेजा पानी चढ़े तऊ न भीजै कोर ॥ ८३ ॥ हरियर जान रूखड़ा जो पानी का सूखा काठ न जानही केतहु नेह । बूड़ा मेह ॥ ८४ ॥ मारी मरै कुलंग की ज्यों केले ढिग बेर । वह हाल वह चीरई साकट संग निवेर ॥ ८५ ॥ केला तबहि न चेतिया जब ढिग जामी बेरि । अब के चेते क्या भया काँटों लीन्हा घेरि ॥ ८६ ॥